श्रुति परम्परा को जीवित रखने की कोशिश

– राकेश अचल


मनुष्य के पास जब स्याही नहीं थी, कागज नहीं था, तब ज्ञान के प्रचार-प्रसार का जो साधन था, वो था आमने-सामने बैठकर सुनना और सुनाना। भारी शब्दों में इसे कहते हैं ‘श्रुति’ अर्थात सुना हुआ। आज हमारे पास सब कुछ है, कागज, स्याही, इलेक्ट्रानिक कलम और कापियां हैं फिर भी श्रुति परम्परा को कोई हानि नहीं हुई। ये बात अलग है कि आज इस परम्परा का सबसे ज्यादा दुरुपयोग धर्म और राजनीति के लोग कर रहे हैं। लेकिन मध्य प्रदेश के ग्वालियर शहर में इस परम्परा का सार्थक इस्तेमाल नई और पुरानी पीढी के बीच साहित्य, संस्कृति, इतिहास और राजनीति के आदान-प्रदान को लेकर किया जा रहा है। देश के अनेक शहरों में इस तरह की कोशिशें जारी हैं। कहीं इन्हें स्टडी सर्किल कहा जाता है, तो कहीं चौपाल। नाम अलग-अलग हैं लेकिन काम एक ही है कि श्रुति परम्परा प्राणवान बनी रहे।
ग्वालियर में प्रगतिशील लेखक संख की इकाई ने भारत विमर्श नाम से इस श्रुति परम्परा को आरंभ किया और आज दो साल की अलप अवधि में ही इस संस्था ने शहर में एक ऐसा वर्ग तैयार कर दिया है जो कहता भी है और सुनता भी है। इसमें 18 वर्ष से लेकर 80 वर्ष तक के लोग आते-जाते रहते हैं। साहित्य से शुरू हुआ ये विमर्श आज कल स्वतंत्रता संग्राम से जुडे अनछुए विषयों पर काम कर रहा है। देश जिन नायकों को विस्मृत कर चुका है, उन्हें याद कर नई पीढी से उनका परिचय करने का पुण्य कार्य इस संस्था द्वारा किया जा रहा है। मजे की बात ये है कि यहां कोई भी विचारधारा हो सभी का स्वागत किया जाता है, लेकिन पोषण उसी विचार का किया जाता है जो राष्ट्र के मूल चरित्र को प्रतिबिम्वित करता हो।

इस भारत विमर्श की अनुगूंज अब सुनाई देने लगी है। स्थानीय विद्वानों के अलावा देश के विभिन्न हिस्सों से वक्ता यहां की इस बिरादरी में बैठ कर, बोल कर सुख अनुभव करते हैं। अब तक इस मंच पर 44 से अधिक विषयों पर सारगर्भित विमर्श हो चुका है। वक्ता स्वयं विषय चुनते हैं और भरपूर तैयारी के बाद बातचीत के लिए उपस्थित होते हैं। युवक, युवतियां प्राध्यापक, राजनीतिज्ञ, समाजसेवी, कलाकार, चित्रकार, पत्रकार सब इस विमर्श का हिस्सा हैं, यहां होने वाले हर वक्तव्य को बाकायदा वीडियो अभिलेख रखा जाता है और इसे एक यूट्यूब चैनल के जरिये सर्व साधारण के लिए भी उपलब्ध कराया जाता है, ताकि जो लोग यहां नहीं आ सकते वे भी इस विमर्श से लाभान्वित हो सकें। वक्ताओं को कोई पारश्रमिक नहीं दिया जाता, लेकिन स्मृति चिन्ह के रूप में देश के तमाम नायकों के चित्र और पुस्तकें भेंट की जाती हैं।
पिछले दो साल में यहां महात्मा गांधी से लेकर कर्पूरी ठाकुर तक न जाने कितने वैज्ञानिकों, समाज सुधारकों, राजनीतिज्ञों, साहित्यकारों, स्वतंत्रता सैनानियों पर विमर्श हो चुका है। हर विमर्श अपने आप में एक अनूठा अनुभव होता है। कुछ के बारे में हम जानते हैं और कुछ के बारे में हमें कुछ भी पता नहीं होता। ऐसे में जिज्ञासा, उत्सुकता लगातार बनी रहती है। खास बात ये है कि ये विमर्श एकतरफा नहीं है। श्रोता अपने वक्ता से उसके वक्तव्य पर प्रश्न और प्रतिप्रश्न कर सकता है। कोशिश की जाती है कि हर जिज्ञासा का निदान हो, हर प्रश्न का उत्तर मिले नितान्त पारिवारिक इस आयोजन को आप अविश्वसनीय मान सकते हैं, क्योंकि आज की व्यस्त जिंदगी में किसके पास समय है विमर्श का, वो भी ऐसे विषयों पर विमर्श का साक्षी बनने का जो कालातीत हो चुके हैं।
हकीकत ये है कि आप जिन विषयों पर यहां के विमर्श को सुनते हैं उससे जुडी तमाम सामग्री आज के गूगल विश्व विद्यालय में हांसिल हो सकती है, लेकिन ये जानकारी शुष्क होती है। कभी-कभी भ्रामक भी होती है, किन्तु यहां जो कुछ कहा-सुना जाता है वो शोधपूर्ण और सरस होता है। कुछ विषय तो ऐसे जीवनात होते हैं कि सुनकर लोग चकित हो जाते हैं। कुछ ऐसे नायकों के बारे में भी विमर्श हुए जिनके नायकों के सहयोगी खुद बोलने आए। अब उनकी विश्वसनीयता तो असंदिग्ध होती ही है। मात्र एक दर्जन लोगों के साथ आरंभ हुआ ये कारवां अब लगातार बढता ही जा रहा है। नई पीढी के लोगों को श्रुति परम्परा का हिस्सा बनाने के लिए उन्हें प्रोत्साहन स्वरूप पढने के लिए भेंट में किताबें भी दी जाती हैं और इसके सुखद परिणाम निकले हैं।

