शतायु होती संगीत परम्परा को नमन

– राकेश अचल


यूनेस्को ने ग्वालियर को ‘सिटी आफ म्यूजिक’ का सम्मान इसी साल दिया है, किन्तु ग्वालियर शताब्दियों से संगीत का शहर है, शहर क्या तीर्थ है। आज भी ग्वालियर की शिराओं में संगीत का प्रवाह बना हुआ है। इसी शहर ने संगीत की साधना से जिसे सम्राट बनाया उसे तानसेन के नाम से दुनिया जानती है। उन्हीं संगीत सम्राट तानसेन की समाधी पर इस वर्ष भी 24 दिसंबर को पांच दिवसीय महफिल सजने वाली है।
राजनीति के प्रदूषण से घिरे देश में ऐसे समारोहों की चर्चा कम ही हो पाती है। हालांकि ऐसे समारोह आज भी राज्याश्रय के मोहताज हैं। समाज इन्हें आत्मनिर्भर नहीं बना पाया है। तानसेन की भव्यता साल-दर-साल बढती ही जा रही है। इसका स्वरूप भी लगातार बदल रहा है। पहली बार तानसेन समारोह की पूर्व संध्या पर ग्वालियर शहर के 15 स्थानों पर संगीत सभाएं आयोजित की गईं। इन सभाओं में ग्वालियर घराने के साथ ही दूसरे शास्त्रीय गायकों-वादकों ने अपनी कलाओं का शानदार प्रदर्शन किया। ये समारोह संगीत प्रेमियों के साथ ही पर्यटकों के लिए भी एक बडा आकर्षण है।
तानसेन कैसे तत्कालीन मुगल सम्राट अकबर के दरबार के नवरत्न बने, इसे लेकर अनेक किस्से हैं। लेकिन हकीकत ये है कि तानसेन थे और संगीत की दुनिया में उन्होंने अपनी साधना से एक अलग मुकाम बनाया था। तानसेन को लेकर किवदंतियां ज्यादा हैं, प्रमाण कम। तानसेन ब्राह्मण थे या बघेल ये विवाद है। कोई उन्हें मकरंद बघेल की संतान मानता है, तो कोई मकरंद पाण्डे की। लेकिन एक मान्यता अविवादित है कि वे ग्वालियर से 45 किमी दूर बसे गांव बेहट के बेटे थे। किस्सा है कि वे बचपन में स्पष्ट बोल नहीं पाते थे, किन्तु एक शिवालय में नियमित साधना से उन्हें स्वर सिद्ध हुए और वे गाने लगे। उनकी तानों से शिवालय टेढा हो गया। ये शिवालय आज भी है, लेकिन मुझे इसके टेढे होने की वजह संगीत नहीं वो वटवृक्ष लगता है जो विशालकाय है।
तानसेन 15वीं सदी के अंत और 16वीं सदी के बीच जन्मे और उस दौर में ग्वालियर में तोमर शासकों का राज था। राजा मानसिंह तोमर संगीत के अनन्य साधक थे। उनके शासनकाल में संगीत को खूब संरक्षण मिला और इसका लाभ तानसेन और उनके समकालीन बैजूबावरा, कर्ण और महमूद जैसे अनेक संगीतज्ञों को मिला। ऐसी लोक मान्यता है कि राजा मानसिंह तोमर ने संगीत की ध्रुपद गायकी का आविष्कार और प्रचार किया था। तानसेन की संगीत शिक्षा भी उनकी देख-रेख में हुई। राजा मानसिंह तोमर की मृत्यु होने और विक्रमाजीत से ग्वालियर का राज्याधिकार छिन जाने के बाद तानसेन एक श्रेष्ठ गुरू की तलाश में वृन्दावन चले गए और वहां उन्होंने स्वामी हरिदास जी से संगीत की उच्च शिक्षा प्राप्त की।
