वक्फ बोर्ड कानून : आधे-अधूरे फैसले से भी राहत का अहसास

– राकेश अचल


देश की विडंबना है कि यहां लोगों के हिस्से में कभी कुछ पूरा नहीं आता। ‘आधा है चंद्रमा, रात आधी’ की तरह। देश की सबसे बड़ी अदालत भी इसका अपवाद नहीं है। जनता अंतिम न्याय के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाती है। किस्मत से यदि दरवाजा खुल जाए, अर्जी सुन भी ली जाए तो भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि आपके हिस्से में पूरा न्याय आएगा ही बहुचर्चित वक्फ बोर्ड कानून के मामले में भी जब फैसला आया भी तो हमेशा की तरह तो आधा अधूरा।
सुप्रीमकोर्ट के फैसले पर सबकी नजर थी, अकेले मुसलमानो की नहीं। पता चला कि वक्फ कानून के कुछ प्रावधानों पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लग दी है, सर्वोच्च अदालत ने ये कह कर कि ‘पूरे कानून को रोकने का अधिकार उसके पास नहीं है’ देश को निराश कर दिया। अब वादी कौन सी अदालत में अपील करे? गनीमत है कि सुनवाई के दौरान कोर्ट ने तीन धाराओं पर जरूर रोक लगाई है। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि बोर्ड में तीन से ज्यादा गैर मुस्लिम सदस्यों को नहीं लेना है, इस पर रोक लगी है। इसके अलावा वक्फ एक्ट के अनुच्छेद 3(74) पर भी रोक लगा दी गई है।
मौजूदा सरकार के वक्फ कानून के तहत वही मुस्लिम शख्स अपनी प्रॉपर्टी को वक्फ घोषित कर सकता है जो पांच सालों तक इस्लाम का पालन कर रहा होगा। लेकिन कानून के इस प्रावधन पर फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी है। तर्क दिया गया है कि राज्यों को पहले अपने स्तर पर नियम बनाने की जरूरत है जिससे यह तय हो सके कि किसे मुस्लिम माना जा रहा है या नहीं।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक धारा 3(74) से जुड़े राजस्व रिकार्ड के प्रावधान पर भी फिलहाल रोक रहने वाली है। सुप्रीम कोर्ट ने दो टूक कहा है कि कार्यपालिका किसी भी व्यक्ति के अधिकारों का निर्धारण नहीं कर सकती है। वैसे कोर्ट ने एक प्रावधान को सही भी माना है, साफ कहा गया है कि वक्फ संपत्तियों को रजिस्टर करवाना होगा, पहले वाले वक्फ कानून में भी यह प्रावधान था। सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान यह भी कहा है कि कोशिश रहनी चाहिए कि बोर्ड का मुख्य कार्यकारी अधिकारी मुस्लिम ही हो। लेकिन ये फैसले का अंग नहीं है। अदालत ने यह भी कहा है कि उनका यह आदेश इस एक्ट की वैधता पर उसकी अंतिम राय नहीं है। वक्फ कानून वक्फ अधिनियम 1995 में बदलाव कर लाया गया था।
आपको याद होगा कि केन्द्र की मोदी सरकार वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन, पारदर्शिता और दुरुपयोग रोकने के लिए नियमों को सख्त करने के उद्देश्य से इस कानून को लेकर आई थी।लेकिन सरकार की नजर वक्फ संपत्तियों पर थी। कानून में वक्फ बोर्ड में गैर-मुस्लिम और महिला सदस्यों को शामिल करना, कलेक्टर को संपत्ति सर्वे का अधिकार देना और वक्फ ट्रिब्यूनल के फैसलों को हाईकोर्ट में चुनौती देना का प्रावधान शामिल था। उस कानून के बाद ही कहा जा रहा था कि किसी भी संपत्ति को जबरन ‘वक्फ संपत्ति’ घोषित नहीं कर सकेगा।
ये अंतरिम राहत स्वागत योग्य है, लेकिन पीड़ित पक्ष का कहना है कि ‘इस कानून के वापस होने तक संघर्ष जारी रहेगा।’ सरकार कानून बनाती है और यदि देश की सबसे बड़ी अदालत उसे रोकने में असमर्थता जताती है तो जनसंघर्ष ही अंतिम विकल्प बचता है। सरकार पर गांधीवादी तरीके से सत्याग्रह कर दबाव बनाया जाता है तो कानून वापस भी होते हैं। देश के किसानों ने 700 से ज्यादा आहुतियां देकर किसान विरोधी तीन कानून वापस कराए भी हैं। सबसे बड़ी अदालत से दिए जाने वाले आधे-अधूरे फैसलों की एक लंबी फेहरिस्त है। चुनाव चंदे के लिए इलेक्टोरल बॉण्ड पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला ऐसे ही फैसलों में से एक है। अदालत ने इलेक्टोरल बॉण्ड को असंवैधानिक बताकर उस पर रोक लगा दी किंतु असंवैधानिक बांड से जुटाए गए पैसे पर कोई बात नहीं कही।
हमारे यहां कहा जाता है कि अर्ध भोजन, वृद्ध गाय, लेवा, देवा नरक जाए। लेकिन ये कहावत सुप्रीम कोर्ट पर लागू नहीं होती। देश की जनता सदैव संपूर्ण फैसले की उम्मीद करती है। लेकिन होता ये है कि तमाम फैसलों से सांप भी मर जाता है और लाठी भी नहीं टूटती। मुझे लगता है कि सुप्रीम कोर्ट को अपनी सीमाएं हम सबसे ज्यादा बेहतर मालूम हैं। कोर्ट यानि न्यायपालिका किसी भी सूरत में विधायिका से टकराव मोल नहीं लेना चाहती, क्योंकि न्यायपालिका के लिए सब कुछ तो विधायिका से ही पक कर आता है, नियुक्तियों से लेकर बजट तक। कोई अपने पांवों पर कुल्हाड़ी कैसे मार सकता है?
बहरहाल देश को ऐसे आधे-अधूरे फैसले सुनने और उनसे काम चलाने की आदत डाल लेना चाहिए। ये सिलसिला थमने वाला नहीं है। आने वाले दिनों में मुमकिन है कि ऐसा ही फैसला प्रेसीडेंशियल रिफ्रेंस के मामले में भी आए। हम वक्फ बोर्ड कानून के प्रावधानों पर अंतरिम रोक के फैसले का स्वागत करते हैं और उम्मीद है कि आगे जो भी होगा, अच्छा ही होगा।