– राकेश अचल
मध्य प्रदेश विधानसभा 2018 के चुनाव में भाजपा ने ‘महाराज बनाम शिवराज’ का नारा देकर चुनावी जंग लडी थी, अब महाराज यानि केन्द्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया भाजपा में हैं तो भाजपा ‘महाराज बनाम कमलनाथ’ का नारा उछालने में क्यों संकोच कर रही है? क्या तीन साल की अग्निपरीक्षा के बावजूद भाजपा ने महाराज को पार्टी के मापदण्डों पर खरा नहीं पाया है? ये सवाल मप्र में गर्म होता दिखाई दे रहा है। मजे की बात है कि कांग्रेस भी विधानसभा के 2023 के चुनाव में महाराज को नहीं, शिवराज को ही अपना प्रतिद्वंदी मान रही है। मप्र विधानसभा कार्यसमिति की ग्वालियर में हो रही बैठक में भी इस सवाल पर किसी ने कोई चिंतन करने की जरूरत नहीं समझी। कार्यसमिति की बैठक में ‘महाराज’ चर्चा के केन्द्र में हैं ही नहीं। भाजपा पिछला चुनाव हारने के बाद भी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को ही दांव पार लगाना चाहती है। पार्टी की सारी चुनावी रणनीति शिवराज सिंह चौहान के इर्द-गिर्द ही घूम रही है। पार्टी ने महाराज को चुनाव अभियान समिति की भी कमान नहीं सौंपी। ये जिम्मेदारी भी शिवराज के परम और पुराने सहयोगी केन्द्रीय मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर को दी गई है।
इस बार विधानसभा चुनाव की कमान केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने खुद सम्हाल रखी है। शाह नहीं चाहते की इस बार कोई गलती हो और पार्टी को सत्ता गंवाना पडे। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा आधा दर्जन सीटें कम होने के कारण सत्ता सिंघासन हासिल करने में नाकाम रही थी। भाजपा को दोबारा सत्ता में आने के लिए हालांकि पांच साल इंतजार करना चाहिए था किन्तु भाजपा ने 18 महीने में ही कांग्रेस को विभाजित कर ज्योतिरादित्य सिंधिया को बागी बनाकर प्रदेश की सत्ता हथिया ली थी। भारतीय जनता पार्टी ने महाराज यानि ज्योतिरादित्य सिंधिया को अनुबंध के मुताबिक पहले राज्यसभा की सदस्य्ता दी, फिर केन्द्र में मंत्री बनाया और बाद में उनके साथ आए तमाम विधायकों को उपचुनाव के बाद मंत्री पद भी दिए, लेकिन प्रदेश का नेतृत्व देने से हमेशा बचती रही, सिंधिया के साथ यही दगा कांग्रेस ने भी किया था। ‘महाराज बनाम शिवराज’ के नारे पर पिछले विधानसभा चुनाव में विजयी हुई कांग्रेस ने एन मौके पर कमलनाथ को मुख्यमंत्री बना दिया था। कांग्रेस से अपमानित महाराज बगावत कर भाजपा में आ गए थे, किन्तु अब भाजपा में अपमानित होने के बाद वे कहीं नहीं जा सकते। अब सिंधिया ‘जेहि विधि राखें मोदी, तेहि विधि रहिये’ की स्थिति में है। मोदी जी राजस्थान में सिंधिया की सगी बुआ श्रीमती बसुंधरा राजे को किनारे कर चुके हैं।
दरअसल भाजपा चाहकर भी सिंधिया को शिवराज सिंह चौहान का विकल्प नहीं बना सकती। क्योंकि ऐसा करने से भाजपा पर परिवारवाद के साथ ही समांतवाद का आरोप भी लगाया जा सकता है। सिंधिया भी भाजपा में आने से पहले भाजपा के लिए महाराष्ट्र के अजित पंवार की तरह ही भ्रष्ट और बडे भूमाफिया थे। भाजपा में आने से पहले भाजपा के दो बडे नेता प्रभात झा और जयभान सिंह पवैया को सिंधिया की बखिया उधेडने के अभियान में लगाया गया था। अब सिंधिया भाजपा की गंगोत्री में डुबकी लगा कर पाक-साफ हो चुके हैं। इसलिए झा और पवैया तक को सिंधिया के यहां नमक खाने जाना पडा। सिंधिया पार्टी में प्रदेश का नेतृत्व करने लायक अभी भी पात्र नहीं