धर्म निरपेक्षता की ताकत को पहचानिए

– राकेश अचल


कुर्सी पर बने रहने के लिए धर्मान्धता पहली और अकेली शर्त नहीं है। इसके लिए बार-बार हिन्दुत्व और तमिलत्व को उभरने की भी जरूरत नहीं पड़ती। कुर्सी धर्मनिरपेक्षता से भी लम्बे समय तक हासिल की जा सकती है। ये बात भारत में भी प्रमाणित हो चुकी है और हाल ही में तुर्की में हुए राष्ट्रपति चुनाव में भी। आप सोचेंगे कि विवादों से घिरे भारत में तुर्की कहां से आ गया? इसके लिए आज आपको धर्मनिरपेक्षता के साथ तुर्की को भी जानना होगा।
आपको जानकर हैरानी होगी कि तुर्की संसार का अकेला मुस्लिम बहुमत वाला देश है जो कि धर्मनिर्पेक्ष है। तुर्की एक लोकतांत्रिक गणराज्य है। इसके एशियाई भाग को अनातोलिया और यूरोपीय अंश को थ्रेस कहते हैं। तुर्की को टर्की और तुर्किये भी कहते हैं, जैसे भारत को इंडिया और हिन्दुस्तान। तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन एक बार फिर राष्ट्रपति चुन लिए गए हैं। उन्होंने लगातार 11वीं बार चुनाव जीता है। चुनाव में एर्दोगन ने 52.3 प्रतिशत वोट हासिल किए, जबकि उनके प्रतिद्वंदी केमल किलिकडारोग्लू के 47.7 प्रतिशत वोट मिले। एर्दोगन लंबे समय से तुर्की की सत्ता पर काबिज रहे, लेकिन इस बार उन्हें विपक्षी नेता कमाल केलिकदारोग्लू से कड़ी टक्कर मिली।
तुर्किये के राष्ट्रपति को भी भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तरह गालियां खाना पड़तीं हैं, लेकिन वे इन गालियों को पचा लेते हैं। उफ तक नहीं करते। वे भूकंप में घायल देश के राष्ट्रपति हैं। उनके यहां भूकंप में घायल लोगों को गाडिय़ों से पोलिंग बूथ तक ले जाया जाता है। तुर्किये में राष्ट्रपति चुनाव के लिए दूसरी बार मतदान हुआ है। इससे पहले हुए 14 मई को हुए चुनाव में किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिल पाया था। तुर्किये में 11बीं बार राष्ट्रपति चुने गए रेसेप तैयप एर्दोगन कश्मीर मामले में पाकिस्तान का समर्थन करते आए हैं। रेसेप तैयप एर्दोगन की पार्टी एकेपी को 49.4 फीसदी वोट मिले थे। वहीं, तुर्किये के गांधी कहे जाने वाले कमाल केलिकदारोग्लू की पार्टी सीएचपी को 45.0 फीसदी वोट मिले थे। जबकि सत्ता में आने के लिए किसी भी पार्टी को 50 फीसदी से ज्यादा वोट मिलने चाहिए।
मैंने एर्दोगन का किस्सा जान-बूझकर उठाया है, वे भी हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ही तरह एक तरह की सनक के शिकार हैं। एर्दोगन दुनिया में मुसलमानों का नया मसीहा बनना चाहते हैं। ऐसे में उन्हें जहां भी मुसलमानों के खिलाफ कुछ भी दिखता है वे तुरंत कूद पड़ते हैं। फ्रांस और भारत को लेकर एर्दोगन के तेवर हमेशा से सख्त रहे हैं। वे कश्मीर पर पाकिस्तान का समर्थन करते हुए संयुक्त राष्ट्र में इस मुद्दे को कई बार उठा चुके हैं। एर्दोआन ने पिछले साल ऐतिहासिक हगिया सोफिया संग्रहालय को मस्जिद में बदल दिया जो सन 1453 तक एक चर्च रहा था। एर्दोआन मुस्लिम जगत में सऊदी अरब की बादशाहत को चुनौती देने की लगातार कोशिशों में लगे हैं।
मेरी नजर में हमारे प्रधानमंत्री जी भी हिन्दुओं के एर्दोगन हैं। वे नए संसद भवन में चोल वंश का राजदण्ड स्थापित कर सकते हैं और दुनिया में जहां भी हिन्दुओं के खिलाफ कुछ होता है, मोदी जी भी तुरंत कूद पड़ते है। उन्हें भी हिन्दुओं का मसीहा बनने की सनक सवार है। बावजूद न एर्दोगन को मसीहा बनने में कामयाबी मिली और न मोदी जी को। दोनों को विपक्ष की और से कड़ी चुनौती मिल रही है। एर्दोगन 11वीं बार सिर्फ इसलिए चुने गए क्योंकि उन्होंने तुर्किये के धर्मनिरपेक्ष ढांचे से कोई छेड़छाड़ नहीं की। मोदी जी भी ऐसा ही कर भारत के 11 बार प्रधानमंत्री बन सकते हैं, लेकिन वे ऐसा करते दिखाई नहीं देते।
