बुंदेली बतरस

– राकेश अचल

एक जमाने में बुंदेलखण्ड में भी बाल विधवाओं की संख्या बंगाल जैसी ही थी। पुनर्विवाह होता नहीं था, सती प्रथा पर रोक थी। ऐसे में विधवाओं की पूरी उम्र अपने मायके की चौखट पर कटती थी। बचपन में हमारे ममाने में हमारे रिश्ते की एक बड़ी नन्ना थीं। उम्र कोई 80 की होगी। सर मुड़ाए रहती थीं, एक सूती साड़ी, ब्लाउज के बिना पहने देखा था मैंने हमेशा उन्हें। ऊपर से दबंग लेकिन भीतर से जर्जर। वे उस समय जो बातें मेरी मां से करती थीं। मुझे आज भी याद हैं। आज मैंने उन्हें बुंदेली बतरस में पिरो दिया है।

(1)

की-की खों समझाऊ बिन्नू
रोऊं, नाचूं, गाऊं बिन्नू?
*
सबके सब खक्खा सराब हैं
की के ऐब गिनाऊं बिन्नू
*
जूबो दूभर है बन्ने को
कैसे बाय बचाऊं बिन्नू
*
अपनी कुब्बत की सीमा है
कबलों बोझ उठाऊं बिन्नू
*
लोहे कौ पिंजरा रिश्तन को
कैसे अब उड़ पाऊं बिन्नू?
*
गिने-चुने दिन रै गए बांकी
कब लों खैर मनाऊं बिन्नू
*
बिन्नू दम घुट रऔ है अब तो
कैसे जाये बचाऊं बिन्नू?

(2)

पसरट की दूकान सी हो गयी बुंदेली
बिन्नू भीड़भाड़ में खो गयी बुंदेली
*
कूल्हे मटका कें के रए हैं बुंदेले
उठो! उठाओ, देखो, सो गई बुंदेली
*
बुंदेली के सेवक हैं, कै दुश्मन हैं
टसुआ ढार-ढार केंरो गयी बुंदेली
*
लयें कटोरा फिर रए बुंदेली वाले
है! भिखारिन जैसी हो गई बुंदेली
*
बड़े-बड़े तमगा लटका लये छाती पै
मजबूरी में दही बिलो गयी बुंदेली
*
बड़े तला पै मिल गई हम खों भुंसारें
जाने कित्ती अरई चुभो गई बुंदेली
*
बुंदेले हरबोलन की जिन बात करो
चीकट अपने आपई धो गई बुंदेली