आइये अब सडकों पर मुकाबला करें

– राकेश अचल

संसद का सत्रावसान हो चुका है, संसद में जिन लोगों ने कथित रूप से अमर्यादित आचरण किया उन्हें एक-एक कर निलंबित कर दिया गया। खुशनसीब थे राहुल गांधी जो लोकसभा की सदस्यता बहाली के बाद अमर्यादित आचरण की वजह से निलंबित नहीं किए गए। सदन से निलंबित सांसद अब सडक पर अपनी बात कह सकते है। सडकों पर निलंबन का खतरा नहीं होता। सडक की मर्यादा संसद की मर्यादा से एकदम अलग होती है। सडक पर न कोई बिरला होता है और न कोई धनखड, जो ये तय कर सके कि मर्यादा और अमर्यादा क्या है?
ये पहला मौका था जब सांसदों को चुन -चुनकर निलंबित किया गया। निलंबन से पहले बर्खास्तगी शुरू हुई थी। राहुल गांधी पहला शिकार बने थे, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के निर्णय ने उनकी सदस्यता को बहाल करा दिया। उन्हीं की तरह भाजपा के एक दूसरे सांसद को सजा हुई थी, किन्तु उनकी बर्खास्तगी से पहले ही अधीनस्थ न्यायालय ने उन्हें राहत दे दी, लेकिन अभागे थे आम आदमी पार्टी के संजय सिंह और राघव चड्ढा, जिन्हें कोई राहत कहीं से नहीं मिली। संसद का सत्रावसान होते-होते कांग्रेस के अधीर रंजन को भी निलंबित कर दिया गया। सांसदों का निलंबन सदन के सभापतियों का विश्वसाधिकार नहीं विवेकाधिकार है। यदि पक्षकार को सभापति के विवेक पर कोई शक-सुब्हा है तो ऐसे निर्णयों को चुनौती भी दी जा सकती है। इसके लिए अलग से मंच हैं।
दुर्भाग्यपूर्ण ये है कि निलंबन के सभी मामलों में सदाशयता बरती ही नहीं गई। सस्दयों को अमर्यादित आचारण के कारण निलंबित करना ही एकमात्र विकल्प नहीं है। बिगडैल सदस्यों के लिए ही मार्शल का इंतजाम किया गया है, लेकिन वे अब कहीं दिखाई नहीं देते। अब तो सभापति अपने सदन में अपनी बात रखने की कोशिश करने वालों को मौका ही नहीं देते। मर्यादा की मख्खी उडी नहीं कि निलंबन का आदेश सुनाया गया। पूरे देश में सदन की सीधी कार्रवाई के दौरान कथित रूप से मर्यादा भंग करने वाले सदस्यों का आचरण भी देखा और माननीय सभापतियों का भी। ये पहला मौका था जब एक परिवार को गरियाने की पूरी छूट सदन में दी गई और दूसरी तरफ संघ परिवार का जिक्र तक करने पर सभापति चीखने लगे।
मुझे ये कहने में कोई संकोच नहीं है कि अब सियासत की तरह लोकसभा और राज्यसभा की गरिमा में भी तेजी से गिरावट आ रही है। सदन की गरिमा की बात करना या उसमें आ रही गिरावट का जिक्र करना सदन का विशेषाधिकार हनन नहीं हो सकता। यदि ऐसा माना जाता है तो फिर लोकतंत्र की बात करना ही बेमानी ही। सदन के सभापति भले ही किसी राजनीतिक दल से चुन कर सदन में आते हों, किन्तु वे जब सभापति चुन लिए जाते हैं तब वे दलगत राजनीति से ऊपर उठ जाते हैं। सभापति सदन के हरेक सदस्य का संरक्षक होता है। यदि इसमें रंचमात्र भी पक्षपात किया जाता है तो समस्या पैदा होती है। आज दुर्भाग्य से ये समस्या पैदा हो रही है।
बहरहाल बात संसद के सत्रावसान के बाद सडक पर संग्राम की हो रही है। अब जो मुद्दे सदन में जेरे बहस नहीं आ सके, उनको लेकर सडक पर विमर्श किया जा सकता है। सडक पर विमर्श से रोकने वाला कोई नहीं है। जिसके दिल में जो है सो बोले और खुलकर बोले। अब सभापति की आसंदी पर जनता बैठी है। जनता किसी भी अमर्यादित वक्ता को निलंबित नहीं करती। सीधे रिजेक्ट या सिलेक्ट करती है। जनता को सिलेक्शन का मौका शीघ्र मिलने वाला है। जनता जिसे चाहे चुने, जिसे चाहे न चुने। कहीं कोई जबरदस्ती नहीं। उसे पप्पू चाहिए या गप्पू, ये जनता खुद तय करे। उसे इशारा करके कांग्रेस का डिब्बा गोल करने का आव्हान करने वाला नेता चाहिए या सडक पर चलकर जनता के बीच रहने वाला नेता?
