शिक्षा या व्यापार

– अशोक सोनी ‘निडर’


शिक्षक माली शिशु पुष्प है, है समाज उद्यान।
शिक्षा परम सुगंध है, सुरभित सकल जहान।।

लेकिन आज इसके ठीक विपरीत हो रहा है। देश का दुर्भाग्य है कि शिक्षा विभाग में पूंजीपतियों ने कब्जा जमा लिया है। जिसमें कोई अध्यापक या अध्यापिका चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते हैं। वर्तमान समय में देखा जाए तो शिक्षा एक व्यवसाय बन चुका है। हर वर्ष शिक्षा के व्यवसायी अपनी नई किताबें लगाते हैं। किताब के साथ ही कापी टाई बेल्ट ड्रेस जूता मोजा आदि सभी कुछ विद्यालय में ही बेचते हैं, सिवाय शिक्षा के। सब कुछ मिला करके लगभग 8-10 हजार रुपए का बिल बना देते हैं। जो जितना बडा विद्यालय है उतना ही बडी रकम वसूलते हैं।
शिक्षा के इस प्रकार व्यवसायीकरण के कारण सामान्य आदमी की एक बहुत बडी कमाई बच्चों की पढाई में खर्च हो जाती है। यदि किसी के तीन-चार बच्चे हो तो माता-पिता कभी बच्चों के पढाई के पैसे से नहीं उबर पाते हैं कि और न ही कुछ कर सकते हैं। यदि ऐसा ही चलता रहा तो सामान्य व्यक्ति शिक्षा के नाम से ही डरने लगेगा। सरकार भी शिक्षा के व्यवसायियों का कुछ नहीं कर पाती। इसका एक बडा कारण यह भी है कि अधिकांश मेडिकल, इंजीनियरिंग आदि कॉलेज उन नेताओं के हैं जिन्होंने अपनी काली कमाई विद्यालय में लगा दी है। यही कारण है कि प्राइवेट विद्यालयों के ऊपर कभी कार्रवाई नहीं होती है। भारत में सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की हालत बहुत ही जर्जर है। अधिकांश विद्यालयों में बच्चे पढने कम खाना खाने ज्यादा जाते हैं और खाने के ही लालच में विद्यालय भी आते हैं। देश को स्वतंत्र हुए 77 वर्ष के बाद भी हम अपने देश के लोगो को दो वक्त की रोटी का भी जुगाड नहीं करा सके। आज भी हमें जनता को मुफ्त राशन बांटना पड रहा है और स्कूलों में मिड डे मील के नाम पर बच्चों को भोजन देना पड रहा। प्राइवेट विद्यालय में जहां इतनी फीस है वहीं सरकारी विद्यालयों की हालत इससे उलट है। एक तरफ खाई है तो दूसरी तरफ कुआं है। आदमी आखिर जाए तो कहां जाए। सरकारी विद्यालयों के शिक्षक योग्य होते हुए भी बच्चों को पढाना नहीं चाहते। जो थोडा बहुत पढाते भी हैं उसमें भी सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों को दुनियाभर के रजिस्टर बनाने में लगा दिया जाता है।
प्राइवेट विद्यालयों में शिक्षकों की हालत तो और भी नाजुक है। इतनी महंगाई में भी चार-पांच हजार में वे पढाने को मजबूर हैं। एक मजदूर की मजदूरी 500 रुपए है, तो एक शिक्षक की मजदूरी दिनभर की 100 रुपए है। ऐसी परिस्थिति में एक शिक्षक अच्छी शिक्षा कैसे दे सकता है। यह हमारे चिंतन करने का विषय है। बच्चा कुछ जानता हो या न जानता हो, कभी फेल नहीं किया जा सकता। ज्यादा से ज्यादा नंबर देकर पालकों से मोटी फीस जो बसूलनी है। उस पर भी कितने भी अच्छे प्रायवेट स्कूल में पढाने के बावजूद ट्यूशन भी आवश्यक रूप से करानी ही करानी है।
प्राइवेट विद्यालय वाले जो नंबर बांटने की दुकान खोले बैठे हुए हैं, इसी का परिणाम है कि शिक्षित बेरोजगारों की एक बहुत बडी भीड देश में तैयार हो गई है। यह नंबर इसलिए बांटते हैं कि उन्हें यह दिखाना होता है कि हमारे स्कूल के बच्चे सभी शत-प्रतिशत श्रेष्ठ नंबरों से पास हुए। कई विद्यालयों में तो विद्यालय प्रबंधन खुद ठेका लेकर बच्चों को पास कराता है। ऐसी स्थिति में शिक्षा में सुधार कैसे किया जा सकता है? इस स्थिति में केवल शिक्षित बेरोजगारों की ही जनसंख्या बढ रही है। चार अक्षर पढने के बाद कोई वह छोटा-मोटा काम भी तो नहीं कर सकते हैं। यही कारण है कि यदि कोई एक सरकारी पद निकलता है तो उसके दावेदार एक हजार बच्चे होते हैं। अब होना तो एक का ही है, फिर 999 बच्चे क्या करेंगे? इसलिए आवश्यकता है कि शिक्षा के व्यवसायीकरण को रोका जाए। इसके लिए अभिभावकों को चाहिए कि वह अपने मन से अंग्रेजी भाषा का भूत उतार फेंके।
इंग्लिश मीडियम के नाम पर जो इस देश में इतनी लूट मची हुई है उसको समझने का प्रयास करें। कोई भी बच्चा अपनी भाषा में ही सही प्रकार से शिक्षा प्राप्त कर सकता है। अंग्रेज तो चले गए लेकिन अंग्रेजीयत का नशा भारतीयों में अभी 77 साल बाद भी नहीं उतरा है बल्कि और चढकर के बोल रहा है। हिन्दी मीडियम के मात्र सरकारी प्राइमरी स्कूल ही बचे हुए हैं। नहीं तो सभी प्राइवेट स्कूल इंग्लिश मीडियम के नाम पर कब्जा कर चुके हैं। कुछ दशक पूर्व तक सरस्वती शिशु मन्दिर, सरस्वती ज्ञान मन्दिर एवं अन्य प्रकार के बहुत से विद्यालय हिन्दी मीडियम के थे। लेकिन देखते ही देखते लोगों के सिर पर अंग्रेजी भाषा का ऐसा नशा सवार हुआ कि सारे के सारे हिन्दी मीडियम के विद्यालय धराशाई हो गए। अब केवल मात्र उंगलियों पर गिने हुए प्राइवेट हिन्दी मीडियम के विद्यालय मिलते हैं। इस देश का दुर्भाग्य है कि देश भले ही आज शारीरिक रूप से आजाद हो लेकिन मानसिक रूप से आज भी अंग्रेजों का गुलाम है। आखिर हम किस दृष्टि से स्वतंत्र हुए हैं, इस पर चिंतन और मनन करने की आवश्यकता है।

लेखक- राष्ट्रीय स्वतंत्रता सेनानी परिवार उप्र संगठन के राष्ट्रीय प्रवक्ता एवं स्वतंत्रता सेनानी/ उत्तराधिकारी संगठन मप्र के प्रदेश सचवि हैं।