– राकेश अचल
सुप्रीम कोर्ट के जज न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता ने राहुल गांधी पर जोरदार टिप्पणियां की हैं। वे जोरदार इसलिए हैं क्योंकि न्याय की सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठे अधिकारी ने की हैं, लेकिन सवाल ये है कि क्या देश की अदालत ऐसी तल्ख और हास्यास्पद टिप्पणियां उन लोगों के बारे में भी कर सकती हैं जो संसद में रोज झूठ परोसते हैं और इस देश के नवनिर्माण की नींव रखने वाले जननायकों को खलनायक बताने में रत्तीभर संकोच नहीं करते?
हिन्दी में एक फिल्म आई थी, नाम था कसौटी। इस फिल्म का एक गीत था- हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है। वर्मा मलिक के लिखे इस गीत को राहुल गांधी पर फिल्माया जा सकता है, क्योंकि जब राहुल गांधी बोलते हैं तो वो प्रधानमंत्री को भी चुभता है, भाजपा को भी चुभता है और छोटी से लेकर बडी अदालत भी राहुल को गुनाहगार मानकर या तो सजा सुना देती है या लताड लगा देती है।
अगर मेरी याददाश्त सही है तो राहुल गांधी ने पूरे तथ्यों पर चीनी घुसपैठ की बात कही थी। जो राहुल ने कहा उसे उनसे पहले लद्दाख से भाजपा के ही तब के सांसद ने, सेना ने, भाजपाई सुब्रमण्यम स्वामी ने, अमेरिकी सेटेलाइट ने भी की थी। राहुल के बोल लोकसभा की कार्रवाई में भी दर्ज हैं। नेताओं को कोई बात के लिए यदि अदालतें इसी तरह फटकारने लगें तो फिर कोई नेता न संसद में बोलेगा और न सडक पर। राहुल यदि गलत बयानी के दोषी हैं तो अदालत उन्हें फटकार लगाकर चुप क्यों हो गई। अदालत को राहुल के खिलाफ सजा का ऐलान करना था, ताकि ये फैसला गाल बजाने वाले, झूठ परोसने वाले संवैधानिक पदों पर बैठे तमाम नेताओं पर भी नजीर की तरह आयद किया जा सकता।
शायद राहुल गांधी सही थे, इसीलिए चाहकर भी उनके खिलाफ फैसला नहीं दिया गया, केवल फटकार लगाई गई। आपको बता दें कि देश की विभिन्न अदालतों में तीस से अधिक केस राहुल के खिलाफ किए हुए हैं। सत्तारूढ दल भाजपा की मातृ संस्था राहुल के सत्य परेशान है और उसे संयोग से अदालतों में बैठे संघप्रिय विधिवेत्ताओं का भी समर्थन मिल रहा है, पर सत्य पराजित नहीं होता। अदालती फैसले को ढाल बनाकर राहुल को लोकसभा से निकाल दिया गया, सरकारी आवास छीन लिया गया, लेकिन जनता ने उन्हे समर्थन देकर सब कुछ वापस दिला दिया। ये किसी अदालत की कृपा से नहीं हुआ, जनता की अदालत के फैसले के बाद हुआ।
मैं ये नहीं कहूंगा कि राहुल उस विरासत से आते हैं जो फौलादी इरादों के लिए जानी जाती है। यदि मैं ये कहूंगा तो भक्त मण्डल मुझे भी मिथ्यावादी कहने से नहीं हिचकेगा। मुझे ये भी नहीं लगता कि राहुल गांधी को फटकार लगाकर न्यायमूर्ति भी अपने पूर्वज दीपक मिश्रा, रंजन गोगोई, डीवाई चंद्रचूड की कतार में लग अपने को न्यायिक इतिहास के उन पन्नों में दर्ज कराने को आतुर हैं जो लोकनिंदा से रंगे पडे हैं।
इस फटकार में और प्रधानमंत्री के भाषण में जो साम्य है उससे फटकारने वालों की वैचारिक प्रतिबद्धता आसानी से समझी जा सकती है। सावरकर मामले में भी राहुल गांधी पर कमोवेश इसी तरह की टिप्पणी की गई थीं और पिछले 11 साल में न्यायपालिका में जो नई फसल आई है उसकी मानसिकता एक अलग तरह की है, इसलिए भविष्य में भी राहुल गांधी और उन जैसे तमाम लोग जो सत्ता प्रतिष्ठान के सामने सवालों को लिए खडे होते हैं, ऐसी टिप्पणियां सुनने की आदत डाल लें।
न्यायपालिका आखिर देवता संचालित नहीं करते। न्यायपालिका किसी भी देश में तंत्र का ही अंग होता है। इसलिए उसकी सुचिता, विश्वसनीयता पर सबको गर्व होता है। मुझे भी है, लेकिन कभी कभी मैं भी विचलित होता हूं, आखिर हूँ तो आम आदमी ही, जज तो हूं नही। जज और डॉक्टर में परमात्मा विराजते हैं ये जजों को भी मानना चाहिए। वरना जब राहुल हो या और कोई यदि कुछ बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है।