– राकेश अचल
भारत क्रिकेट का विश्व कप किसी पनौती की वजह से हारा या नहीं ये कहना कठिन है, क्योंकि क्रिकेट अवसर और नसीब का खेल है, लेकिन जम्मू-कश्मीर में पिछले चार साल चार महीने से लोकतंत्र को जो पनौती लगी है उसकी वजह से यहां न तो लोकतंत्र स्थापित हो पाया और न आतंकवाद का खात्मा। बीते रोज हमारे दो सैन्य अधिकारी और दो जवान फिर शहीद हो गए। लेकिन किसी ने उनके लिए आंसू नहीं बहाये, क्योंकि सबके सब राजनीति में उलझे हुए हैं।
जम्मू-कश्मीर का विखण्डन हुए चार साल चार महीने बीत गए, लेकिन केन्द्र सरकार ने यहां न विधानसभा को बहाल किया और न चुनाव कराए। इस तीन टुकडों में बांटे पूर्व संप्रभु राज्य की जनता के लोकतांत्रिक अधिकार केन्द्र के एजेंट एक उप राज्यपाल के अधीन है। यानि नौकरशाही यहां की भाग्यविधाता है। इसके चलते यहां हर महीने सेना के निर्दोष जवान शहीद होते जा रहे हैं। ये सब धारा 370 के हटने से पहले भी हो रहा था और आज भी हो रहा है। इसलिए सवाल है कि ये धारा 370 हटाने से क्या लाभ हुआ? जम्मू-कश्मीर के राजौरी जिले में 22 नवंबर को सुरक्षाबलों और आतंकवादियों के बीच मुठभेड में सेना के दो कैप्टन समेत चार जवान शहीद हो गए।
जम्मू-कश्मीर में पुलवामा काण्ड के बाद से अब तक 1067 आतंकी वारदातें हो चुकी हैं। इन वारदातों में कम से कम 180 सैन्य जवान और अफसर शहीद हो चुके हैं और इससे कई ज्यादा आम नागरिक मारे जा चुके हैं। ऐसा कब होता है, जब सचमुच कोई पनौती लगी हो, अन्यथा यहां मनोज सिन्हा जैसे समझदार नेता चौकीदारी के लिए तैनात हैं, फिर भी राज्य में न आतंक समाप्त हो रहा है और न सेना के जवानों की शहादत। हर मुठभेड के बाद हम दो-चार आतंकियों को टपका कर अपना हिसाब-किताब बराबर कर लेते हैं। जम्मू-कश्मीर की दुर्दशा किसी राजनीतिक दल के लिए अब कोई मुद्दा नहीं है। लगता है जैसे अब जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है ही नहीं। सरकार ने जैसे मणिपुर को उसके अपने हाल पर छोड दिया है, वैसे ही जम्मू-कश्मीर का मालिक भी कोई नहीं है। ऊपर वाला भी शायद नीचे वालों के सामने हर मानकर बैठ गया है।
मुझे हैरानी होती है कि पांच राज्यों के चुनाव में हिन्दू-मुसलमान, सनातन धर्म, भ्रष्टाचार, लाल किताब, और तो और पनौती जैसे विषय राजनीतिक मुद्दे बने, लेकिन किसी ने जम्मू-कश्मीर की बात नहीं की। भाजपा ने तो इस हिम किरीट को भुला ही दिया, लेकिन कांग्रेस ने भी जम्मू-कश्मीर की सुध नहीं ली। लगता है कि लोकसभा चुनाव होने तक कोई भी राजनीतिक दल इस विखण्डित राज्य की सुध लेगा भी नहीं और यहां निर्दोष नागरिक और सेना के जवान चुपचाप शहीद होते रहेंगे।
