विधानसभा चुनाव : फेस टू फेस लडने का मौसम

– राकेश अचल


देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के लिए परिदृश्य अब कुछ-कुछ उभरने लगा है। इन पांच में से चार राज्यों में सभी प्रमुख दलों ने अपने-अपने प्रत्याशियों के नाम घोषित कर दिए है, जो बांकी हैं वे भी आज-कल में सामने आ जाएंगे। इससे अब मतदाताओं को अपना मन बनाने में सुविधा होगी। अब बचे-खुचे दिन मतदाताओं को रिझाने और रूठों को मनाने में खर्च किए जाएंगे। इस बीच मौसम ने भी करवट बदली है और हवा में गुलाबी सर्दी का अहसास होने लगा है। मौसम का रंग और चुनावी रंग त्यौहारों के रंग से मुकाबला करता नजर आ रहा है।
इन विधानसभा चुनावों में सभी राजनीतिक दलों में मुख्यमंत्री के चेहरों को लेकर असमंजस है। सबसे ज्यादा असमंजस तो भाजपा में है। कांग्रेस में भी असमजंस की स्थिति है लेकिन भाजपा से कम। कांग्रेस के पास मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ में हालांकि मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवारों को सब पहचान रहे हैं, लेकिन राजस्थान में चुनाव परिणाम आने के बाद फैसला किया जाएगा। राजस्थान में अभी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का जादू पार्टी के भीतर और बाहर साफ नजर आता है। कांग्रेस के समाने ऐसी पशोपेश तेलंगाना में भी नहीं है। वहां भी प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष को मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में अघोषित रूप से घोषित किया गया है। मिजोरम में किसी भी दल के पास कोई ऐसा चेहरा नहीं है जो साफ तौर पर मुख्यमंत्री का चेहरा हो। यहां हर बार गठजोड की सरकार बनती है और इसमें भाजपा की भूमिका इस बार भी शायद नगण्य हो।
कांग्रेस और भाजपा के प्रत्याशियों के जितने भी नाम इन राज्यों में सामने आए हैं उन्हें लेकर पार्टी के भीतर असंतोष और संतोष बराबर है। कांग्रेस ने इस असंतोष का सामना करने का शायद पहले से मन बना रखा है। पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने साफ कहा है कि पार्टी के पास चार हजार आवेदन थे लेकिन उम्मीदवार तो केवल 230 ही बनाए जा सकते हैं। ये हमारे नेता और कार्यकर्ता भी जानते हैं। हम रूठे लोगों को मना लेंगे। कांग्रेस में अभी जहां भी असंतोष के सुर सुनाई दिए हैं वहां चिंता की बात ज्यादा नहीं है। असंतोष को लेकर सबसे ज्यादा चिंता भाजपा में है। भाजपा में शिवराज, नाराज और महाराज भाजपा के बीच पहले से जंग चल रही थी। इस जंग को प्रत्याशियों के चयन ने और बढा दिया। इसी वजह से सबसे ज्यादा भगदड भाजपा में ही हुई है, जो अभी भी थमने का नाम नहीं ले रही है।
मध्य प्रदेश में भाजपा सत्ता प्रतिष्ठान विरोधी लहर के साथ ही पार्टी के आंतरिक असंतोष का भी सामना कर रही है, लेकिन राजस्थान और छत्तीसगढ में भाजपा को केवल आंतरिक असंतोष ही इतना भारी पड रहा है कि वो सत्ता प्रतिष्ठान विरोधी जन भावना को भुनाने की स्थिति में आ ही नहीं पा रही है। इन राज्यों में भाजपा के अनेक येदुरप्पा हैं, जो पार्टी हाईकमान को आंखें दिखा रहे हैं। भाजपा का मौजूदा हाईकमान पुराने और स्थापित नेताओं से आतंकित है, इसलिए उन्हें किनारे कर देना चाहता है। लेकिन हाईकमान की यही कोशिश उसके गले की हड्डी बन गई है। मप्र में भाजपा ने मौजूदा मुख्यमंत्री के सामने एक तरह से हथियार डाल दिए हैं, लेकिन राजस्थान में बसुंधरा राजे के समाने हाईकमान की प्रत्यंचा अभी भी तनी हुई है। छग में डॉ. रमन सिंह हाईकमान के सामने कभी तन कर खडे नहीं हुए, इसलिए उन्हें अभी भी पसंद किया जा रहा है। तेलंगाना और मिजोरम में भाजपा की कलम अभी तक जडों में तब्दील ही नहीं हुई है। इन दोनों राज्यों में भाजपा सत्ता संग्राम का हिस्सा नहीं है।
पांच राज्यों के चुनावों को लेकर भाजपा हाईकमान जितना तनाव में है, उसे देखकर लगता है कि उसे इन राज्यों का रण आसान नहीं लग रहा। डबल इंजन की सरकार चलने के बाद भी मप्र में भाजपा के सामने चुनौतियां ही चुनौतियां हैं। मप्र में सत्ता बनाए रखना और राजस्थान तथा छग में सत्ता छीनना आसान काम नहीं है, जबकि हाल ही में कर्नाटक जीत चुकी कांग्रेस का मनोबल बढा हुआ है, मप्र में भी और राजस्थान में भी। छग में कांग्रेस की सरकार है और उसे फिलहाल कोई चुनौती भी नहीं है। तेलंगाना में केसीआर परिवारवाद के फेर में फंसकर उलझ गए है। वे मोदी के विरोधी हैं, किन्तु आईएनडीआईए के समर्थक भी नहीं हैं, इसलिए उनका जाना भी लगभग तय लग रहा है। मिजोरम में भी मणिपुर की आग का थोडा-बहुत असर तो है। मिजोरम ने मणिपुर में हुई हिंसा के बाद शरणार्थियों का बोझ उठाया है। जाहिर तौर पर इसके लिए भाजपा को ही जिम्मेदार माना जा सकता है।
इन सभी राज्यों में लडाई के लिए भले ही चेहरे सामने नहीं है, लेकिन लडाई होगी ‘फेस टू फेस’ ही, क्योंकि भाजपा के पास मुद्दे भी नहीं है और चेहरे भी, जबकि कांग्रेस के पास मुद्दे भी हैं और चेहरे भी। अर्थात सीधी लडाई में जो प्रत्याशी सबल होंगे वे जीतेंगे, भले ही वे किसी भी दल के हों। पार्टी का नाम और चुनाव चिन्ह उनके लिए ज्यादा निर्णायक नहीं होगा, सबसे ज्यादा परेशानी उन प्रत्याशियों को होने वाली है जो आम आदमी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी की नाव पर सवार हो गए हैं अपने मूल दलों को छोडकर। इन प्रत्याशियों को मतदाता आसानी से स्वीकार कर पाएगा, इसमें कम से कम मुझे तो संदेह है। यानि तीसरी ताकत की कोई बडी भूमिका इन चुनावों में नहीं है। आम आदमी पार्टी की पूछ पर केन्द्र सरकार का पैर पहले से रखा हुआ है। बसपा ने भी किसी भी गठबंधन से अपने आपको दूर रखकर एक गलती कर दी है। समाजवादी पार्टी इन राज्यों में पहले से अपनी साख खो चुकी है, क्योंकि हर बार उसके विधायक बिक जाते हैं।