अल्लाह बनाम इंसान का फैसला

– राकेश अचल


दिसंबर का महीना बर्फवारी का मौसम होता है। इस मौसम में बर्फ पिघलने के बजाय आसमान से बरसती है, ठीक उसी तरह जिस तरह पीडीपी की नेता महबूबा मुफ्ती सुप्रीम कोर्ट द्वारा धारा 370 पर दिए फैसले पर बरस रही हैं। देश की महिला नेत्रियों में महबूबा मुफ्ती तमाम असहमतियों के बावजूद मेरी प्रिय नेता हैं। उनके अलावा मुझे सुश्री ममता बनर्जी की राजनीति अच्छी लगती है। महबूबा ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले से असहमति बताते हुए कहा है कि ये अल्लाह का फैसला नहीं है। महबूबा मुफ्ती ने कहा कि उनकी पार्टी जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा बहाल करने के लिए संघर्ष जारी रखेगी।
जम्मू-कश्मीर से धारा 370 जब लागू होना थी, तब लागू की गई और जब उसे हटना था तब हटा भी दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने धारा 370 हटाने के सरकार के फैसले की पुष्टि भी कर दी। यानी की धारा बनाने, लगाने और हटाने की इस लम्बी प्रक्रिया में अल्लाह कहीं नहीं था। सब जगह इंसान ही इंसान थे। पहले नेहरू और पटेल थे, अब मोदी और अमित शाह हैं और महबूबा मुफ्ती हैं, माननीय मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड है। सब इंसान हैं, कोई भगवान या अल्लाह नहीं है, इसलिए महबूबा ने जो कहा वो मुझे पसंद आया। मुमकिन है कि आपको महबूबा का कहा पसंद न आए।
पिछले एक दशक में देश की सबसे बडी अदालत ने अनेक मामलों में ऐसे आधे-अधूरे और अस्पष्ट फैसले दिए हैं, जो सवालों के घेरे में हैं। लेकिन माननीय अदालत के मान-सम्मान की वजह से देश में ऐसे मामलों और माननीय अदालत की प्रकृति पर कोई बहस नहीं होती। महबूबा ने ये साहस दिखाया है और कहा है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय का फैसला अल्लाह का फैसला नहीं है, उसके खिलाफ लडा जाएगा। महबूबा इस देश की सम्माननीय नेता है। उनके दल की रीति-नीति से आप और हम असहमत या सहमत हो सकते हैं, किन्तु उन्हें राष्ट्र विरोधी कोई नहीं कह सकता, क्योंकि कांग्रेस हो चाहे भाजपा सभी ने महबूबा के साथ मिलाकर जम्मू-कश्मीर में सत्ता का स्वाद चखा है।
महबूबा मुफ्ती मुझसे एक महीना छोटी हैं, लेकिन वे उस जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं जो अब केन्द्र शासित क्षेत्र है, राज्य नहीं। जाहिर है कि महबूबा अपने सूबे को खण्ड-खण्ड देखकर स्वाभाविक रूप से आहत हुई होंगी। उनका दर्द समझना आसान है, इसलिए उनकी प्रतिक्रिया भी स्वाभाविक और निश्छल है। महबूबा को भी पता है कि जम्मू-कश्मीर को उसका पुराना दर्जा मिलना अब असंभव है, किन्तु उम्मीद करने से कोई किसी को नहीं रोक सकता। महबूबा खानदानी नेता हैं। उनके पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री और केन्द्र में गृह मंत्री रहे हैं। महबूबा विधि स्नातक हैं, इसलिए उनके द्वारा की गई टिप्पणी को किसी अनपढ या शाखामृग की टिप्पणी नहीं माना जा सकता। वे उतनी ही जिम्मेदार नेता हैं जितने कि जिम्मेदार नेता हमारे देश के गृहमंत्री अमित शाह हैं।
देश में इस समय जिस तरह से राजनीतिक लाभ लेने के लिए राज्यों की अस्मिताओं को उभारा जा रहा है, उस समय महबूबा मुफ्ती की टिप्पणी को भी जम्मू-कश्मीर की अस्मिता से जोडकर देखा जाना चाहिए। देश के दूसरे जन प्रतिनिधियों को भी इंसान के फैसलों को अल्लाह का फैसला मानकर चुप नहीं बैठना चाहिए। इस समय और पहले भी दुर्भाग्य से ऐसे अनेक कालखण्ड आए हैं जब कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के साथ ही अखबार पालिका भी सरकार के सुर में सुर मिलाती देखी गई है। ऐसे हर कालखण्ड ने देश की अस्मिता को, लोकतंत्र को और लोकतांत्रिक मूल्यों को नुक्सान पहुंचाया है। इसलिए ये जरूरी है कि हम इस तरह की तमाम प्रवृत्तियों के खिलाफ महबूबा की तरह बोलें। इंसानों द्वारा इंसानों के लिए किए जाने फैसले हर समय सौ फीसदी सही ही होंगे, इसकी गारंटी कौन दे सकता है? ऐसे तमाम फैसलों पर अंतिम मुहर जनता ही लगाती है।
मौजूदा सरकार ने जम्मू-कश्मीर के साथ गलत किया या सही मैं इस विवाद में नहीं पढना चाहता, क्योंकि इस समय देश में सवाल करने और बहस करने की अघोषित मुमानियत है। आम आदमी को तो छोडिए सांसद तक सवाल करने पर सदन से निलंबित किए जा रहे हैं। कुछ इतने दुर्भाग्यशाली हैं कि उनकी सदस्यता तक रद्द की जा रही है और ये सब कौन कर रहा है? अल्लाह नहीं कर रहा, भगवान नहीं कर रहा बल्कि वे लोग कर रहे हैं जो खुद को खुदा और ईश्वर का अवतार समझते हैं। ऐसे लोगों के खिलाफ व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से खडे होने की जरूरत है। सत्तापक्ष और उसके साथ खडे होने वाले रीढ विहीन संस्थानों के खिलाफ संगठित होना कोई अपराध नहीं है, इसे राष्ट्रद्रोह भी नहीं कहा जाना चाहिए।
आज के माहौल में महबूबा हों, ममता हों, मायावती हों या दूसरे गैर भाजपा दल हों, सभी का ये दायित्व है कि वो राजनीति में पनप रही अधिनायकत्व की प्रवृत्ति के खिलाफ मोर्चा खोलें। भाजपा में अनुशासन की तलवार के नीचे अपनी गर्दन रखकर खामोश खडे लोग भी इस अभियान में शामिल हो सकते हैं, हालांकि ये काम जोखिम का है। ये जोखिम यशवंत सिन्हा और शत्रुघ्न सिन्हा, केशूभाई पटेल और उमा भारती जैसे लोग अतीत में उठा चुके हैं। आईएनडीआईए (इंडिया) गठबंधन की ये जिम्मेदारी है कि वो इंसानों के तमाम गलत फैसलों के खिलाफ मन से संगठित होकर प्रतिकार करे। यदि विपक्ष अपनी भूमिका का निर्वाह करने में कोताही करता है तो ये लोकतंत्र के लिए बहुत खतरनाक है।