तुर्किये कोई नया देश नहीं है, हां सनातन भी नहीं है। तुर्की को भारत के लोग कमाल पाशा की वजह से जानते हैं। प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्किये के शासक उस्मानी तुर्क जर्मनों के साथ थे। जर्मनों की हार और अरब में अंग्रेजों द्वारा खदेड़ दिए जाने के बाद उस्मानी साम्राज्य का अंत हो गया। इसके बाद मुस्तफा कमाल पाशा ने लोकतंत्र का प्रचार और धर्मनिरपेक्ष प्रणाली की वकालत की जिसके फलस्वरूप तुर्की एक धर्मनिरपेक्ष देश बना। अरबी लिपि को त्याग कर यूरोपीय रोमन आधारित लिपि को अपनाया गया और शासन को धर्म से अलग किया गया।
एक जमाना था जब तुर्की को ‘यूरोप का मरीज’ कहा जाता था। तुर्की में युवा तुर्क आंदोलन की शुरुआत अब्दुल हमीद द्वितीय के शासनकाल में 1908 ई. में हुई। पान इस्लामिज्म का नारा अब्दुल हमीद द्वितीय ने दिया था। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद 10 अगस्त 1920 ई. को तुर्की के साथ भीषण अपमानजनक सेब्र की संधि की गई। मुस्तफा कमाल पाशा ने इसे मानने से इनकार कर दिया। आधुनिक तुर्की का निर्माता मुस्तफा कमाल पाशा को माना जाता है। वे भारत के जवाहर लाल नेहरू की तरह हैं। इसे ‘अतातुर्क’ (तुर्की का पिता) के उपनाम से भी जाना जाता है। तुर्की में एकता और प्रगति समिति का गठन 1889 ई. में हुआ। प्रारंभ में कमाल पाशा एकता और प्रगति समिति के प्रभाव में आया। एक सेनापति के रूप में कमाल पाशा ने गल्लीपोती युद्ध में शानदार सफलता हासिल की। इसके बाद 1919 ई. में कमाल पाशा ने सैनिक पद से इस्तीफा दे दिया। 1919 ई. के अखिल तुर्क कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता मुस्तफा कमाल पाशा ने की। 1923 ई. में तुर्की एवं यूनान के बीच में लोजान की संधि हुई। 23 अक्टूबर 1923 ई. को तुर्की गणतंत्र की घोषणा हुई। 20 अप्रैल 1924 ई. को तुर्की में नए संविधान की घोषणा हुई। तुर्की के नए गणतंत्र का राष्ट्रपति मुस्तफा कमाल पाशा बने। मुस्तफा कमाल पाशा द्वारा किए गए महत्वपूर्ण कार्य निम्न हैं- 1924 ई. में तुर्की को धर्मनिरपेक्ष राज्य की घोषणा। इस लिहाज से तुर्की हमारा वरिष्ठ गणतंत्र है। धर्मनिरपेक्ष होते हुए भी 1925 ई. को तुर्की में टोपी और औरतों को बुर्का पहनने पर कानूनी प्रतिबंध लगाया गया। नेहरू की तरह1933 ई. में तुर्की में पाशा ने प्रथम पंचवर्षीय योजना का लागू की। इस्ताम्बुल में एक मेडिकल कॉलेज की स्थापना की। 1938 ई. में कमाल पाशा की मृत्यु हो गई। लेकिन तुर्की आज भी जिंदा है और एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में जिंदा है।
तुर्की का संदर्भ अचानक आया है, क्योंकि एक छोटा सा राष्ट्र होते हुए भी यहां साक्षरता दर वर्तमान में 95 फीसदी है। तुर्की के लोगों में 12 साल के लिए स्कूल जाने के लिए आवश्यक हैं। इस्तांबुल विश्वविद्यालय तुर्की में पहला विश्वविद्यालय था। यह 1453 में स्थापित किया गया था, अंकारा विश्वविद्यालय पहला विश्वविद्यालय है, उसके बाद तुर्की एक गणतंत्र बन शुरू कर दिया गया था। यह 1946 में स्थापित किया गया था। भारत में कांग्रेस की सरकारें भी तुर्की की तरह साक्षरता दर हासिल नहीं कर पाईं और बीते नौ साल में ये कमाल नरेन्द्र मोदी की सरकार भी नहीं कर पाई। आज देश के जो हालात हैं उन्हें देखते हुए मुझे नहीं लगता की मोदी जी भारत के एर्दोगन बन पाएंगे। हालांकि उनका सपना आजन्म प्रधानमंत्री बने रहने का है।
तुर्की के राष्ट्रपति मेरी पसंद कभी नहीं रहे, लेकिन तुर्की का राष्ट्रीय धेय वाक्य मुझे हमेशा आकर्षित करता है। तुर्की कहता है- ‘शांति घर में, शांति दुनिया में’ भारत भी हमेशा शांति का पक्षधर रहा है। घर में भी और दुनिया में भी। इस लिहाज से भारत और तुर्की के दृष्टिकोण में कुछ-कुछ समानता है। आप इसी समानता को ध्यान में रखिये और बांकी सब भूल जाईये। यानी धर्मनिरपेक्षता को याद रखिये, उसके ढांचे को बचाईए। क्योंकि सबसे ज्यादा हमले इसी धर्मनिरेक्षता के ऊपर हो रहे हैं, आगे भी होंगे।