जब जागो तब सबेरा

– डॉ. ज्योत्सना सिंह राजावत


अगर तरीका ठीक है तो उत्सव कोई बुरा नहीं होता है, हम चर्चा करते हैं बदले हुए कैलेंडर की, जिसे नव वर्ष मानकर हम सभी हर्षित हो रहे थे, यहां तक ठीक है फिर अपने-अपने तरीके से जश्न मनाने लगे। धीरे-धीरे यह जश्न रात-रात भर चलने लगा, आज इसका स्वरूप इतना परिवर्तित हो गया है कि जगह-जगह शहर में पुलिस की चैकिंग चल रही है। हर किसी के सिर पर नव वर्ष का भूत सवार है, तैयारी में कोई कमी नहीं है, देर रात तक जश्न हंगामा होता है। यह माहौल ऐसा हो गया है जहां घर परिवार के सदस्य सम्मिलित नहीं हो सकते हैं। यह मौज मस्ती सिर्फ हम उम्र दोस्तों के साथ हो रही है, अब आप अंदाजा लगा लीजिए, क्या यही नव वर्ष का स्वरूप है। हमने तो उस नव वर्ष को जाना है जब ब्रह्म मुहूर्त में उठकर सूरज देव की पहली किरण के साथ शुभ दिवस का आरंभ होता था, घर के बडे बुजुर्गों की चरण-रज मस्तक पर धारण कर शुभ आशीष के साथ नए-नए संकल्पों को पूरा करने के लिए दृढ निश्चय कर आश्वस्त हो जाया करते थे। मां नए-नए पकवान बनाती थी, सबसे पहले भगवान को भोग लगाया जाता था, उसके बाद सब एक साथ प्रसाद एवं भोजन ग्रहण करते थे। इसी दिन वर्षभर के कार्यों की योजनाओं को स्वरूप दिया जाता था। यह तारीख नहीं, चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि के साथ हिन्दू नववर्ष की शुरुआत होती थी। महाराज विक्रमादित्य ने इस विक्रम संवत की स्थापना की थी, यह काल्पनिक मंतव्य नहीं है। ब्रह्म पुराण में स्पष्ट लिखा है कि ब्रह्माजी ने सृष्टि रचना इसी दिन से की थी। हम इन सबको कैसे बिसरा सकते हैं। हमें परिवार और समाज में संस्कार बनाए रखने के लिए अक्षुण्ण भारतीय सांस्कृतिक परम्परा का विस्तार करना होगा, जन-जन को जागरुक कर भारतीयता के मूल्यों से अवगत कराना होगा।