– अशोक सोनी निडर
यह कल की ही घटना है जब किसी ने कहा कि कहां है भगवान? कोई भगवान नहीं है! यह बात उन्होंने दस-बीस साल पहले कही होती तो मैं कविता/ लेख/ कहानी कुछ न कुछ जरूर लिख देता। लेकिन आज मुझे लगता है कि भारतीय समाज अब जहां पहुंच गया है वहां लिख देने से कुछ होने वाला नहीं है। कुछ दिन पहले मुझे भी यह लगता था कि लिखने से कुछ बदल जाएगा। लेकिन आज लेखक पीछे रह गया है और वक्ता आगे बढ़ गए! इसीलिए ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ का जमाना चला गया, ‘बंच ऑफ थॉट्स’ या ‘मन की बात’ का जमाना आ गया है। यानी वक्ताओं की तूती बोल रही है।
दरअसल, राजनीतिक ईश्वरवाद ने भारतीय समाज को आज उस जगह लाकर खड़ा कर दिया है, जहां ईश्वर उनके आत्म-कल्याण के लिए नहीं राजनीतिक हथियार के लिए काम कर रहा है।
उसने महबूब ही तो बदला है, तो फिर ताज्जुब कैसा…
दुआ कबूल न हो तो, लोग खुदा को बदल देते हैं…
हां, मैं कल की बात बता दूं कि कल डॉ. अंबेडकर जयंती थी। यह सारे देश में जुलूस के रूप में मनाई गई। मंत्री, मुख्यमंत्री और ज्यादातर राजनेता उनके जन्म स्थान महू पहुंचे। प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति से लेकर हर छुटभैये नेता ने उन्हें समारोह पूर्वक याद किया। ऐसे ही एक मौके पर मैं अपने मित्र के गांव गया, जहां उनके दरवाजे पर बुद्ध और अंबेडकर के बड़ी-बड़ी फोटो रखे थे, बच्चियां उनके आगे फूल बिछा रही थीं, मोमबत्तियां जला रही थीं और खीर, मालपुआ की पंगत हो रही थी। सभी लोग बहुत उत्साह में थे कि एक सज्जन ने मेरे सुझाव के जवाब में कहा- ‘कहां है भगवान? कोई भगवान नहीं है!’ तब मुझे बहुत दुख हुआ। क्योंकि मुझे पता है कि भगवान है। कोई उसे राम, कृष्ण, नानक, यीशु, अल्लाह, झूलेलाल के रूप में मानता है, तो फिर कोई बुद्ध, महावीर के रूप में मानता है।
लेकिन अब यह मानना राजनीतिक अधिक हो गया है। सनातनियों ने जिस तरह की असहिष्णुता यानी बर्बरता अपनायी है, समाज को चार वर्गों में बांट दिया है, उसका दुष्परिणाम आज यह निकला है कि 50 प्रतिशत से अधिक लोग जैन, बुद्ध, सिख, ईसाई और मुस्लिम हो गए हैं। उनके अपने-अपने भगवान हैं और हिन्दुओं के भी 33 कोटि देवी-देवता हैं। लेकिन यह सब राजनीतिक भगवान हैं। इनसे व्यक्ति का व्यक्तिगत सम्बन्ध लगभग खत्म हो गया है। मैं पहले सोचता था कि लिख-लिख कर लोगों को समझाया जा सकता है। लेकिन अब मैं इस नतीजे पर पहुंच गया हूं कि ईश्वर के बारे में लोगों ने अपनी ही एक समझ बना रखी है। और वह यह है कि जो तुम्हारा भगवान है, वह हमारा भगवान नहीं है। इस कारण ही अधिकांश लोग बेसहारा हो गए। क्योंकि जो ईश्वर ‘हारे का हरिनाम’ था, असहाय का आत्मसंबल था वह बात अब खत्म हो गई। अब तो हमारा समुदाय कौन से ईश्वर का झण्डा लेकर हमें आगे बढ़ा सकता है, राजनीतिक रूप से सक्षम बना सकता है, अवसर दिला सकता है, बात यहां आ गई है। इसलिए डॉ. विजय पंजवानी की बेशक बहुत अच्छी कविताएं-
किसने कह दिया आसमान में सुराख हो सकता है।
किसने कह दिया उजाले अपनी यादों को हमारे साथ रहने दो।।
किसने कह दी ये सारी सकारात्मक बातें। साहब ये सब कवि होंगे या वैज्ञानिक या फिर दुनिया से कटे हुए लोग। आएं देखें-
यहां तो पत्थरों की नोकें तक मोथरी हो चुकी हैं हमारी संवेदनाओं की तरह।
सिर्फ मन के सुकून के सिवा और कुछ नहीं।।
वे हम जैसे चंद लोगों के लिए पढऩे का एक मटेरियल हैं। क्योंकि आदमी खाली समय में पढ़ता भी है। अब लिखना और पढऩा तो समय पास करने का या लेखकों की एक जमात में इकट्ठा होने का माध्यम है। किताबें पत्रिकाएं और सोशल मीडिया पर रोज-ब-रोज का लिखा जाना खूब है, पर इससे कुछ हो नहीं रहा। अब जो कुछ हो रहा है, वह उत्तेजक बोलने से और इस बोले हुए को बार-बार लोगों को सुनाने से लोग आंदोलित हो रहे हैं। अपने-अपने धर्म में, जाति में, समुदाय में बंध रहे हैं और एक-दूसरे को खत्म करने के लिए आक्रोश से भर रहे हैं। हम जैसे लोग दुख के अलावा और कुछ व्यक्त नहीं कर सकते।
हिन्दू मिलता है मुस्लिम मिलता है, बहुत खोजा जमाने में मगर इंसान नहीं मिलता।
अपने अपने मन्दिर हैं अपने अपने भगवान, जो बैठा था मन मन्दिर में अब वो भगवान नहीं मिलता।।