प्रथम ग्रासे मक्षिका पात

– राकेश अचल


इस समय भारत में अयोध्या धर्म और राजनीति का सबसे बडा केन्द्र है, क्योंकि आए दिन यहां 22 जनवरी को प्रस्तावित नवनिर्मित मन्दिर में रामलला के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह के वहिष्कार की खबरें आ रही हैं। रामलला को सियासी औजार बनाने के खिलाफ सबसे पहले जगदगुरू शंकराचार्य निश्चलानंद सरस्वती बोले और अब उनका अनुशरण करते हुए द्वारिका पीठ के शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ने भी अयोध्या न जाने का ऐलान कर दिया है। संस्कृत की कहावतों में इसे ‘प्रथम ग्रासे मक्षिका पात’ कहते हैं, यानि पहले ही कौर (निवाले) में मक्खी का गिर जाना कहते हैं।
धर्म के मामले में अपना ज्ञान बेहद सीमित है। इसलिए मन्दिर कैसा बना, वहां मुहूर्त किसने, कैसा निकलवाया या प्राण-प्रतिष्ठा का यजमान कौन हो और कौन न हो? इससे अपना कोई लेना-देना नहीं है। अपने राम तो खुश हैं कि जैसे-तैसे अयोध्या में मन्दिर बन गया। अर्थात अपने राम को आम खाने से मतलब है न कि पेड गिनने से। किन्तु जो सचमुच सनातन धर्म और संस्कृति के वास्तविक ध्वजवाहक बोलते हैं तो लगता है कि कहीं न कहीं दाल में काला है। हमारे यहां आदि कहावत है कि आप तेली का काम तमोली से नहीं करा सकते, क्योंकि हर काम का एक विशेषज्ञ है। तिलों से तेल निकालने में जितना सिद्धहस्त एक तेली हो सकता है उतना तमोली नहीं। शायद यही बात पहले स्वामी निश्चलानंद ने कही और अब यही बात स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी कह रहे हैं। अविमुक्तेश्वरानंद की पीठ गुजरात में है।
हम जैसे धर्मपरायण लोग इस बात से खुश थे कि मौन रहने के इस युग में कम से कम हमारे पास एक जगदगुरू स्वामी निश्चलानंद तो हैं, लेकिन अब हमें संतोष है कि धर्म पथ पर स्वामी निश्चलानंद अकेले नहीं है। उनके साथ स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद भी है। मुमकिन है कि 22 जनवरी से पहले देश के चारों शंकराचार्य अयोध्या में प्राण-प्रतिष्ठा के अधार्मिक आयोजन को लेकर एकराय हो जाएं, हालांकि इस प्रतिरोध से 22 जनवरी का सियासी कार्यक्रम अप्रभावित ही रहेगा, क्योंकि राज हठ सभी हठों से ज्यादा प्रबल होता है।
ज्योतिष पीठाधीश्वर जगदगुरू शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती महाराज ने कहा कि अयोध्या में श्रीराम मन्दिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शास्त्रीय परंपराओं का अनुशरण नहीं किया जा रहा। भारत में राजा और धर्माचार्य हमेशा से ही अलग रहे हैं, लेकिन अब राजा को ही धर्माचार्य बनाया जा रहा है। यह भारतीय परंपराओं के विरुद्ध है। वह 22 जनवरी को होने वाले श्रीराम मन्दिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल होने अयोध्या नहीं जाएंगे। उन्होंने कहा कि भारतीय परंपरा में सदैव से ही राजा राज करते रहे हैं और धर्म की स्थापना की जिम्मेदारी धर्माचार्यों पर छोडी जाती है। वर्तमान समय में इन परंपराओं का निर्वहन नहीं किया जा रहा। अब राजा को ही धर्माचार्य माना जा रहा है। इसके तहत अयोध्या में होने वाले प्राण प्रतिष्ठा समारोह में तय किया गया है कि पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दर्शन करेंगे। उनके जाने के बाद धर्माचार्यों को दर्शन के लिए भेजा जाएगा, जो पूर्णतया गलत है।
