स्मृति शेष : मनोज कुमार, यानि भारत कुमार

– राकेश अचल


हम लोग उस पीढी से आते हैं जिसने राष्ट्रवाद का पाठ किसी संघ, जनसंघ या भाजपा से नहीं सीखा। हमारी पीढी को राष्ट्रवाद और भारतीयता का पाठ पढाया था एक शर्मीले से लम्बे और खूबसूरत अभिनेता ने, जिसका नाम मनोज कुमार था। भारत देश का बच्चा-बच्चा मनोज कुमार को जानता था, उनसे मोहब्बत करता था और उनकी फिल्मों के गीत गुनगुनाते हुए भविष्य के सपने देखता था। मनोज कुमार जन्म से मनोज कुमार नहीं थे। उनका नाम हरिकृष्णा गिरी गोस्वामी था।
मनोज कुमार यदि मनोज कुमार न बनते तो कथा वाचक बनते, क्योंकि उनके पास लोगों को आकर्षित करने का हुनर था। मनोज कुमार उसी दिल्ली के रहने वाले थे जिस दिल्ली में गालिब हुए, बहादुरशाह जफर हुए। मेरे जन्म से दो साल पहले 1957 में फिल्म ‘फैशन’ से फिल्मी दुनिया में कदम रखने वाले मनोज कुमार 1967 में ‘उपकार’ बनाकर हर भारतीय के दिल पर छा गए। ‘मेरे देश की धरती सोना उगले-उगले हीरा मोती’ हर भारतीय की जुबान पर था। वे आदर्श किसान थे उस फिल्म में। संघर्ष उनकी पहचान थी। जो आज आधी सदी के बाद भी अमिट है।
भारत कुमार यानी मनोज कुमार ने भरी-पूरी जिंदगी पाई। वे 87 साल के होकर चुपचाप बिना किसी विवाद के इहलोक से विदा हुए हैं। उनके ऊपर कोई ऐसा दाग-धब्बा नहीं है कि लोग मनोज कुमार से घृणा करें। मनोज कुमार केवल और केवल मोहब्बत के लायक थे। मनोज कुमार का फिल्मी सफर धीमी गति के समाचारों जैसा था। वे साल में एक फिल्म बना लें तो बहुत है। उन्हें सुपर स्टार या जुबली कुमार बनने की जल्दी शायद कभी नहीं रही। वे खरामा-खरामा अपना काम करते थे। उनके काम करने के तरीके से आप शायद सहमत न भी हों, लेकिन ये उनका अपना अंदाज था।
मनोज कुमार ने 1957 ‘फैशन’, 1958 ‘सहारा’ और ‘पंचायत’ में काम किया लेकिन पहचाने नहीं गए। 1960 में ‘हनीमून’ भी उनके काम नहीं आई, लेकिन 1961 में ‘रेशमी रूमाल’ और ‘कांच की गुडिया’ के जरिए वे चर्चा में आए। इसी साल ‘सुहाग सिन्दूर’ ने उन्हें पहचान दिलाई। 1962 में ‘शादी’, ‘नकली नबाब’, ‘डॉक्टर विद्या’, ‘बनारसी ठग’, ‘अपना बना के देखो’ और ‘मान बेटा’ के साथ ही ‘हरियाली और रास्ता’ ने मनोज कुमार की सफलता का रास्ता खोला। उन्हें कामयाब बनाने में गीत-संगीत की अपनी भूमिका थी। मुझे याद है कि 1963 में मनोज कुमार ‘गृहस्थी’ में नजर आए, इसी साल उन्होंने ‘घर बसा के देखो’ में काम किया। 1964 में ‘फूलों की सेज’ और ‘अपने हुए पराये’ ने दर्शकों को रुलाया भी और हसाया भी। लेकिन 1964 में ही आई एक फिल्म ‘वो कौन थी’ ने उन्हें हीरो के रूप में स्थापित कर दिया। ‘गुमनाम’ ने उन्हें नया मुकाम दिया। 1965 में ‘बेदाग’ और 1965 में ही ‘शहीद’ ने उन्हें जो मुकाम दिया उसे वे ताउम्र भुनाते रहे।
