मोदी के मन और हैं, औरन के मन और

– राकेश अचल


भाजपा के नए पितृपुरुष प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमित शाह द्वारा सांसदों व केन्द्रीय मंत्रियों को मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव लडाने के मायने क्या हो सकते हैं? इस पर मीडिया का आंकलन सुनकर हंसी आती है। मीडिया चाहे गोदी मीडिया हो या सोशल मीडिया इसे संपूर्णता में समझ पाने में शायद असमर्थ है। मुमकिन है कि ये अतिश्योक्ति लगे आपको, लेकिन वास्तव में मोदी जी इस प्रयोग के जरिए बहुत कुछ साधना चाहते हैं और इसके राजनीतिक संदर्भ अलग-अलग हैं।
भाजपा सकासर के अनेक केन्द्रीय मंत्री तथा सांसद अपने पुत्र या भाई को चुनाव में टिकट दिलाना चाहते थे, उन सभी को विधानसभा चुनाव लडाकर उनके बेटे और भाई को चुनावी मैदान से बाहर कर दिया गया। अपने पुत्र/ पुत्री व नातेदारों को टिकट दिलाने की अभिलाषा रखने वालों को सीधे तौर पर संकेत देकर मना कर दिया गया है। यह पार्टी के भीतर पनप चुके परिवारवाद से मुक्ति पाने का मोदी जी का अपना तरीका है।
मोदी-शाह की जोडी ने निर्ममता के साथ पार्टी के नाम पर तीन-चार बार से चुनाव जीत चुके सांसदों से मुक्ति पाने के लिए उनको अपनी योग्यता साबित करने के लिए विधानसभा चुनाव में उतार दिया गया है। ये सभी केन्द्र में मंत्री बनना चाह रहे थे और दिल्ली से प्रदेश व संगठन में हस्तक्षेप कर रहे थे, भले ही वे नरेन्द्र सिंह तोमर हों या प्रहलाद पटेल या फग्गन सिंह कुलस्ते हों। सभी के मन में अपने भाई-भतीजों को राजनीति में प्रतिष्ठित करने की गहन अभिलाषा थी, इन दोनों को मैदान में उतरने के साथ ही पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय और राकेश सिंह की भी यही गति हुई।
भाजपा के भाग्य विधाताओं ने भांप लिया था कि वर्तमान राज्य सरकार के प्रति सत्ता विरोधी लहर है और इसे थामने के लिए या तो नेतृत्व परिवर्तन किया जाए या कोई ऐसी जमावट की जाए जो जनता को नई लगे। नेतृत्व परिवर्तन का फैसला लेने में देर हो चुकी थी। ऐसे में लंबे समय से खाये-अघाये मंत्रियों और सांसदों को मैदान में उतरना ही इकलौता विकल्प था। मोदी-शाह ने आंकलन कर लिया है कि एक तो ये सब चुनाव में जीत के लिए पानी की तरह पैसा बहाएंगे जिससे कार्यकर्ताओं में व्याप्त निराशा में कमी आ सकती है। साथ ही इनमें से कई को हराकर जनता अपनी भडास बाहर कर सकती है।
इस आजमाए हुए प्रयोग कि जरिये पार्टी ने टिकट वितरण में क्षेत्रीय क्षत्रपों के हस्तक्षेप को खत्म कर दिया, क्योंकि वे खुद प्रत्याशी हैं। अब वे दूसरों को टिकट दिलाकर जिताने की जिम्मेदारी कैसे ले सकते हैं? अब केन्द्रीय नेतृत्व अपने हिसाब से टिकट वितरण कर रहा है। परदे के पीछे राजनीति करने वाले सभी नेताओं को जो मुख्यमंत्री बनने के लिए लालायित रहते थे, विधानसभा चुनाव में उतार कर अपनी काबिलियत साबित करने का अवसर दिया है। इसे ‘अस्तित्व के लिए फिट’ होने की कसौटी बना दिया है। पार्टी ने एक तीर से न जाने कितने निशाने साध रखे हैं। मंत्री और संसद यदि चुनाव हारते हैं तो उनसे पार्टी को स्थाई मुक्ति मिल जाएगी।
