– राकेश अचल
बात फिल्मों की है लेकिन सियासत की भी है। आज-कल देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने के तमाम विकल्पों पर एक साथ काम चल रहा है। फिल्में भी इसका एक मोर्चा है। फिल्मों के जरिए इतिहास के पुनर्शोधन की कोशिश देखकर हैरानी भी होती है और हंसी भी आती है। ये मामला 1941 से चलकर अब 2025 में आ गया है। सिकंदर (1941) से शुरू हुई ये यात्रा अब छावा (2025) तक आ पहुंची है।
भारत में कहा जाता है कि पहली ऐतिहासिक किरदार पर बनी पहली फिल्म सिकंदर थी। 1941 में जब ये फिल्म बनी तब तकनीक का विकास बहुत ज्यादा नहीं हुआ था, इसलिए तमाम कोशिशों के बावजूद इसमें वो रंग नहीं भरे जा सके जो आज की फिल्म छावा में भरे जा सके हैं। हिन्दुस्तान में फिल्में सियासत का औजार नहीं थीं, वे सामाजिक चेतना का औजार जरूर थीं। तब इतिहास को लेकर नजरिया भी हिन्दू-मुसलमान का नहीं था, इसीलिए सोहराब मोदी की फिल्म में अपने जमाने के स्थापित अभिनेता पृथ्वीराज कपूर सिकंदर की भूमिका भी सहजता से कर पाए। हमारी स्मृति की पहली ऐतिहासिक फिल्म तो ‘मुगले-आजम’ थी। इस फिल्म को भारतीय दर्शकों ने न सिर्फ अभिनय के लिए बल्कि गीत-संगीत के लिए भी एक बार नहीं बल्कि बीसियों बार देखा। बार-बार देखा। हजार बार देखा।
मुगले-आजम के जरिए भी मुगल सम्राट अकबर को महान बताने की कोशिश नहीं की गई थी, बल्कि ये फिल्म प्रेम और सत्ता के बीच जंग की यशोगाथा थी। इस फिल्म में बामुश्किल केवल एक गीत रंगीन फिल्माया जा सका था। लेकिन ये फिल्म सचमुच कालजयी साबित हुई। इसे उन लोगों ने भी देखा जो आज देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने के लिए जी-जान से लगे हैं और खुलकर फिल्मों का इस्तेमाल अपनी राजनीति के लिए कर रहे हैं।
मुझे लगता है कि पिछले 64 साल में मुगले आजम की कामयाबी के बाद दर्जनों ऐतिहासिक विषयों पर फिल्में बनीं, लेकिन वे दर्शकों के लिए थीं, सियासत के लिए नहीं। आपको हैरानी होगी कि मुगले आजम बनाने वाले के आसिफ मुसलमान होते हुए भी इस फिल्म को हिन्दू-मुसलमान के लिए नहीं बना पाए। क्योंकि इस फिल्म की कथावस्तु प्रेम था जो दुनिया के हर मजहब की रीढ होता है। के. आसिफ ने अकबर को अल्लाह की तरह महान बनाने की कोशिश नहीं की, बल्कि अकबर को मुहब्बत के समाने नतमस्तक होते दिखाया, लेकिन अब जो फिल्में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर बन रही हैं उनका एकमेव मकसद दर्शकों के मन में एक खास मजहब के लोगों के खिलाफ घृणा पैदा करना है। दु:ख की बात ये है कि ऐसे प्रयासों को सत्ता का संरक्ष्ण भी हासिल है।
हिन्दुत्व की स्थापना के लिए शिक्षा में परिवर्तन हो रहा है, इतिहास का पुनर्लेखन भी हो रहा है और ‘छावा’ जैसी फिल्में भी बनाई जा रही हैं। मैंने ‘छावा’ बार-बार देखी। तकनीक, अभिनय और पटकथा की दृष्टि से ‘छावा’ बनाने में सचमुच मेहनत की गई है। लेकिन इसके बावजूद ‘छावा’ ‘मुगले-आजम’ की बराबरी नहीं कर पाती। क्योंकि छावा बनाते वक्त निर्माता का नजरिया केवल मनोरंजन या अर्थोपार्जन नहीं, बल्कि सियासत भी है, जो छिपाये नहीं छिप रहा। फिल्म अपने उद्देश्य में सफल भी होती दिखाई दे रही है। ‘छावा’ को वे दर्शक भी पर्याप्त संख्या में मिल रहे हैं जो हिन्दू राष्ट्र के समर्थक हैं। ये अच्छी बात है या नहीं, कह पाना कठिन है।