अगर आप अपनी स्मृति पर जोर डालें तो आपको याद आ जाएगा कि इसी साल 13 सितंबर को भी अनंतनाग जिले के कोकेरनाग इलाके में सुरक्षाबलों और दहशतगर्दों के बीच मुठभेड में सेना के दो अधिकारी और जम्मू कश्मीर पुलिस के डीएसपी शहीद हो गए थे। मैं आंकडों के जरिये आपको आतंकित नहीं करना चाहता, लेकिन आपके लिए ये जान लेना जरूरी है कि राज्य में धारा 370 हटने के बाद साल 2019 में 154 आतंकी मारे गए, 80 जवान शहीद हुए। साल 2020 में जम्मू और कश्मीर में 244 आतंकी हमले हुए, 221 आतंकी मारे गए, 62 जवान शहीद हो गए थे। 106 जवान जख्मी हुए थे। इन हमलों में सिर्फ जवान ही शहीद नहीं हुए, बल्कि 37 आम नागरिक मारे गए और 112 लोग घायल हुए थे। कहने का आशय ये है कि जम्मू-कश्मीर में खून-खराबा एक स्थाई बीमारी पहले भी थी और आज भी है। धारा 370 हटने के बाद ये इलाका अचानक स्वर्ग नहीं बन गया, पहले की ही तरह बना हुआ है।
जम्मू-कश्मीर की सत्ता पर आजादी के बाद मोदी युग आने तक काबिज रहने वाले राजनीतिक दल भी अब तक हार कर बैठ गए हैं। न नेशनल कॉन्फ्रेंस कुछ कर रही है और न मेहबूबा मुफ्ती। कांग्रेस से अलग हुए गुलाम नबी आजाद का तो जैसे अब कोई नामलेवा ही नहीं रहा। कांग्रेस ने भी लगता है जम्मू-कश्मीर के लिए लडना छोड दिया है, हालांकि राहुल गांधी ने जरूर इस टुकडे-टुकडे हो चुके राज्य के अलग-अलग हिस्सों का दौरा किया, किन्तु वे भी राज्य में लोकतंत्र बहाली का कोई आंदोलन यहां खडा नहीं कर पाए। जम्मू-कश्मीर का अवाम आज बेआवाज है और उसका नसीब कब बदलेगा ये कोई नहीं जानता।
राजौरी के आतंक ने कल आगरा के डीजीसी बसंत गुप्ता के बेटे कैप्टन शुभम गुप्ता की जान ली है। अविवाहित शुभम की शहादत से पूरा आगरा विचलित है, लेकिन हमारे नेताओं का दिल नहीं पिघला। 29 साल के शुभम को 2018 में ही कमीशन मिला था। शुभम की तरह न जाने कितने शुभम धारा 370 हटने के बाद जम्मू-कश्मीर कि सुरक्षा करते हुए शहीद हो गए, लेकिन राजनीतिकरण वालों को उनकी कोई फिक्र नहीं है। सेना के अफसर और जवान होते ही शायद शहादत देने के लिए हैं। नेता तो केवल गाल बजाने के लिए पैदा हुए हैं। उनके पास तो आंसू तक नहीं होते, उलटे वे ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं का राजनीतिक इस्तेमाल कर लेते हैं।
मुझे नहीं लगता है कि आने वाले दिनों में भी कोई राजनीतिक दल जम्मू-कश्मीर की पीडा को राजनीतिक मुद्दा बनाकर अपने चुनावी घोषणा पत्र या संकल्प पत्र में शामिल करेगा। देश अब शायद जम्मू-कश्मीर के लिए धारा 370 की मांग न करे, लेकिन जम्मू-कश्मीर को जो दर्जा संविधान ने पूर्ण राज्य का दिया था, कम से कम वो तो वापस मिलना चाहिए। आजादी के अमृतकाल में किसी राज्य से उसकी कलगी छीनना एक बडा राजनीतिक कुकृत्य है। इसे रोका जाना चाहिए। जम्मू-कश्मीर में सिर्फ हिमाच्छादित पर्वत ही नहीं मनुष्य भी रहते हैं, आजादी उनका भी जन्मसिद्ध अधिकार है।