धर्मनिरपेक्षता की राजनीति का ‘राम नाम सत्य’

– राकेश अचल


देश में कोई माने या न माने लेकिन मेरी अपनी धारणा है कि देश की राजनीति में धर्मनिरपेक्षता का जो वटवृक्ष राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और देश के संविधान ने रोपा था उसका ‘राम नाम सत्य’ होना सन्निकट है। अयोध्या में नव निर्मित मन्दिर में भगवान राम की 51 इंच की प्रतिमा के प्राण-प्रतिष्ठित होने के साथ ही धर्मनिरपेक्षता की अंतिम यात्रा आरंभ हो जाएगी, क्योंकि कल तक जो ताकतें धर्मनिरपेक्षता की संरक्षक बनती दिखाई दे रही थीं, वे अब राम सेवक बनने को उतावली हैं। 22 जनवरी के बाद फैलकर 56 इंच के सीने 66 या 76 इंच के भी हो सकते हैं।
भारत में आजादी का सबसे बडा उपहार ही ‘धर्मनिरपेक्षता’ थी। संविधान के 42वे संशोधन के बाद तो उसे 1976 में केवल लिपिबद्ध किया गया था, लेकिन मात्र 48 साल में ही इस ‘धर्मनिरपेक्षता’ को ठिकाने लगाने की पूरी तैयारी हो चुकी है। जिन लोगों ने देश की आजादी के संग्राम को नहीं देखा, उसमें भाग नहीं लिया, वे लोग अपनी आंखों से ‘धर्मनिरपेक्षता’ की अर्थी उठते हुए शायद देख लेंगे। देश में जिस बिहार से हमेशा धर्मनिरपेक्षता को शक्ति मिलती थी है उसी बिहार में अब ‘धर्मनिरपेक्षता’ दम तोडती हुई दिखाई दे रही है। सुशासन बाबू का कंधा कमजोर होता दिखाई दे रहा है। उनके आराध्य राम मनोहर लोहिया उन्हें भटकने से शायद बचा नहीं पा रहे हैं और वे ये साबित करने में जुटे हुए हैं की ‘केर-बेर का संग’ राजनीति में मुमकिन है। सुशासन बाबू किसी भी तरह सत्ता से चिपके रहना चाहते हैं।
दुनिया जानती है कि जहां भी ‘धर्मनिरपेक्षता’ को लोकतंत्र का आधार बनाया गया है वहां शांति है, समृद्धि है, शक्ति है, विज्ञान है और जहां ये नहीं है। वहां सिवाय बिखराव के कुछ नहीं है। हम देश में एक हजार साल तक अक्षुण्ण रहने वाली इमारत पर काम कर रहे हैं, लेकिन एक हजार साल चलने वाले लोकतंत्र और धर्मनरपेक्षता पर काम नहीं करना चाहते। हम लगातार त्रेता युग की और बढ रहे है। बाद में इसमें द्वापर को भी समाहित करने के लिए अयोध्या के बाद मथुरा का नाम भी जोडा जाएगा। इसे कोई रोक नहीं सकता। राहुल गांधी की भारत जोडो न्याय यात्रा भी शायद नहीं। क्योंकि भारतीय जनमानस को धर्मनिरपेक्षता के बजाय धर्म का नशा ज्यादा असरकारक लगता है। धर्म के नशे में व्यक्ति अपनी भूख-प्यास और लोक लाज सब विस्मृत कर देता है।
मेरा जन्म एक सनातनी परिवार में हुआ है। मेरे घर में आज भी देवालय है, वहां देवी-देवताओं के अनेक विग्रह हैं, क्योंकि हम उदार हिन्दू है। हमारे यहां किसी मजार से तबर्रुक के साथ मिली हरे रंग की चादर भी है और केसरिया रंग की चुन्नियां भी। हम अगरबत्ती भी जलाते हैं और लोभान भी। हमें न अजान से उज्र है और न शंख ध्वनियों से। हमें किसी के खान-पान और पहनावे से भी कभी कोई आपत्ति नहीं हुई, क्योंकि ऐसा हमें सिखाया ही नहीं गया। लेकिन आज की पीढी की परवरिश में इन सब चीजों को शामिल किया जा रहा है। रंगों से, खान-पान से पहनावे से, भाषा से, अजान से यानि सबसे नफरत करना सिखाया जा रहा है।
