बिना प्रभात के बीता एक साल

प्रथम पुण्यतिथि 25 जुलाई पर विशेष

– राकेश अचल


सबके लिए पूर्व सांसद, पूर्व प्रदेशाध्यक्ष लेकिन मेरे लिए मेरे साथी प्रभात झा के बिना मेरा एक साल कब बीत गया पता ही नहीं चला। प्रभात अचानक, असमय गए। लेकिन उनकी स्मृतियां अभी अनेक वर्षों तक जिंदा रहने वाली हैं। प्रभात के ज्येष्ठ बेटे तुष्मुल का आज जब फोन आया तो अचानक अतीत सामने आ खडा हुआ।
बिहार के दरभंगा जिले के एक अनाम गांव हरिहरपुर के बेटे प्रभात से मेरा परिचय भाजपा के एक जमीनी कार्यकर्ता के रूप में 1980 में हुआ था। इसी साल भाजपा जन्मी थी और महाराज बाडा पर होने वाली छोटी बडी सभाओं के लिए फर्श बिछवाने से लेकर माइक टेस्टिंग का काम प्रभात के जिम्मे था। पार्टी के पहले जिलाध्यक्ष स्वरूप किशोर सिंघल मेरे मित्र थे, वे प्रेस-नोट लेकर प्रभात को मेरे पास भेजा करते थे।
उम्र में मुझसे दो साल बडे प्रभात के लिए पहले मैं भाई साहब था और फिर जब पार्टी ने उन्हें आर्थिक मदद देने की गर्ज से स्वदेश में प्रशिक्षु पत्रकार बनाया तब मैं प्रभात के लिए अचल जी हो गया। प्रभात में सीखने की ललक थी। चुनौती थी एक पत्रकार और एक पार्टी कार्यकर्ता के रूप में अपनी अलग अलग पहचान बनाने की। प्रभात ने दोनों काम पूरी ऊर्जा के साथ किए।
प्रभात एक तरह से भाजपा का जिन्न था, जो एक पल खाली नहीं बैठ सकता था। उसे हर वक्त काम चाहिए था। कभी न थकने वाली चलती फिरती मशीन थे प्रभात मेरी नजर में। उन दिनों प्रभात का हाथ अक्सर तंग रहता था, भाजपा के एक कार्यकर्ता और बाद में पार्षद बने देवेन्द्र शर्मा की तरह प्रभात पार्टी के किसी भी नेता या कार्यकर्ता के घर में बेधडक प्रवेश करने में दक्ष थे। हर परिवार में उनका कोई न कोई रिश्तेदार होता था। दो वक्त का खाना प्रभात के लिए कभी संकट नहीं रहा।
समय ने प्रभात को परिपक्व बनाया। वे एक पत्रकार के रूप में अपनी लक्ष्मण रेखाएं जानते थे। जहां लक्ष्मण रेखा उन्हें सवाल करने से रोकती वे सवाल की पर्ची धीरे से मुझे थमा देते थे। उस समय के भाजपा के दिग्गज नेता कुशाभाऊ ठाकरे से लेकर ग्वालियर के सभी नेता प्रभात की प्रतिभा से चमत्कृत थे। प्रभात को सभी का स्नेह प्राप्त था लेकिन अनुकंपा भाऊ साहब पोतनीस की थी। प्रभात के जितने मित्र बन रहे थे उतने ही विरोधी भी, लेकिन वे बेफिक्र रहते थे। जरूरतमंद की मदद के लिए कोई भी सीमा तोड सकते थे। उन दिनों एक पत्रकार के रूप में नाचीज की पूछ परख खूब थी। प्रभात को ये सब मालूम था। वे अपनी पार्टी के जरूरतमंद के लिए पुलिस या प्रशासन से हर मदद के लिए मुझसे आग्रह करते थे।
एक बार जब मैं उनके प्रिय भाऊ साहब पोतनीस के खिलाफ महापौर का चुनाव लडा तो प्रभात के लिए दुविधा पैदा हो गई, लेकिन प्रभात ने मुझसे कभी कन्नी नहीं काटी। प्रभात को झा साहब बनते देखने वाले चश्मदीदों में से एक मैं भी हूं। मुझे सांसद बनने से पहले के प्रभात के हर सुख दुख का पता है। शादी से लेकर दो बच्चों के पिता बनने तक की तमाम उलझनों को मैंने देखा और सुलझाने की कोशिश की। मैं शायद उन कुछ लोगों में से हूं जो प्रभात को प्रभात से ज्यादा जानते हैं।
हमारी दोस्ती कहिये या भाईचारा प्रभात के राज्यसभा पहुंचने तक अक्षुण्ण रहा, लेकिन जब प्रभात पूर्णकालिक राजनेता बन गए तो मैंने अपने आपको प्रभात से दूर करना शुरू कर दिया। प्रभात को भी इसका अहसास था। हमारी दोस्ती युवावस्था की दोस्ती थी। राजनीति तब हमारे लिए समस्या नहीं थी। लेकिन बाद में न मैं अपने तेवर बदल सका और न प्रभात। बाद में प्रभात का दफ्तर पार्क होटल में मेरे घर के सामने खुला तो ऐसा कोई मौका नहीं गया जब वे मुझसे न मिले हों। बल्कि मेरी वजह से उनके दफ्तर आने वाले नेताओं और अधिकरियों को असुविधा होने लगी, तब प्रभात ने बेमन से अपना ठिकाना बदला।
बहरहाल किस्से बहुत हैं। बडी बात ये है कि तमाम आसहमतियों के हमारी दुआ सलाम अंत तक बनी रही। आपको ये जानकर हैरानी होगी कि जिस प्रभात से मेरी दांत काटी रोटी का रिश्ता था, उस प्रभात के नेता बनने के बाद मैं उनके तमाम आग्रह के बावजूद न उनके दिल्ली आवास पर गया, न ग्वालियर के आवास पर। मैं अपनी उपस्थिति से प्रभात को कभी असहज नहीं करना चाहता था।
आत्मविश्वास से भरे गजब के लिक्खाड, जुनून से भरे पढाकू और सामंतवाद की छाया में पलकर बडे हुए सामंतवाद के खिलाफ लडाकू प्रभात की पहली पुण्यतिथि पर मेरी विनम्र श्रद्धांजलि। प्रभात का ग्वालियर से रिश्ता अटूट रहा, लेकिन चाहकर भी वो ग्वालियर के लिए करना चाहते थे, कर नहीं पाए।