महाराणा उदयभानु की जयंती पर विशेष

– अशोक सोनी ‘निडर’

धौलपुर महारानी वसुंधरा राजे के ससुर जाट महाराजा उदयभानु सिंह जी राणा की जयंती पर उनको शत-शत नमन्।
इनका जन्म 12 फरवरी 1893 को बमरौलिया क्षत्रिय जाट शासक महाराणा निहाल सिंह के महल में महारानी हरबंस कौर (शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंहजी की पड़पौत्री) की कौख से हुआ था, महाराणा निहाल सिंह महाराजा सिंघनदेव राणा (गोहद रियासत के संस्थापक 1505ई.) के प्रत्यक्ष वंश थे। महाराणा उदयभानु सिंह, महाराणा रामसिंह के छोटे भ्राता थे। 1911 ई. में ज्येष्ठ भ्राता के स्वर्गवास होने पर गद्दी पर बैठे, सन् 1913 ई. में राज्यधिकार प्राप्त हुए। महाराणा उदयभानु सिंह केडिट कोर में भी शिक्षा पाई थी। वह अपनी प्रजा व गरीब जनता के प्रति बड़े ही संवेदनशील रहा करते थे। वह समय-समय पर उनकी सहायता व उनको कार्य प्रदान किया करते थे। व अपना अधिकतम समय जनता को दिया करते थे। महाराणा अखिल भारतीय क्षत्रिय जाट महासभा के संस्थापकों में से एक थे जिसका प्रथम सम्मेलन मेरठ में हुआ था।
बिड़ला मन्दिर की रखी नींव
वर्ष सन् 1938 के चैत्र माह का वह दिन दिल्ली के धर्म प्रेमियों के लिए जैसे एक नव संदेश लेकर आया था। उस दिन दिल्ली में एक अत्यंत भव्य मन्दिर की आधारशिला रखी जानी थी, जिसका नाम लक्ष्मीनारायण मन्दिर रखा गया था। इस मन्दिर का निर्माण भारत के सबसे धनाढ्य व्यक्तियों में से एक राजा बलदेव दास बिड़ला करा रहे थे। मन्दिर की आधारशिला रखने का कार्यक्रम अत्यंत ही भव्य था। इस कार्यक्रम में भाग लेने के लिए देश के कोने-कोने से धर्मपरायण प्रजा और सभी राजे-रजवाड़ों को निमंत्रित किया गया था। मन्दिर प्रांगण में बहुत ही चहल-पहल थी। साधारण प्रजा से लेकर राजे-महाराजे तक इस कार्यक्रम में बड़ी शान के साथ भाग लेने आये थे। महाराष्ट्र, पंजाब, मध्यप्रदेश और राजपूताने से आए राजा-महाराजा अपनी विशेष शाही पोशाकों में सजे-धजे थे।
अति चर्चित लक्ष्मी नारायण मन्दिर की आधारशिला कौन रखेगा, यह अभी निश्चित नहीं हुआ था। वह सौभाग्यशाली व्यक्ति कौन होगा जो मन्दिर की आधारशिला रखेगा, किसी को पता नहीं था। प्रत्येक राजा को आशा थी कि वही वह सौभाग्यशाली व्यक्ति होगा जिसे मन्दिर की आधारशिला रखने के लिए आमंत्रित किया जाएगा। इस कार्यक्रम में धौलपुर नरेश महाराणा उदयभान सिंह अत्यंत सादी पोशाक में उपस्थित हुए थे। क्योंकि वो धार्मिक कार्यों में सदैव सादी पोशाक पसंद किया करते थे। भरतपुर नरेश महाराजा ब्रजेन्द्र सवाई (ब्रजेन्द्र सिंह) किसी कारणवश इस समारोह में भाग लेने के लिए नहीं आ सके थे। समारोह आरंभ हुआ। विख्यात शिक्षाविद् तथा विद्वान पं. मदन मोहन मालवीय खड़े हुए। उन्होंने मन्दिर का शिलान्यास करने वाले योग्य व्यक्ति के गुणों से संबंधित शर्तों को पढऩा आरंभ किया।
पं. मदन मोहन मालवीय ने कहा, ‘भारत के विद्वजनों ने इस मन्दिर की आधारशिला रखने वाले व्यक्ति के लिए कुछ शर्तों को पूरा करने का प्रस्ताव रखा है। जो व्यक्ति इन सभी शर्तों को पूरा करेगा, केवल वही व्यक्ति इस लक्ष्मी नारायण मंदिर की आधारशिला रखने का अधिकारी होगा।’ पं. मदन मोहन मालवीय ने जब मन्दिर की आधारशिला रखने वाले व्यक्ति के लिए शर्तों को पढऩा शुरू किया, तो सभा में सन्नाटा व्याप्त हो गया। मालवीय जी ज्यों-ज्यों उन शर्तों को पढ़ते जा रहे थे, सभा में बैठे राजाओं के चेहरे नीचे की ओर झुकते जा रहे थे। पं. मदन मोहन मालवीय ने जब मन्दिर की आधारशिला रखने वाले व्यक्ति की तमाम विशेषताओं का उल्लेख कर दिया, तो उस समय सभागार में जैसे पैना सन्नाटा छा गया। लगता था जैसे वहां बैठे सब व्यक्ति शांत होते गए।