धर्म के बारे में यदि एक छोड दो-दो शनकराचार्य एक ही बात कह रहे हैं तो देश के धर्मप्राण, धर्मांध जनता को मान लेना चाहिए कि अयोध्या में जो कुछ हो रहा है उसका धर्म कोई लेना देना नहीं है। अयोध्या का 22 जनवरी का कार्यक्रम सौ फीसदी राजनितिक कार्यक्रम है। फर्क सिर्फ इतना है कि उसके ऊपर धर्म का मुलम्मा चढाया गया है। मुलम्मा यानि कलई चढाने का काम अरसे से बंद हो गया है, अन्यथा एक जमाने में पीतल के बर्तनों पर कलई चढाना भी एक व्यवसाय हुआ करता था। अब ये काम सियासत में होता है। मुलम्मा यानि कलई कुछ देर के लिए तो बर्तन की चमक बढा देती है, किन्तु बाद में ये उतरने भी लगती है, और जब उतरती है तब बर्तन बेहद बदरंग नजर आने लगते हैं। यही हाल सियासत में धर्म की कलई लगाने का हो सकता है।
सत्तारूढ दल के हाथों इन दिनों कठपुतली बने राम मन्दिर न्यास ने अपने प्रतिद्वंदियों को धर्म संकट में डालने के लिए 22 जनवरी को अयोध्या आने का न्यौता दिया है। कांग्रेस समेत तमाम राजनीतिक दलों ने इस मंशा को समझा और इसे नाकाम करने के लिए 22 जनवरी को अयोध्या जाकर रामलला के दर्शन करने की घोषणा कर दी है। भाजपा चाहती थी कि सभी विपक्षी दल प्राण-प्रतिष्ठा समारोह का वहिष्कार करें और उन्हें तत्काल धर्म विरोधी कह कर मतदाताओं को भडकाया जा सके। लेकिन अब ऐसा नहीं होने जा रहा। जब देश के दो शंकराचार्य ही इस प्राण-प्रतिष्ठा का हिस्सा नहीं हैं, तब कोई दूसरा नेता इसमें शामिल हो या न हो, इससे क्या फर्क पडने वाला है? रामलला को भी किसी के आने या न आने से कोई फर्क नहीं पडने वाला, लेकिन वे शंकराचार्यों के न आने से क्षुब्ध अवश्य होंगे।
भाजपा भूल गई है कि रामलला किसी राजनीतिक दल के नेता नहीं हैं, जो उनके लिए भीड ढोकर लाई जाए। भाजपा ने रामलला के लिए भीड जुटाने का दायित्व अपने बूथ स्तर के प्रभारियों तक को सौंपा है। भाजपा हर दिन रामलला के सामने 50 हजार की भीड प्रस्तुत करना चाहती है। भाजपा को लगता है कि यदि भीड न आई तो रामलला नाराज हो जाएंगे, लेकिन ऐसा है नहीं। लोग रामलला के दर्शन करने अपने पैसे से तब भी अयोध्या जा रहे थे जब वे एक तम्बू में विराजते थे, वे आज भी अयोध्या जाएंगे जब उनके लिए एक भव्य-दिव्य मन्दिर बना दिया गया है। बल्कि अब अयोध्या जाना और महंगा हो गया है, क्योंकि सरकार ने इस पवित्र शहर को एक पर्यटन नगरी में तब्दील कर दिया है। अब यहां रहना, खाना, घूमना सब पहले के मुकाबले महंगा हो गया है।
स्वामी अवमुक्तेश्वरानंद का कहना है कि अयोध्या में शुरू से ही गडबडी हो रही है। वे मानते हैं कि मस्जिद के ढांचे को तोडना भी न्याय विधान के तहत नहीं था। हिन्दुओं को खुश करने के लिए ही इसे तोडा गया था, जबकि न्याय विधान के तहत इसे प्राप्त किया जाना चाहिए था। जिस समिति ने केस जीता उसे बाद में हटा दिया गया और नई समिति बना दी गई, जो न्यायसंगत नहीं है। उन्होंने कहा कि किसी भी मन्दिर में निर्माण कार्य पूर्ण होने से पहले प्राण प्रतिष्ठा नहीं होती। प्राण प्रतिष्ठा तभी संभव है जब उसका निर्माण कार्य पूरा हो जाए। अयोध्या में फिलहाल गर्भगृह का फर्श बनाकर उस पर खंबे खडे कर दिए गए हैं। मन्दिर का पूर्ण निर्माण नहीं हुआ है। ऐसे में प्राण प्रतिष्ठा उचित नहीं है।
बहरहाल भाजपा के लिए संतोष की बात ये है कि उसके पास अभी भी चार में से दो शंकराचार्यों का आशीर्वाद है। वे भाजपा की सत्ता और उसके द्वारा रामलला के मन्दिर के लिए किए गए प्रयासों से शायद खुश हैं। वैसे भाजपा के पास अभी भी समय है कि वो शंकराचार्यों द्वारा उठाई गई आपत्तियों का निवारण कर रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा में अपने नेता को यजमान बनाने के प्रश्न को अपनी मान-प्रतिष्ठा से न जोडे। प्रधानमंत्री जी को श्रेय तो रामलला के दर्शन करने मात्र से मिलने वाला है। कांग्रेस क्या कोई भी दूसरा दल प्रधानमंत्री से ये श्रेय नहीं छीन सकता। भाजपा की उपलब्धि है कि उसने देश की जनता के साथ ही शंकराचार्यों को भी विभाजित करने में सफलता हांसिल कर ली है। भाजपा चाहे तो विरोधी शंकराचार्यों के यहां ईडी भिजवा सकती है, आखिर उनकी हैसियत ही क्या है?