गूगल ज्ञान कहता है कि श्रुति का शाब्दिक अर्थ है सुना हुआ, यानि ईश्वर की वाणी जो प्राचीन काल में ऋषियों द्वारा सुनी गई थी और शिष्यों के द्वारा सुन कर जगत में फैलाई गई थी। इस दिव्य स्त्रोत के कारण इन्हें धर्म का सबसे महत्वपूर्ण स्त्रोत माना है। इनके अलावा अन्य ग्रंथों को स्मृति माना गया है- जिनका अर्थ है- मनुष्यों के स्मरण और बुद्धि से बने ग्रंथ, जो वस्तुत: श्रुति के ही मानवीय विवरण और व्याख्या माने जाते हैं। श्रुति और स्मृति में कोई भी विवाद होने पर श्रुति को ही मान्यता मिलती है, स्मृति को नहीं। लेकिन मुझे लगता है कि श्रुति और स्मृति में बहुत बारीक भेद है। श्रुति और स्मृति न हो तो तमाम ऐसा साहित्य, इतिहास, विज्ञान लुप्त हो गया होता जो आज हमारे सामने है। श्रुति और स्मृति में कोई स्पद्र्धा नहीं है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। दुर्भाग्य से कालांतर में इन दोनों को विकृत कर दिया गया है।
आज भी आप देखते हैं कि तथाकथित संत-महंतों और धार्मिक कथा वाचकों को सुनने के लिए असंख्य लोग उपस्थित हो जाते है। व्यवस्थाएं अव्यवस्थाओं में बदल जाती हैं। नेताओं को सुनने के लिए अब आयातित भीड यानि श्रोता लाए जाते हैं। पहले ऐसा नहीं था। तमाम आसारामों और शास्त्रियों ने इस श्रुति-स्मृति परम्परा को कलुषित किया है, किन्तु जैसी कोशिशें ग्वालियर में हो रही हैं उनसे उम्मीद की किरण फूटती है।
ग्वालियर में विचार-विमर्श और श्रुति-स्मृति को जीवित रखने का ऐसा ही महत्वपूर्ण काम आईटीएम विश्वविद्यालय भी लगभग दो दशकों से कर रहा है। यहां भी कला, संगीत, साहित्य, इतिहास, राजनीती और विज्ञान विषयों पर निरंतर ऐसे ही आयोजनों के माध्यम से एक ऐसी नई पीढी को तैया किया जा रहा है जो सुनती भी है और सुनाती भी है। देश में हर शहर-कस्बें में ऐसी कोशिशें की जाना चाहिए। उल्लेखनीय है कि भारत जैसे देश में जो वेद हैं वे इसी श्रुति परम्परा की महत्वपूर्ण उपलब्धि हैं।