501 दीपों के साथ महाआरती कर हुआ प्रवचनों का समापन
भिण्ड, 03 नवम्बर। परिवर्तनशील संसार में समयानुसार उचित परिवर्तन को स्वीकार करना, वैचारिक प्रौढ़ता एवं सुनम्रता का लक्षण होता है। अपनी बुद्धि अथवा चरित्र का अभिमान करने वाला मनुष्य परिछिन्नतान्वेषी होकर दूसरों से घृणा करने लगता है तथा समाज में अकेला पड़कर भ्रमित एवं दु:खी हो जाता है। यह बातें मंशापूर्ण गौशाला परिसर में चल रहे तीन दिवसीय आध्यात्मिक प्रवचन के अंतिम दिन पूज्यपाद अनंतश्री विभूषित श्री काशीधर्मपीठाधीश्वर जगद्गुरू शंकराचार्य स्वामी नारायणानंद तीर्थ महाराज ने कही।
स्वामी जी ने आगे बताया कि कर्मयोगी अर्थात भक्त अतीत के बंधन में भी नहीं पड़ता और न ही वह विगत पुण्यों के कारण दर्प और न ही विगत पापों के कारण शोक करता है। वह न अतीत का चिंतन करता है और न ही भविष्य की चिंता। मनुष्य अपने भविष्य का निर्माण वर्तमान विचार एवं कर्म द्वारा निरंतर करता रहता है। वर्तमान को सुधारने से भविष्य अपने आप ही सुधर जाता है। आत्मोद्धार का मार्ग सबके लिए सदैव खुला हुआ है। जो मनुष्य औपचारिक रूप से पूजा-पाठ तथा तीर्थ आदि का सेवन करते हैं, किन्तु न अपने स्वभाव को उत्तम बनाते हैं और न कर्म (पुरुषार्थ) करते हैं, वे आत्मोद्धार का रहस्य नहीं समझते। कर्मयोगी अपने दोषों का सुधार तो करता है, किन्तु उनके कारण अपने को पापी नहीं कहता तथा अपने गुणों को पहचानकर उनका विकास करता है। यद्यपि अधिक पश्चाताप करना अविवेक होता है, तथापि जब कोई घोर पापी विगत पाप कर्मों का पश्चाताप करता है, तो वह अपने सात्विक स्वभाव की प्रबलता को प्रमाणित करता है तथा आत्मोद्धार का मार्ग प्रशस्त करता है। भगवान का द्वार सभी के लिए सदैव तथा समान रूप से खुला हुआ है। क्योंकि संसार में मानव ही ऐसा प्राणी है जो विवेक द्वारा विचार कर अपना उद्धार स्वयं कर सकता है। और सत विवेक महापुरुषों संतजनों के सानिध्य में बैठकर जागृत किया जा सकता है। सत्संग करने से अंत:करण की शुद्धि होती है एवं विवेक का विकास होता है। जिससे जिज्ञासु भक्तजनों की सद्गति अवश्य हो जाती है।
कार्यक्रम का आयोजन मंशापूर्ण गौ सेवा समिति द्वारा किया गया। प्रवचन से पूर्व समिति के अध्यक्ष विपिन चतुर्वेदी एवं पदाधिकारियों द्वारा पादुका पूजन कर आशीर्वाद प्राप्त किया गया।