पत्रकारिता के मूत्रकाल में हम

– राकेश अचल


हमारा दुर्भाग्य है कि आज हम पत्रकारिता के मूत्रकाल से गुजर रहे है। दरअसल कालगति किसी ने देखी, कोई इसे हटक नहीं सकता, काल पर किसी का जोर भी नहीं है, लेकिन निराश होने की बात इसलिए भी नहीं है कि पत्रकारिता का ये दुर्गंधयुक्त काल भी शीघ्र ही समाप्त हो जाएगा। कोई काल कालजयी नहीं होता। हर काल को कालपात्र में जमींदोज होना पड़ता है।
आजादी से पहले और आजादी के बाद भारत की पत्रकारिता ने अनेक रंग एवं रूप बदले हैं। पत्रकारिता यदि किस समय फिरंगियों से लडऩे का औजार बनी है, तो उसने कभी समाजिक जन जागरण का काम भी निष्ठा से किया है। अमृतकाल से पहले पत्रकारिता ने स्वर्णकाल भी देखा है। हमारे पुरखों में बड़े-बड़े मूर्धन्य नाम शामिल रहे हैं हम ‘उदन्त मार्तण्ड’ से चलकर ‘आजतक’ के दौर में आ चुके हैं। अब हमारी खबरों का केन्द्र मूत्र तक जा पहुंचा है। मुमकिन है कि हम अभी इससे भी आगे जाएं।
सदियों के साथ सब कुछ बदलता है, पत्रकारिता भी बदल रही है। आपातकाल से गुजरी पत्रकारिता मोदीकाल में ‘गोदी मीडिया’ का तमगा लिए दिखाई देती है, इस काल में ही मूत्रकाल ने भी जन्म लिया है। इसमें किसी संपादक का कोई दोष नहीं है। उसके हाथ में कुछ है ही नहीं जो वो पत्रकारिता को मूत्रकाल में प्रवेश करने से रोक सके। पत्रकारिता अब ‘मन की बात‘ जैसी ‘मन का मोदक’ हो गई है। जो जैसे चाहे इसे इस्तेमाल करे।
भारतीय पत्रकारिता को मूत्रकाल से भी गुजरना पड़ेगा, इसकी कल्पना न किसी सप्रे ने की होगी और न किसी पराडक़र ने। खुशवंत सिंह हो या कुलदीप नैयर, राजेन्द्र माथुर हों या कल ही विदा हुए वेद प्रताप वैदिक, कोई नहीं जानता था कि पत्रकारिता का मूत्रकाल भी आएगा। हमने भी जब कलम और बाद में कैमरा सम्हाला था, तब हमें भी अंदाजा नहीं था कि हम अपनी आंखों से पत्रकारिता का मूत्रकाल भी देखेंगे, कमर वहीद नबी को भी अफसोस होता होगा ये काल देखकर, लेकिन कोई कुछ कर नहीं सकता। आजादी का अमृतकाल मनाने वाले हम पत्रकारिता का मूत्रकाल मनाने के लिए अभिशप्त जो हैं।
पत्रकारिता के मूत्रकाल को आप लोकतंत्र से जोडक़र बिल्कुल मत देखिये, क्योंकि लोकतंत्र भले ही संकट में हो किन्तु पत्रकारिता को कोई खतरा नहीं है। आज देश की पत्रकारिता बड़े ही मजबूत हाथों में हैं। ये वे हाथ हैं जो अतीत में ‘कर लो दुनिया मुट्ठी में’ का नारा देकर देश को, देश की सरकारों को, देश की अर्थ व्यवस्था को अपनी मुट्ठी में कर चुके है। ये हाथ कानून के हाथों से भी ज्यादा लम्बे हैं और चाहते हैं कि लोकतंत्र हो या पत्रकारिता सड़ांध भरे गटर से गुजरे और ऐसा होता दिखाई भी दे रहा है।
मैं हमेशा से कहता रहा हूं कि लोकतंत्र को और लोकतांत्रिक शक्तियों को इस तरह कि खतरनाक और खौफनाक दौरों से गुजरना पड़ेगा। हम इनसे बच नहीं सकते। इनका सामना करना ही पहला और अंतिम विकल्प है। इसलिए तैयारी कीजिये इस मूत्रकाल से जूझने की। जरूरी नहीं है कि आप मूत्रकाल को पल्लिवत करने वाले माध्यमों पर आश्रित रहें। आप इनका बहिष्कार करें। भूल जाएं कि देश में खुद को सबसे तेज और नंबर एक कहने वाले चैनल भी आपके यहां इस पाप के भागीदार हैं। आप सूचना के दूसरे माध्यमों पर जाइये। पत्रकारिता और लोकतंत्र इन्हीं श्रोतों में महफूज है।
अब कोई एसपी सिंह इस मूत्रकाल में हाथ लगाने नहीं आएगा। कोई रवीश कुमार इस मूत्रकाल को आगे बढऩे से नहीं रोक सकता। इसे रोकने की जिम्मेदारी हमारी, आपकी है। अगर हम और आप भी आंखें बंदकर बैठ गए तो हमें हर चैनल पर मूत्र विसर्जन के ही नहीं बल्कि न जाने कौन-कौन से दृश्य भविष्य में और देखने पड़ें। हम इसी मूत्रकाल में डिग्री विहीन लोगों को झेल रहे है। उन्हें महात्मा गांधी के मुकाबिल खड़ा करने की कोशिशें भी देख रहे हैं। जब देख रहे हैं तो प्रतिकार करना भी हमें आना चाहिए।
इस त्रासद मूत्रकाल में भी मैं आशान्वित हूं, क्योंकि इस दौर में भी कबीर के वंशज मरे नहीं है। कबीर का कुनबा डूबा नहीं है। कबीर ने एक नहीं एक से बढक़र एक कमाल पैदा किए हैं जो इस दुर्गन्धयुक्त मूत्रकाल को सुवासित करने की क्षमता रखते हैं। मुमकिन है कि आने वाले दिनों में सत्ता प्रतिष्ठान पत्रकारिता के मूत्रकाल संस्थापकों को पद्मश्री जैसे अलंकरण बांट दे, लेकिन यकीन रखिये के ये सब एक दिन इतिहास के कूड़ेदान में पड़े दिखाई देंगे।
पत्रकारिता का मूत्रकाल भी अंतत: मानवाधिकारों की रक्षा ही कर रहा है। उसने एक व्यक्ति को लघुशंका करते दिखाकर मानवाधिकार की रक्षा की है, अन्यथा हत्यारी सरकारें कब किसकी जान किस तरीके से ले लें, कोई जानता है। आपको अहसानमंद होना चाहिए पत्रकारिता के मूत्रकाल का जिसने योगियों की सरकार को नाकाम कर दिया। आप अहसानमंद हों या न हों किन्तु अतीक अहमद तो पत्रकारिता के इस मूत्रकाल को अपने लिए अमृतकाल ही मानेगा, जिसने उसको मरने से बचा लिया। आज की पत्रकारिता का यही दायित्व है। उसे कभी सरकार को बचाना होता है तो कभी अतीक को। लोकतंत्र से उसका कोई राब्ता नहीं रह गया है। लोकतंत्र जाए भाड़ में पत्रकारिता के मूत्रकाल को क्या पड़ी?

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