संगीत में निष्णात होने के बाद की ख्याति में चार चांद लग गए। उन्हें तानसेन शेरशाह सूरी के पुत्र दौलत खां ने अपने आश्रय में ले लिया। दौलत खान के बाद तानसेन बांधवगढ (रीवा) के राजा रामचन्द्र के दरबारी गायक नियुक्त हुए। मुगल सम्राट अकबर ने उनके गायन की प्रशंसा सुनकर उन्हें अपने दरबार में बुला लिया और अपने नवरत्नों में स्थान दिया। तानसेन के जीवन का ये सबसे महत्वपूर्ण समय माना जाता है। तानसेन के संगीत की विशेषताओं से जुडे असंख्य किस्से हैं। कालांतर में उनके जीवन पर फिल्में भी बनाई गईं। लेकिन जो हकीकत है, वो ये है कि तानसेन की समाधि ग्वालियर के हजीरा क्षेत्र में बनी हुई है। मोहम्मद गौस के मकबरे के निकट स्थित तानसेन की समाधि पर राजतंत्र के समय से स्थानीय वैश्याएं उर्स मनाती थीं। जिसे बाद में सिंधिया शासकों ने राज सहायता देकर सालाना संगीत समारोह में बदल दिया।
सरकारी और निजी आंकडों में अन्यत्र होने के बावजूद इस आयोजन का ये 99वां साल है। पिछले 50 साल से इस समारोह में नियमित हाजिर होने वाले लोगों में मैं भी शामिल हूं। मेरे जैसे सैकडों लोग मिल जाएंगे जो अपना तमाम कामकाज छोडकर ठिठुरते हुए इस समारोह में एक श्रोता की हैसियत से शामिल होते हैं। इस समारोह में पिछले सौ साल में पैदा हुए देश के सभी मूर्धन्य संगीतज्ञों ने अपनी हाजरी दी है, फिर चाहे वे पं. रविशंकर हों, गंगूबाई हंगल हों, मल्लिकार्जुन मंसूर हों, शहनाई सम्राट उस्ताद बिस्मिल्लाह खान हों। पं. कृष्ण राव शंकर पंडित हों या पं. भीमसेन जोशी हों या डागर बंधु हों, उस्ताद अमजद अली खान हों या असगरी बाई हों। हर संगीतज्ञ तानसेन की समाधि पर सजदा करना अपना सौभाग्य मानता आया है। मैंने यहां शाम से शुरू होने वाली संगीत सभाओं को ब्रह्म मुहूर्त तक चलते देखा है। इस समारोह में संगीत की नई पौध से लेकर वटवृक्ष तक शामिल होते हैं।
पिछले कुछ वर्षों से सरकार के संस्कृति विभाग में इस पारंरिक समारोह को वैश्विक संगीत समारोह बनाने की कोशिश की है। इसमें तमाम विदेशी संगीतज्ञों को शामिल किया है। इसका विरोध भी हुआ और समर्थन भी मिला। कुल मिलकर तानसेन और संगीत शास्त्रीय संगीत कि पर्याय बने हुए हैं। ध्रुपद के प्रतीक हैं। पहले तानसेन के नाम से कोई सम्मान नहीं दिया जाता था, लेकिन 1977 में तानसेन के नाम पर पांच हजार रुपए का अलंकरण देना शुरू किया गया, जो आज पांच लाख तक का हो गया है। अब तानसेन अलंकरण के अलावा संगीत के क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि नाटक के क्षेत्र में काम करने वाली संस्थाओं को भी सम्मानित किया जाता है।
यदि आपकी संगीत में रुचि है तो आपको एक बार तानसेन समारोह में अवश्य शामिल होना चाहिए। ग्वालियर तक आने के लिए दिल्ली से वायुयान, रेलें उपलब्ध हैं। शहर में धर्मशालाओं से लेकर पांच सितारा होटल हैं। आप ग्वालियर आएं तो सर्दी से बचने के उपाय अवश्य करके आएं। तानसेन समारोह के बहाने आप ग्वालियर दुर्ग, रानी लक्ष्मीबाई की समाधि, जय विलास संग्रहालय, बटेश्वरा और मितावली के शताब्दियों पुराने मन्दिरों की श्रृंखला भी देख सकते हैं। तानसेन की जन्म स्थली बेहट में होने वाली ग्राम्यांचल की संगीत सभा का आनंद भी ले सकते हैं, वो भी नि:शुल्क। बस एक अदद वाहन आपके पास होना चाहिए।