स्मृति शेष : बडा मुश्किल है जमाने में मुनव्वर होना

– राकेश अचल


मुनव्वर राना नहीं रहे, वे अपने आप मरे या उन्हें वक्त ने बहुत पहले ही मार डाला था ये कहना मुश्किल है। राना का रहना या रहना बराबर है। मुशायरों के लिए वे कुछ अरसा पहले ही मर चुके थे। आज उनका जिस्म मरा है। रूह तो बहुत पहले फना हो चुकी थी। जमाने के लिए तो वे आज के ही दिन साल भर पहले मर चुके थे। राना की मौत बहुत से लोगों के लिए पुरसुकून होगी। वे खुश होंगे। कह रहे होंगे कि ‘मर गया!’ कुछ लोगों के लिए राना की मौत पहाड के टूटने से होने वाली आवाज की तरह भी होगी, क्योंकि राना ने अपनी शायरी से तमाम कौम को झकझोर के जगाया भी था।
पांच बच्चों के बाप मुनव्वर राना मुझसे सात साल बडे थे। वे न मेरे उस्ताद रहे और न मैं उनका शागिर्द, लेकिन मैं उनका स्थाई श्रोता और पाठक अवश्य रहा। वे जब भी ग्वालियर आए उनसे मुलाकात हुई, बात हुई। वे जब मंच पर उतरे उस वक्त मुल्क में तमाम शायर पहले से मौजूद थे। उनसे बेहतर भी और उनसे कमतर भी। राना ने ऐसे ही माहौल में अपने लिए पहचान बनाई। मरते हुए रिश्तों के जरिए इंसानी अहसासात को गीला किया। वे अच्छे शायर भी थे और अच्छे इंसान भी। उनमें बस एक कमी थी कि वे अहले सियासत पर भी नुक्ता चीनी कर बैठते थे। सियासत और तंगदिल सियासत को मुनव्वर राना फूटी आंख नहीं सुहाते थे।
मुनव्वर के लिए सियासत सबसे बडा खतरा रही। वे शायर होकर भी खतरों से खेलते रहे। जलते, झुलसते रहे। बिना ऐलान की सजाएं पाते रहे। जलालत सहते रहे, लेकिन पीछे नहीं हटे। पीछे हट जाते तो शायद उन्हें बख्श दिया जाता। वे एक हिन्दुस्तानी भी थे और मुसलमान भी। वे वोट की सियासत के खिलाफ बोलते थे तो लोगों को बुरा लगता था। लेकिन वे बुरे आदमी नहीं थे। बुरी तो सियासत थी। मुनव्वर राना को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला जो उन्होंने सरकार के एक फैसले से असहमत होने के विरोध में वापस कर दिया। सरकार की नजर में वे उसी दिन से देशद्रोही हो गए।
मुनव्वर राना देश प्रेमी थे और शायद इसीलिए भारत-पाकिस्तान बंटवारे के समय जब उनके बहुत से नजदीकी रिश्तेदार और पारिवारिक सदस्य देश छोडकर पाकिस्तान चले गए। लेकिन साम्प्रदायिक तनाव के बावजूद मुनव्वर राना के पिता ने अपने देश में रहने को ही अपना कर्तव्य माना। मुनव्वर राना की शुरुआती शिक्षा-दीक्षा कलकत्ता में हुई। राना ने गजलों के अलावा संस्मरण भी लिखे हैं। उनके लेखन की लोकप्रियता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनकी रचनाओं का ऊर्दू के अलावा अन्य भाषाओं में भी अनुवाद हुआ है।
मुनव्वर राना मेरे प्रिय शायरों में से एक रहे। मैं उनसे अनेक बार मिला। मैं उनके लेखन को पसंद करता हूं। मेरी तरह बहुत से लोग उन्हें पसंद करते हैं। उनके जाने से वे सब गमजदा होंगे। उनके सामने मुनव्वर अपने शेरों की शक्ल में बार-बार आकर खडे हो रहे होंगे। देश में अब गिनती के लोग हैं जो मुनव्वर राना की तरह लिखते हैं, बोलते हैं और सत्ता प्रतिष्ठान से टकराते हैं। ऐसे लोगों की कमी अदब के साथ ही जम्हूरियत का भी नुक्सान है। उनके तमाम शागिर्द हैं जो उनकी तरह लिख रहे हैं, लेकिन सब राना नहीं बन सकते। मैंने पहले ही कहा कि राना होना आसान नहीं।
मुनव्वर राना ने अपनी शायरी से, अपने व्यवहार से देश और देश की सरहदों के पार भी अपने चाहने वालों की एक दुनिया बनाई। उनकी दुनिया में दोस्त ज्यादा और दुश्मन बहुत कम रहे। उनके खिलाफ जो लोग हैं वे पूरी एक रिवायत की मुखालफत करने वाले लोग हैं। वे न महात्मा गांधी को पसंद करते हैं और न नेहरू को। न मुनव्वर राना को पसंद करते हैं और न मुझे। आखिर सच को सच कहने वालों की अपनी बिरादरी है। आज मैं उनकी शायरी पर कोई बात नहीं कर सकता। मेरी ऊपर वाले से गुजारिश है कि वह हमारे मुनव्वर को अपनी सरपरस्ती में कुबूल करे और हमें एक दो नहीं बल्कि सैकडों मुनव्वर राना मुहैया कराता रहे। जो साफगोई से अपनी बात रखना जानते हों। जो डरपोक न हों। उनकी एक गजल उन्हीं को समर्पित।

भुला पाना बहुत मुश्किल है सब कुछ याद रहता है
मोहब्बत करने वाला इस लिए बरबाद रहता है
अगर सोने के पिंजडे में भी रहता है तो कैदी है
परिंदा तो वही होता है जो आजाद रहता है
चमन में घूमने फिरने के कुछ आदाब होते हैं
उधर हरगिज नहीं जाना उधर सय्याद रहता है
लिपट जाती है सारे रास्तों की याद बचपन में
जिधर से भी गुजरता हूं मैं रस्ता याद रहता है
हमें भी अपने अच्छे दिन अभी तक याद हैं ‘राना’
हर इक इंसान को अपना जमाना याद रहता है

विनम्र श्रद्धांजलि।