जो संसद सदन में बोलने से हिचकते हैं, संकोच करते हैं वे सडक पर बोलने के लिए आजाद हैं। जरूरी नहीं कि वे अंग्रेजी या हिन्दी में ही बोलें। वे अपनी-अपनी मातृभाषा में बोलें। अपने लोगों के बीच में बोलें, जी भरकर बोलें। उनके बोलने के लिए कोई समय निर्धारित नहीं किया जाएगा। सदन में तो पार्टी की हैसियत के हिसाब से बोलने का मौका मिलता है, किन्तु सडक पर ऐसा नहीं है। यहां सब बराबर हैं। अब भला दो-तीन मिनिट में कोई संसद सदन में अपनी बात कैसे रख सकता है? सदन में तो सभापति ही राष्ट्रपति होता है। वो चाहे तो आपको आपकी मातृभाषा में बोलने का आग्रह भी कर सकता है। जैसा कि सीता जी के साथ हुआ। उनसे चेयर ने अपनी मातृभाषा में बोलने का अनुरोध किया था।
सदन से निलंबित सदस्यों के प्रति मेरी सहानुभूति है। इस सहानुभूति के पीछे कोई राजनीतिक कारण नहीं है। इस सहानुभूति की वजह उनके बोलने के अधिकार में कर्तव्योंत है। निलंबित संसद अपने-अपने क्षेत्र की जनता की आवाज माने जाते हैं। जो चुने नहीं जाते वे मनोनीत संसद भी जनता की बात रखने के लिए सदन में भेजे जाते हैं। उन्हें बोलने का अवसर मिलना चाहिए। यदि सचमुच वे अमर्यादित हो रहे हैं तो उन्हें समझा-बुझाकर, डांटकर, बातचीत कर हद में रहने के लिए कहा जा सकता है। लेकिन इतना कठोर नहीं हुआ जा सकता कि उन्हें पूरे सत्र के लिए ही सदन से बाहर किया जाए। निलंबन एक कठोर सजा है।
आने वाले दिनों में हम राष्ट्रवाद के एक और उन्माद से गुजरने वाले है। घर-घर मोदी के साथ ही घर-घर तिरंगा लगाने का उन्माद। ये उन्माद भी राजनीतिक ही है। वरना कौन तिरंगा लगाए या न लगाए, इससे सरकार या पार्टी का कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए। हम स्वतंत्रता दिवस की अग्रिम शुभकामनाएं देते हुए उम्मीद करते हैं कि सरकार अब मणिपुर और हरियाणा में अमन बहाली के लिए और ज्यादा गंभीर प्रयास करेगी। इन प्रयासों के बारे में देश को बताया जाए या नहीं ये सरकार ही जाने। सरकार सुप्रीम होती है। उसे बताने के लिए विवश नहीं किया जा सकता।और बहुमत की सरकार को तो बिल्कुल ही विवश नहीं किया जा सकता।
स्वतंत्रता दिवस से कांग्रेस एक बार फिर जनता के बीच जाने वाली है। कांग्रेस भाजपा के लिए भूत और अछूत हो सकती है, किन्तु जनता के लिए आज भी कांग्रेस के लिए स्थान है। गुंजाइश है और देश में जब भी (जब भी से मतलब जब भी से ही है) बदलाव होगा तो कमान कांग्रेस के हाथ में ही होगी। क्योंकि कांग्रेस ही है जो भाजपा का मुकाबला कर सकती है। भाजपा संसद में तो अपनी मर्जी के नारे लगवा सकती है, लेकिन सडक पर ऐसा मुमकिन नहीं होगा। यहां बाजीगरी से भी शायद इस बार काम न चले, क्योंकि चेहरों पर हवाइयां और हाथों से तोते तेजी से उडते दिखाई दे रहे हैं।
मेरा सौभाग्य है कि मैंने देश में जनसंघ और भाजपा के संस्थापकों में से बहुत को देखा है। उन्हें काम करते देखा है। उनमें कांग्रेस के प्रति कट्टरता को देखा है। लेकिन उनमें विनम्रता, सौहार्द और मर्यादा को भी देखा है। जहां जरूरी हुआ है उन्हें कांग्रेस के पक्ष में मैदान से हटते हुए भी देखा है। कांग्रेसियों के यहां जन्मदिन, शादी-ब्याह और होली-दीवाली आते-जाते हुए भी देखा है, किन्तु ये अतीत की बातें हैं। आज के सत्तारूढ दल के नेता अदावत की राजनीति कर रहे हैं, जिसमें सौहार्द, सामंजस्य और सामाजिकता का कोई स्थान नहीं है। तो आइये अब सडक पर दो-दो हाथ करने की तैयारी कीजिये।