भिण्ड 28 जून:- भारत के संविधान में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्द 1976 में 42वें संविधान संशोधन के तहत जोडे गए थे। इस पर प्रतिक्रिया देते हुए भारत तिब्बत सहयोग मंच (युवा प्रकोष्ठ) के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष अर्पित एम. मुदगल ने कहा कि संविधान सभा और डॉ. अंबेडकर इन मूल्यों से भलीभांति परिचित थे, लेकिन उन्होंने इन्हें उद्देशिका में जोडने की आवश्यकता नहीं समझी, क्योंकि न्याय, स्वतंत्रता और समानता जैसे मूल अधिकारों में ही समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता की आत्मा निहित है।
मुदगल ने कहा कि 1976 में आपातकाल के दौरान इन शब्दों को जोडना एक राजनीतिक कदम था, न कि वैचारिक सुधार। उस समय लोकतंत्र की छवि को बचाने और नीतियों को वैध ठहराने के लिए यह संशोधन लाया गया। उन्होंने कहा कि शब्द जोडने से अधिक जरूरी है उनके मूल्यों को व्यवहार में उतारना। आज भी जब आर्थिक असमानता और धार्मिक ध्रुवीकरण बढ रहा है, तो यह सोचने का समय है कि क्या हम इन मूल्यों का पालन कर भी रहे हैं? उन्होंने अंत में कहा कि संविधान में ‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्षता’ पहले से ही मौजूद थे- जरूरत है उन्हें राजनीतिक भाषणों से निकालकर जमीनी हकीकत में लागू करने की।