हम उस पीढी के लोग हैं जिन्होंने मुगले-आजम के बाद अनारकली भी देखी और रजिया सुल्तान भी। जोधा-अकबर भी देखी और बाजीराव मस्तानी भी। हमने पद्मावत भी देखी और मणिकर्णिका भी। हम उन दर्शकों में से हैं जिन्होंने ‘तानाजी दी अनसंग वारियर’ भी देखी और अब ‘छावा’ भी देख रहे हैं। फिल्में ही नहीं अब तो धारावाहिकों का इस्तेमाल भी मुगलों को क्रूर और हिन्दू विरोधी प्रमाणित करने के लिए किया जा रहा है। ऐसे ही धारावाहिकों में हाल ही में हमारी नजर पृथ्वीराज पर भी पडी। इन सबका मकसद इतिहास का शुद्धिकरण है। इतिहास का भगवाकरण है। मुमकिन है कि आपको मेरी ये धारणा बुरी और राष्ट्र विरोधी लगे किन्तु जो है सो है, इसे बदला नहीं जा सकता।
हमारे देश में ऐसे सियासदां भी हैं जो कह चुके हैं कि महात्मा गांधी को ‘गांधी’ फिल्म बनने से पहले कोई नहीं जानता था। ऐसे लोगों के लिए छावा जैसी फिल्में ही सच हैं। ऐसे दर्शक भी हैं जो गांधी बनने से पहले गांधी को और छावा बनने से पहले संभाजी राव को नहीं जानते थे। फिल्मों के जरिए जनता के मन में एक मजहब के प्रति नफरत बोने की कोशिश हास्यास्पद भी है और निंदनीय भी, लेकिन कुछ के लिए सराहनीय भी। क्योंकि आज जो मुसलमान इस देश में है वो न औरंगजेब की जेब से निकला है और न महमूद गजनबी का डीएनए उसमें है। औरंगजेब को मरे हुए 318 साल हो गए हैं और मेहमूद गजनबी को मरे एक हजार साल से भी ज्यादा हो गए हैं। अब हमारे बीच जो मुसलमान हैं वे न मुगल हैं और न अफगानी या ईरानी। वे विशुद्ध भारतीय हैं और कोई भी फिल्म उनकी भारतीयता नहीं बदल सकती।
इतिहास में भारतीय नायकों की एक लम्बी फेहरिस्त है, जो स्वराज्य के लिए कुर्बान हो गए, लेकिन किसी आततायी के आगे झुके नहीं, लेकिन वे न कांग्रेसी थे और न भाजपाई। उनके समाने अखण्ड भारत भी नहीं था। सबका अपना-अपना राज था और वो ही स्वराज था। ऐसे महान नायकों के किस्से हमारे बच्चों को जानना ही चाहिए, लेकिन इनके जरिए बच्चों के कोमल मन में किसी जाति या मजहब के खिलाफ घृणा पैदा करने की कोशिश भी नहीं की जाना चाहिए। क्योंकि हमारे इतिहास में बहुत से ऐसे किरदार भी हैं जो विजातीय होते हुए भी स्वराज के लिए लडे और मरे। हजार, पांच सौ साल पुराने इतिहास की मरम्मत कर कोई आज की पीढी का भविष्य नहीं बना सकता। लेकिन कोशिश तो कोशिश है। इस तरह की कोशिशें केवल सैकडों साल पुराने इतिहास को लेकर ही नहीं हुईं, बल्कि आज के कश्मीर, केरल और मणिपुर को लेकर भी हुई हैं। इन फिल्मों से हुए नफा-नुक्सान के बारे में दुनिया जानती है।
बहरहाल आज के दौर में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर बनाई जा रही फिल्में हों या धारावाहिक, तकनीक और अभिनय के हिसाब से बहुत प्रभावी हैं। ऐतिहासिक किरदारों में भगवा ब्रिगेड में अक्षय कुमार भी शामिल हैं और संजय दत्त भी। पहले इनकी जगह मनोज कुमार यानि भारत कुमार हुआ करते थे, लेकिन वे भारतीयता और भारतीय मूल्यों को लेकर फिल्में बनाते थे, हिन्दू-मुसलमान को लेकर नहीं। इसलिए जब भी ऐतिहासिक फिल्में देखें तब ये जरूर ध्यान में रखें कि आप फिल्म देख रहे हैं न कि इतिहास पढ रहे हैं। इतिहास चंद फिल्मों के जरिए नहीं बदला जा सकता, ना ही जाना जा सकता।