इस समय मध्य प्रदेश मंत्रिमण्डल कि अनेक सदस्य खुद चुनाव लडने की बजाय अपने बेटे-बेटियों को चुनाव लडाने कि लिए प्रयत्नशील हैं, लेकिन इसके लिए उन्हें अपनी कुर्सी छोडना पडेगी। वरिष्ठ मंत्री गोपाल भार्गव और डॉ. नरोत्तम मिश्रा की स्थिति यही है। और भी कई मंत्री हैं जो खुद चुनाव लडने के साथ ही अपने बच्चों को भी अपनी आंखों के सामने विधायक बना देखना चाहते हैं, लेकिन उनके सपनों पर पानी फिरता दिखाई दे रहा है। कांग्रेस में तो कमलनाथ और दिग्विजय सिंह का सपना पूरा हो गया, किन्तु भाजपा के कमलनाथ और दिग्विजय सिंह बाजी हारते दिखाई दे रहे हैं। कांग्रेस के कमलनाथ और दिग्विजय कौन हैं, उन्हें आसानी से पहचाना जा सकता है।
विधानसभा चुनाव के लिए साधे गए इस निशाने के साथ ही पार्टी अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए भी तमाम कार्यकर्ताओं को तैयार करने जा रही है। क्योंकि जिन सांसदों को विधानसभा चुनाव में उतारा गया है, उनकी जगहों पर नए लोगों के सांसद प्रत्याशी बनने के लिए अवसर है और ध्यान रहे कि एक संसदीय क्षेत्र में छह से आठ विधानसभा क्षेत्र होते हैं। आठ विधानसभा क्षेत्र के टिकट न पाए लोगों को सांसद प्रत्याशी बनाने का आश्वासन देकर पार्टी के खिलाफ जाने से रोका जा सकता है। केन्द्रीय मंत्रियों और सांसदों को उतार कर मोदी जी केन्द्र सरकार व खुद उनके विरुद्ध उपज रही सत्ता विरोधी लहर थामने का प्रयास कर रहे हैं। बेरोजगारी, महंगाई आदि के कारण केन्द्र सरकार से बढती निराशा से उपजी जनता की नाराजगी से बचने के लिए यही सही प्रतीत हुआ होगा।
ये बात अब जग-जाहिर हो चुकी है कि मोदी और शाह का लक्ष्य 2023 के विधानसभा चुनाव जीतना नहीं, अपितु 2024 का लोकसभा चुनाव जीतना है। इस चुनाव में मोदी जी अपने समकक्ष आ रहे अपने ही दल के अपने सभी राजनीतिक विरोधियों को पूरी तरह से नेस्तनाबूद करने के लिए प्रयासरत हैं। राजस्थान में पूर्व मुख्यमंत्री बसुंधरा राजे और मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान इसके उदाहरण हैं। इस चुनाव में यह भी तय हो रहा है कि सिंधिया राजपरिवार से एक ही व्यक्ति राजनीति में रहेगा। यशोधरा चुनाव नहीं लडेंगी और वसुंधरा राजे सिंधिया का भी यही होना तय है। ज्योतिरादित्य सिंधिया इकलौते चश्मोचिराग रह जाएंगे। उनके रिश्तेदारों में श्रीमती मयासिंह, ध्यानेन्द्र सिंह और मायासिंह क बेटे का नंबर भी अब कट सा गया है।
प्रधानमंत्री मोदी के दोनों हाथों में लड्डू रहने वाले हैं। पार्टी जीते या हारे उनका घाटा नहीं होने वाला। वे अपने प्रयोगों से फिलवक्त टिकट वितरण की उलझनों के साथ ही आने वाले समय में होने वाले लोकसभा चुनावों के लिए अपनी रणनीति का परीक्षण भी कर लेंगे और इसके जरिए सांसद बनने के लिए भाजपा काडर में नई ऊर्जा का संचार भी, मुमकिन है कि मेरी सूचनाएं और आंकलन गलत भी हों, किन्तु इस पर भरोसा तो किया जा सकता है।