मत भूलिए नाग पंचमी भी मनाता है देश

– राकेश अचल


जब हम सब बच्चे थे तब नाग पंचमी को धूम अलग होती थी। अब जब हम चौथेपन में आ गए हैं तो नाग पंचमी कब आती है और कब चलीजाती है इसका पता ही नहीं चलता। इसकी वजह नाग नहीं बल्कि हम हैं। नाग तो आज भी जहां-तहां मिल सकते हैं, लेकिन सरकार ने ही नाग पूजा को प्रतिबंधित कर दिया है। नागों को पकडने वाला एक पूरा समाज अब विलुप्त हो गया है। नागों से खेलने-खाने वाले इस समुदाय का अब कोई आता-पता नहीं है। आज भी नाग पंचमी थी लेकिन हमें दूर-दूर तक बीन की आवाज नहीं सुनाई दी, जो नाग पंचमी का सिग्नेचर मानी जाती थी। यानि हम लगातार कुछ न कुछ खोते ही जा रहे हैं।
आप सोच रहे होंगे कि आज देश में जब वक्फ विधेयक, विनेश फोगाट, नीरज चौपडा और बांग्लादेश में हिन्दुओं पर उत्पीडन की बात हो रही है तब मैं ये नाग-पुराण लेकर कहां बैठ गया? आपका सवाल जायज है। नाजायज तो वे सवाल हैं जो आज-कल विपक्ष की और से संसद में किए जाते हैं। नाजायज शायद वे सवाल हैं जो राज्यसभा में सभापति जयदीप धनकड को रुला देते हैं। लोकसभा में ओम बिरला जी को विचलित कर देते हैं। हमें न नाग की बात करना चाहिए और न नागिन की। हमें न सपेरों की बात करना चाहिए और न उनकी बीन की। उस बीन की जिसे सुनकर मेरा, तेरा, हम सबका तन और मन डोलने लगता था।
हमारी दादी कहती थीं कि पूरी धरती नागों से भरी है। वे यदि सबके सब जमीन के बाहर आ जाएं तो मनुष्य प्रजाति का जीना दूभर हो जाए। वे कहती थीं कि नाग हमारे देवता हैं, इसलिए उन्हें पूजना ही चाहिए। हम हर उस व्यक्ति की, शक्ति की पूजा करते हैं जिनसे हमें खतरा होता है या जो हमारे ऊपर कृपा बरसाती है। हमें जब नाग नहीं मिलते तो हम दीमकों के घर को नागों का घर समझकर पूज लेते हैं, इन्हें बामी कहा जाता है। धारणा है कि नाग इन्हीं के भीतर बिल बनाकर रहते हैं।
सावन का महीना हो और पवन शोर करती हो तभी शुक्ल पक्ष की पंचमी को नाग पूजा की जाती है। नागों में भी मनुष्यों की तरह जातियां-प्रजातियां होती हैं। हमें बचपन में बतया गया था कि हम आज के दिन उन 12 नागों की पूजा करते हैं जो भगवान भोलेनाथ को प्रिय थे। इनके नाम आप शायद न जानते हों इसलिए बताए देता हूं कि ये-अनंत, वासुकि, शेष, पद्मनाभ, कम्बल, षड्गपाल, धृटराष्ट्र, तक्षक और कालिया, तक्षक, शंख और कुलिक प्रमुख हैं। ये नाग देवता हैं। इनमें शेषनाग सबसे विशाल हैं जो भगवान विष्णु की सेवा करते हैं। मुझे हैरानी है कि इनमें ऐनकोंडा का नाम कहीं नहीं है। मुमकिन है कि उस समय ऐनकोंडा को किसी और नाम से जाना जाता हो। मैंने अग्निपुराण नहीं पढा, लेकिन कहते हैं कि इसमें नागों की 80 प्रजातियों का जिक्र है।
नाग पंचमी पर हमें जितने नाग, सपेरे और उनकी बीन याद आती हैं उतनी ही याद आती है चंदन चाचा के बाडे की। क्योंकि हमारे पाठ्यक्रम में तब एक कविता थी-
सूरज के आते भोर हुआ
लाठी लेझिम का शोर हुआ
यह नागपंचमी झम्मक-झम