मनोज कुमार ने हर विषय पर फिल्में लीं और अभिनय किया। शहीद के बाद ‘पूनम की रात’ से कहीं ज्यादा ‘हिमालय की गोद में’ फिल्म ने मनोज कुमार को चमकाया। इस फिल्म का गीत ‘चांद सी मेहबूबा हो मेरी कब ऐसा मायने सोचा था’। आज भी जिंदा है। ‘सावन की घटा’, ‘पिकनिक’ और ‘दो बदन’ को कौन भूल सकता है। हम लोगों ने उस समय ‘दो बदन’ स्कूल से गोत लगाकार देखी थी। ‘पत्थर के सनम’ ने मनोज के अभिनय का लोहा मनवा लिया। ‘उपकार’ तो ब्लॉक बस्टर और मील का पत्थर फिल्म साबित हुई। मनोज कुमार की फिल्म ‘अनीता और आदमी’ जिसने भी देखी होगी वो इसे शायद ही कभी भुला पाए। जब मैं कक्षा 8वीं का छात्र था तब मनोज कुमार की फिल्म ‘नीलकमल’ को देखने लवकुश नगर (लौंडी) से महोबा तक साइकिल से गया था। उनकी फिल्म ‘साजन’, ‘पहचान’, ‘यादगार’ के बाद ‘पूरब और पश्चिम’ ने मनोज कुमार को जो छवि दी वो आजन्म उनके सतह चिपकी रही। उन्होंने ‘मेरा नाम जोकर’ में भी काम किया।
आम आदमी के सरोकारों को लेकर बनी फिल्मों में काम करने के लिए जाने जाने वाले मनोज कुुमार की फिल्म ‘शोर’ ने जो शोर मचाया उसकी प्रतिध्वनि आज भी सुनाई देती है। बांकी कुछ बचा तो ‘मंहगाई मार गई’, ‘पानी रे पानी’ को कौन भूल सकता है? ‘बेईमान’, ‘रोटी कपडा और मकान’ तथा ‘सन्यासी’ को हमारी पीढी कभी नहीं भुला सकती। ‘दस नंबरी’, ‘अमानत’ जैसी फिल्में बनाने वाले मनोज कुमार ने ‘शिरडी के सांई बाबा’ जैसी फिल्में बनाने का काम भी किया। वे ‘जाट पंजाबी’ भी बना सके, लेकिन ‘क्रांति’ और ‘कलियुग की रामायण’ तथा ‘संतोष’ जैसी फिल्में बनाने का दुस्साहस भी मनोज कुमार जैसे हीरो ही कर सकते थे।
मुझे याद आता है कि मनोज कुमार ने 1995 की फिल्म ‘मैदान-ए-जंग’ में काम करने के बाद उन्होंने अभिनय छोड दिया। उन्होंने अपने बेटे कुणाल गोस्वामी को 1999 की फिल्म ‘जय हिंद’ में निर्देशित किया, जो देशभक्ति की थीम पर आधारित थी। यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर असफल रही और कुमार ने जिस आखिरी फिल्म में काम किया, वह थी। चार दशक से अधिक के फिल्मी योगदान के लिए उन्हें 1999 में फिल्म फेयर लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया गया।
मनोज कुमार को जितने सम्मान मिले उतने ज्यादा नहीं हैं, लेकिन वे इन पुरस्कारों के पीछे भगे नहीं। उन्होंने किसी का पिछलग्गू बनना पसंद नहीं किया। वे किस का माउथपीस नहीं बने। बने भी तो आम आदमी के प्रवक्ता। लेकिन दूसरों की तरह मनोज कुमार भी आखरी वक्त में हिन्दू बन गए। मनोज कुमार ने भी रिटायरमेंट के बाद राजनीति में प्रवेश करने का फैसला किया। मुझे याद है कि 2004 के आम चुनाव से पहले मनोज कुमार आधिकारिक तौर पर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए। लेकिन ये उनकी गलती थी या नहीं ये वे जानें। मैं तो उनका सम्मान एक भावुक, संवेदनशील, शांत अभिनेता के रूप में याद करता हूं। विनम्र श्रृद्धांजलि।