बन पाए हैं। भाजपा सूत्रों की मानें तो विधानसभा चुनाव के बाद यदि परिणाम भाजपा के पक्ष में आते हैं तो शिवराज सिंह चौहान के उत्तराधिकारी के रूप में केन्द्रीय मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर को ही प्राथमिकता दी जाएगी, ज्योतिरादित्य सिंधिया को नहीं। सिंधिया का आदित्य भाजपा के लिए केवल शोपीस की तरह ही इस्तेमाल किया जाएगा। भाजपा के लिए सिंधिया एक स्टार प्रचारक हो सकते हैं, लेकिन मुख्यमंत्री पद का चेहरा नहीं। पार्टी ने हाल ही में संसद के पावस सत्र में भी सिंधिया का इस्तेमाल कांग्रेस के खिलाफ जमकर किया। उन्हें अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौरान भाजपा के दूसरे नेताओं के मुकाबले कहीं ज्यादा समय भी दिया गया, लेकिन इससे उनकी हैसियत या वजन में कोई तबदीली नहीं आई और न निकट भविष्य में इसकी कोई संभावना है।
भाजपा में शामिल होने के तीन साल में सिंधिया ने अनेक अग्नि परीक्षाएं दी हैं। अपने आपको भाजपा का खांटी कार्यकर्ता साबित करने के लिए वे जितना कुछ कर सकते थे, कर चुके हैं। लेकिन अभी भी उन्हें पार्टी का प्रामाणिक कार्यकर्ता का प्रमाणपत्र शायद नहीं मिल पाया है। मुमकिन है कि उन्हें आगामी आम चुनाव तक इसी तरह ‘कटी पतंग’ की तरह ही अपने आपको राजनितिक परिदृश्य में जीवित रखना पडे। सिंधिया की मजबूरी ये है कि वे राजनीति में अपने बेटे महाआर्यमन सिंधिया को स्थापित करने से पहले अब बगावती तेवर इस्तेमाल नहीं कर सकते। अब वे भाजपा को सडक पर उतरने की धमकी नहीं दे सकते। उनकी हैसियत दक्षिण अफ्रिका से लाए गए उन चीतों की तरह है जो राजकीय अतिथि तो हैं, किन्तु उनके गले में एक रेडियम कॉलर है और वे अपने बाडे से बाहर नहीं जा सकते। भाजपा में कांग्रेस जैसी हैसियत पाने के लिए सिंधिया को 2013 के विधानसभा चुनाव में 2018 के विधानसभा चुनावों के मुकाबले ज्यादा मेहनत करना होगी। 2018 में सिंधिया भाजपा को हारने के लिए पसीना बहा चुके हैं, लेकिन इस बार उन्हें भाजपा को जिताने के लिए पसीना बहना पडेगा। विधानसभा के चुनाव परिणाम शिवराज सिंह चौहान के साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया का राजनीतिक भविष्य तय करेंगे। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और स्व. माधवराव सिंधिया के बाल सखा बालेन्दु शुक्ल का कलन है कि इस समय भाजपा में शिवराज सिंह चौहान और ज्योतिरादित्य सिंधिया की स्थिति एक जैसी है। दोनों अपने सम्मान के लिए संघर्षरत हैं। इसीलिए अब शिवराज को महाराज में और महाराज को शिवराज में एकाकार होना पड रहा है।
आपको याद दिला दूं कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने राजनीति के जिस आंगन में अपनी आंखें खोली थीं वो कांग्रेस का था। वे कांग्रेस में 18 साल रहे। कांग्रेस ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को वो सब दिया जो आज भाजपा में उन्हें हासिल नहीं है, लेकिन 2018 के विधानसभा चुनाव के समय कमलनाथ और दिग्विजय सिंह से उनकी पटरी नहीं बैठी और वे अपने दल-बल के साथ कांग्रेस छोडकर भाजपा में शामिल हो गए थ। वे राजस्थान के सचिन पायलट की तरह धैर्य नहीं दिखा सके। मुमकिन है कि तत्कालीन समय में सिंधिया के सामने कांग्रेस छोडने के अलावा कोई और विकल्प न रहा हो। अब सिंधिया भाजपा के जाल में है। वे तब तक भाजपा में आंखें नहीं तरेर सकते जब तक कि उनका बेटा राजनीति में पदार्पण कर संसद की यात्रा शुरू नहीं कर लेता।