राज-धर्म के बाद गठबंधन धर्म संकट में

– राकेश अचल


भारतीय लोकतंत्र और राजनीति कभी भी संकट मुक्त नहीं रह सकते। कभी यहां राजधर्म को लेकर संकट होता है तो कभी गठबंधन धर्म को लेकर। फिलहाल दोनों संकट में हैं। लोकसभा चुनाव 2024 के लिए बनाया गया विपक्ष का गठबंधन आईएनडीआईए यानि इण्डिया अब बिखरता दिखाई दे रहा है। विपक्षी राजनीति में दरार सत्तारूढ भाजपा के लिए जहां शुभ संकेत हैं, वहीं विपक्ष के लिए अशुभ संकेत हैं। इंडिया गठबंधन को नुक्सान पहुंचाने वाले क्षेत्रीय दल गठबंधन धर्म की शुचिता के साथ ही अपने भविष्य से भी खिलवाड कर रहे हैं।
भारत वैसे भी पिछले एक दशक से राम भरोसे चल रहा है। भारतीय राजनीति का रंग लगातार बदला जा रहा है। भारतीय लोकतंत्र की मूल आत्मा के सीने पर अब तिरंगे से ज्यादा भगवे ध्वज फहराए जा रहे हैं, ऐसे में विपक्षी गठबंधन का बिखरना सचमुच चिंताजनक है। विपक्षी गठबंधन देश के भगवा करण को शायद रोक सकता लेकिन अब आम आदमी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस के रवैये के साथ ही जेडीयू के रुख से भी साफ हो गया है कि लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की लडाई कांग्रेस को अकेले ही लडना पडेगी। निश्चित ही कांग्रेस इस बिखराव से आहत होगी, लेकिन उसके सामने कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है।
आईएनडीआईए गठबंधन का सबसे बडा घटक दल तृणमूल कांग्रेस है। इस पार्टी की सुप्रीमो सुश्री ममता बनर्जी ने बंगाल में अकेले लोकसभा चुनाव लडने की घोषणा कर दी है। साफ है कि सीटों के बंटवारे पर कांग्रेस और तृमूकां में नहीं बन पाई। एक जमाने में बंगाल वामपंथियों का गढ था, वामपंथियों ने कांग्रेस को समूल उखड फैंका था। बाद में यही कमाल कांग्रेस से अलग हुई तृणमूल कांग्रेस ने किया। ममता बनर्जी की अगुवाई में बंगाल से वामपंथी भी उखड गए, लेकिन अब वहां भाजपा ने अपने पांव जमाना शुरू कर दिए है। पिछले आम चुनाव में भाजपा बंगाल में कम से कम 18 सीटों पर चुनाव जीती थी।
विपक्षी गठबंधन के साथ जो विश्वासघात ममता बनर्जी ने बंगाल में किया वो ही सब आम आदमी पार्टी ने पंजाब में किया। आम आदमी पार्टी ने पंजाब की सभी 13 सीटों पर अकेले चुनाव लडने का ऐलान कर दिया है। ममता और अरविंद केजरीवाल ने अलग लडने का फैसला क्यों किया, ये तो वे ही जानें। किन्तु इन दोनों के निर्णय से एक बात जाहिर हो गई है कि ये दोनों कांग्रेस से आतंकित है। और जाने-अनजाने, स्व-विवेक से या किसी अदृश्य दबाब में भाजपा की मदद करने जा रहे हैं। वैसे भी भाजपा की मौजूदा सरकार दोनों के पीछे अपनी ईडी और सीबीआई को लगाए हुए है।
इंडिया गठबंधन को सबसे बडी उम्मीद बिहार से है या थी। बिहार की राजनीती में भी भाजपा ने बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न सम्मान देकर सेंध लगाने की कोशिश की है। भाजपा बिहार में येन-केन जेडीयू और राजद के गठबंधन को तोडना चाहती है और इस दिशा में भाजपा को सफलता मिलती दिखाई दे रही है। जेडीयू पहले से अविश्वसनीय घटक है। जेडीयू ने घाट-घाट का पानी पिया है और कोई आश्चर्य नहीं होगा कि जेडीयू के सुप्रीमो नीतीश कुमार आज-कल में ही ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल के रास्ते पर चलते हुए इंडिया गठबंधन से अपने आपको मुक्त कर भाजपा के साथ खडे दिखाई दें। यदि ऐसा होता है तो देश में धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ चल रहे अभियान को बहुत बडा नुक्सान होगा।
सब जानते हैं कि बिखरा हुआ विपक्ष भाजपा की आंधी को नहीं रोक सकता। भाजपा को रोकने के लिए जिस एकजुटता की जरूरत है वो अब दिखाई नहीं दे रही है। उप्र में बहन मायावती पहले ही इंडिया गठबंधन को ठेंगा दिखा चुकी हैं। समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो अखिलेश यादव के सुर भी बिगडे हुए दिखाई दे रहे हैं। वे अब तक राजद से अपने यादवीय रिश्ते की वजह से इण्डिया गठबंधन के साथ खडे दिखाई दे रहे हैं, लेकिन कल को वे भी अपनी ढपली अलग बजाकर अपना आलाप निकाल सकते हैं। महाराष्ट्र की विपक्षी एकता में भाजपा पहले ही खटाई डाल चुकी है। महाअघाडी गठबंधन के प्रमुख दल शिवसेना और एनसीपी को भाजपा पहले ही दो फाड कर चुकी है। ले-देकर ओडिशा बचता है। ओडिशा से बीजद को उखाडने में भी भाजपा को अब शायद ज्यादा देर न लगे।
लब्बो-लुआब ये है कि धर्मनिरपेक्षता कोई लडाई अब कांग्रेस को शायद अकेले ही लडना पडेगी। इंडिया गठबंधन के बिखराव से कांग्रेस की लडाई असंभव तो नहीं, किन्तु कठिन अवश्य हो जाएगी। लेकिन इससे निराश होने की जरूरत नहीं है। कांग्रेस राजनीति का वो अमीबा है जो अजर-अमर है। उसे चाहे जितने खण्डों में विभक्त कर दीजिए, वो मरेगा नहीं। आप कांग्रेस को एक राज्य में मारेंगे तो वो दूसरे राज्य में अंकुरित हो जाएगा। यही हाल भाजपा का भी है। भाजपा भी एक जगह मुंह की खाती है तो दूसरी जगह धूल झाडकर उठ खडी होती है। यानि न देश कांग्रेस विहीन हो रहा है और न भाजपा विहीन। दोनों के बीच का संघर्ष अब सनातन हो चुका है। मौजूदा परिदृश्य से मतदाता के लिए चुनौतियां बढ गई हैं। लेकिन भारत का मतदाता विचित्र है। कभी वो धर्म की गंगा में गोते लगता दिखाई देता है, तो कभी अचानक धर्मनिरपेक्षता के साथ तनकर खडा हो जाता है। देखिए आने वाले दिनों में क्या कुछ बनता और बिगडता है?