यह ढोल-ढमाका ढम्मक-ढम
मल्लों की जब टोली निकली
यह चर्चा फैली गली-गली
दंगल हो रहा अखाडे में
चंदन चाचा के बाडे में।।
अब मुश्किल ये है कि न चंदन चाचा का बाडा बचा और ढोल-धमाका। न मल्लों की टोलियां बचीं और न अखाडे। अब सबको सियासत ने लील लिया है। अब संघ की लाठियों और लेजमें का शोर है। मल्लों की जगह बोट लूटने वालों की टोलियां हैं और गली-गली में नेताओं के अखाडों की चर्चा है। बाल मन इस सबसे डरता है। हमारे पाठ्यक्रमों में चंदन चाचाओं की जगह गोडसे स्थापित किए जा रहे हैं। मेरा मन भटक रहा है, इसलिए मैं दोबारा से नागों यानि सांपों पर आता हूं।
कहते हैं कि सांप के पैर नहीं होते, इसीलिए ये अफवाहों से भी तेज दौड लगा लेता हैं। सांप कभी सीधा नहीं चलता। सांप अपलक होता है, यानि इसकी आंखें हमारी तरह झपकती नहीं हैं। इसके चूंकि पलकें होती ही नहीं, इसलिए ये किसी के लिए पलक-पांवडे नहीं बिछाता। सांप की अनेक विशेषताएं हैं। ये विषैले भी होते हैं और विषहीन ही, लेकिन ज्यादतर सांप अपने विष के कारण ही मारे जाते हैं। दुनिया बडी है इसलिए सांपों का कुनवा भी बडा है, दुनिया में ढाई-तीन हजार तरह के सांप पाए जाते हैं। एक अंगुल से लेकर 10 मीटर तक लंबा हो सकता है। भारत में 69 तरह के जहरीले सांपों के घर है। इसमें से आधे जमीन पर रहते हैं और बांकी के पानी में। सांप मांसाहारी हैं, इसलिए आप उसे मुसलमान मत मान लेना। सांप बेचारा हिन्दू है। हिन्दू देवी-देवताओं की सेवा करता है। भगवान शिव के गले में पडा रहता है। विष्णु का बिस्तर बन जाता है।
कालांतर में जब सब कुछ बदला तो सांपों ने भी कुछ बदलाव स्वीकार किया। जब जंगल की जमीन पर कंक्रीट के जंगल उगने लगे, सांपों के बिल नष्ट किए जाने लगे तो सांपों ने अपना ठिकाना बदला। सांप बिलों से निकलकर आस्तीनों में रने लगे। उनका रंग-रूप बदल गय। इन्हें पहचानना मुश्किल हो गया कि वे सांप हैं भी या नहीं? ‘आस्तीन का सांप’ एक गाली बन गया। कहावत में ढल गया। लेकिन हमने सांपों को पूजना बंद नहीं किया। अब पिटारियों में बंद सांप नहीं मिलते तो हम कागज पर सांप बनाकर उनकी पूजा करते है। मन्दिरों में मौजूद पत्थर के सांपों की पूजा करते हैं और किसी धर्म में सांपों के पूजने का विधान हो तो मुझे नहीं पता। मेरा ज्ञान सीमित है। पाठक इसे बढा सकते हैं। हमारे यहां कहावत है- ‘घर आए नाग न पूजिए, बामी पूजन जाय।’ अर्थात हम ढोंगी लोग हैं। हमें अपने सनातनी होने पर फिर भी गर्व है। हम सांप पूजते रहेंगे। सभी तरह के सांप पूजे जाएंगे। चाहे वे बिलों में रहते हों या आस्तीनों में। सांप खूबसूरत भी होते हैं, किन्तु उन्हें इस वजह से ओलम्पिक खिलाडियों की तरह निष्कासित नहीं किया जाता, मार दिया जाता है या किसी संग्रहालय में कैद कर दिया जाता है। खूबसूरती पता नहीं अभिशाप कैसे बन गई? इतिश्री। आप सभी को नाग पंचमी की शुभकामनाएं। सांपों से बचें भी और सांपों को बचाएं भी।