कांग्रेस में एक तरफ प्रभु श्रीराम के विग्रह की प्राण-प्रतिष्ठा का जलसा है, तो दूसरी तरफ भारत की एकता और न्याय व्यवस्था को अक्षुण बनाए रखने का अभियान है। एक में जनता को ढोकर लाया जा रहा है और दूसरे में नेता खुद चलकर जनता के बीच पहुंच रहे हैं। एक में एक और डबल इंजिन की सरकारें लड्डू बनवाकर भेज रही हैं और दूसरे में इसका कोई प्रावधान नहीं है। सब मिल-बांटकर खा रहे हैं। हमारी संस्कृति में मिलकर बांटकर खाना ही पुण्य कार्य समझा जाता है, लेकिन हमें अब ऐसा समझने से रोका जा रहा है। कलियुग में अहिन्ह की माता सुरसा मंहगाई के रूप में आई है और न्याय यात्रा हनुमान के रूप में। दोनों के बीच अपना-अपना आकार बढाकर दिखाने की होड चल रही है। मजे की बात ये की इस बारे में न प्रभु राम को कुछ पता है और न उन्हें कुछ बताया जा रहा है। उनसे सिर्फ छिपाया जा रहा है। उन्हें प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत मंदिर बनाकर ठगने की कोशिश की जा रही है।
बहरहाल कहीं बर्फ जम रही है तो कहीं बर्फ पिघल भी रही है। जनता का एक बडा वर्ग तमाशबीन है या अयोध्या की उदासी ने उसे घेर लिया है। जनता सब देख रही है। आखिर इस देश में 140 करोड लोग रहते है। कोई राजनीतिक दल इस बडी आबादी में से तीन-चार-पांच करोड की आबादी को मुफ्त में ढो-ढाकर अयोध्या ले भी आये तो उससे क्या हासिल होना है? अयोध्या तो स्थिर है, सबके पास चलकर जा नहीं सकती। अयोध्या में रहने वाले विधर्मियों को आप अयोध्या से बाहर निकाल नहीं सकते। क्योंकि वे सैकडों साल से यहां रहकर प्रभु के लिए कपडे सिलते हैं, मिस्त्री का काम करते हैं। अगरबत्तियां बनाते हैं, और तो और प्रभु के विग्रह बनाते और बेचते भी हैं। वे धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था का अंग हैं और वे जब तक अयोध्या में हैं, तब तक धर्मनिरपेक्षता का राम नाम सत्य शायद नहीं हो सकता। कोशिशें की जा सकती हैं, वे की जाएंगी। लेकिन प्रभु श्रीराम अपनी आंखों के सामने धर्मनिरपेक्षता की अर्थी उठते शायद नहीं देखना चाहेंगे।
धर्मनिरपेक्षता के वजूद को लेकर मेरे मन में आशंकाएं हैं और उनका आधार भी है, लेकिन मैं हताश नहीं हूं। मुहे अपने श्रीराम पर यकीन है। वे मर्यादा पुरुषोत्तम है और समाज के लिए जो उत्तम होगा उसका ही साथ देंगे। उनकी सेना ने पुल बनाए हैं, तोडे नहीं। उनकी सेना में उनके राज में सभी तरह के लोग, सभी धर्मों के उपासक रहते थे और आपस में प्रेम भी करते थे। ये बात मैं नहीं परम राम भक्त तुलसी दासजी ने अपनी कृति राम-चरित मानस में लिखी है ‘सब नर करहि परस्पर प्रीति’। हमला इसी प्रेम पर किया जा रहा है। इसी प्रेम को बचने की जरूरत है। आइये प्रभु श्रीराम से प्रार्थना करें की देश में 22 जनवरी के बाद भी ये प्रेम बचा रहे। ये प्रेम ही धर्मनिरपेक्षता है। इसकी अर्थी उठने से रोका जाना चाहिए।