राजतंत्र या तानाशाही

– अशोक सोनी ‘निडर’


क बार पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी द्वारा आपातकाल लगाया गया था, तब भी सत्ता निरंकुश हो गई थी, लग रहा है कि भारत में एक बार फिर से आपातकाल की स्थिति बन रही है, क्योंकि अब सरकार संविधान से नहीं मनमाने तंत्र से चल रही हैं। कुछ समय से जिस तरह बुलडोजर संस्कृति पनप रही है, यही लगता है कि अब अदालतों का कोई सम्मान कोई महत्व नहीं रह गया है, इसलिए इनको समाप्त कर देना चाहिए।
मैं किसी अपराधी की वकालत नहीं कर रहा हूं, अपराधी को दण्ड मिलना ही चाहिए लेकिन कानून के दायरे में, कानून का एक वाक्य है कि चाहे सौ दोषी छूट जाएं पर एक निर्दोष को सजा नहीं दी जानी चाहिए और दोषी या निर्दोष का फैसला अदालतें करती हैं। लेकिन हो उल्टा रहा है, किसी भी आरोपी का आरोप सिद्ध होने से पहले ही उसका आशियाना तोड़ देना, सरकार की नीतियों के विरुद्ध बोलने या लिखने वाले पत्रकारों, कवियों, साहित्यकारों पर कानूनी शिकंजा कस देना ये प्रजातंत्र तो नहीं कहा जा सकता। माना कि किसी एक व्यक्ति ने अपराध किया है तो सजा उसे ही मिलना चाहिए न कि उसके पूरे परिवार को, बुलडोजर से उस का मकान तोड़कर उसके पूरे परिवार को सड़क पर खड़ा कर दिया जाता है ये कहां का न्याय है भाई। अगर कल न्यायालय ऐसे आरोपियों को निर्दोष करार देता है तो उसके नुकसान की भरपाई कौन करेगा।
कुछ मामलों में आरोपियों द्वारा आत्मसमर्पण न करने या जघन्य अपराध साबित होने पर न्यायालय के आदेश पर उसकी संपत्ति को नीलाम करके प्राप्त रकम या तो पीडि़त व्यक्ति को दे दी जाती थी अथवा राजकोष में जमा हो जाती थी। इस बुलडोजर नीति से आरोपी तो बिना अदालत से सजा पाए ही सजा पा जाता है, लेकिन न तो पीडि़त का भला होता है और न शासन का, बल्कि तोड़ फोड़ में खर्चा होता है वो अलग। राजा का कार्य होता है अपने स्व विवेक से, धर्म, जाति, व्यक्ति विशेष से ऊपर उठकर सिर्फ और सिर्फ जनहित में निर्णय लेना। निरंकुश तानाशाही से किलों को तो जीता जा सकता है, लेकिन दिलों को कभी नहीं जीता जा सकता। इसके कई उदाहरण इतिहास में देखे जा सकते हैं, जनता के दिलों को जीतना है तो उसकी भावनाओं का सम्मान करके उसके विचारों में परिवर्तन करके ही उसके दिल पर राज किया जा सकता है।