पं. मदन मोहन मालवीय द्वारा मन्दिर की आधारशिला रखने वाले व्यक्ति के लिए जिन गुणों और विशेषताओं का उल्लेख किया था, वे इस प्रकार थीं- ‘पवित्र लक्ष्मी नारायण मन्दिर की आधारशिला रखने वाला व्यक्ति उच्च कुलीन होना चाहिए, वह व्यक्ति उच्च आदर्शों वाला हो, वह शराब और मांस का भक्षण न करता हो। उस व्यक्ति ने एक से अधिक विवाह न किए हों। उसके वंश में कभी किसी ने मुगलों को अपनी बेटी न दी हो तथा जिसके दरबार में वैश्या के नाच-गाने न होते हों।’ पं. मदन मोहन मालवीय ने जिन उपरोक्त गुणों की व्याख्या की थी, इन गुणों का किसी एक व्यक्ति में मिलना संभव न लगता था। कारण कि तत्कालीन लगभग सभी राजे-महाराजे शराब और मांस का उपभोग करते थे। वे ऐश्वर्य भोग हेतु कई-कई विवाह तो रचते ही थे, साथ ही अनेकों रखैलों को भी अपनी उप पत्नियों के रूप में अपने महल में रखते थे। वे आमोद-प्रमोद हेतु अपने दरबार में वैश्याओं का नाच कराना गौरव समझते थे। सभागार में उस समय ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी, जैसी राजा जनक के दरबार में धनुष यज्ञ के समय हो गई थी। कोई भी राजा स्वयं को आधारशिला रखने का अधिकारी कहने का साहस नहीं कर पा रहा था।
पं. मदन मोहन मालवीय को मन्दिर की आधारशिला रखने के लिए उपयुक्त व्यक्ति चुनने का अधिकार दिया गया। उन्होंने सभागार में खड़े होकर घोषणा की, ‘मेरी दृष्टि में यहां उपस्थित सभी जनों में इस प्रस्ताव की कसौटी पर केवल धौलपुर नरेश महाराणा उदयभान सिंह जी ही खरे उतरे हैं। अत: उनके कर कमलों के द्वारा ही मन्दिर की आधारशिला रखी जाएगी।’ पं. मदन मोहन मालवीय की इस घोषणा को सुनकर जाटों में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। मुजफ्फरनगर जिले के सौरम गांव के प्रसिद्ध मल्ल चौ. हरज्ञान सिंह ने सभा में खड़े होकर कहा, ‘पंडित मदन मोहन मालवीय जी के इस निर्णय ने समस्त जाटों का मस्तक भारतवर्ष में ऊंचा कर दिया है।’ यह कहते हुए हरज्ञान सिंह ने अपनी दो धड़ी भारी गदा को वहां पड़े एक भारी पत्थर पर इतने जोर से मारा कि पत्थर के टुकड़े-टुकड़े हो गया।
धौलपुर नरेश महाराणा उदयभान सिंह ने अपने कर कमलों के द्वारा लक्ष्मी नारायण मन्दिर, जिसे आज बिड़ला मन्दिर के नाम से जाना जाता है, का शिलान्यास किया और राष्ट्रीय स्तर पर जाटों का गौरव बढ़ाया। इस मन्दिर में स्थित एक शिला स्तम्भ पर अंकित यह लेख लिखा है- ‘श्री महामना पं. मदन मोहन मालवीय जी की प्रेरणा से ‘श्री लक्ष्मी नारायण मन्दिर’ की आधारशिला श्रीमान् महाराणा उदयभान सिंह धौलपुर नरेश के कर कमलों द्वारा चैत्र कृष्ण पक्ष अमावस्या, रविवार विक्रमी संवत् 1989 (26 मार्च सन 1933) में स्थापित हुई’। बिड़ला मन्दिर के इसी स्तम्भ के दूसरी ओर संगमरमर के पत्थर पर पं. मदन मोहन मालवीय की प्रतिमा के बांई ओर धौलपुर नरेश उदयभान सिंह की मन्दिर का शिलान्यास करती हुई प्रतिमा है।

– लेखक पत्रकार एवं स्वतंत्रता सेनानी/उत्तराधिकारी संगठन मप्र के प्रदेश सचिव हैं।