सावधान चुनावी जय-वीरू की जोडियों से

– राकेश अचल


मध्य प्रदेश विधानसभा के चुनाव, चुनाव न हुए शोले फिल्म हो गई। इस चुनाव में कांग्रेस के दिग्गज नेता दिग्विजय सिंह और कमलनाथ की जोडी को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जय-वीरू की जोडी क्या कहा, सचमुच उन्होंने अपने आपको इसी रूप में स्वीकार भी कर लिया और पलटकर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को चुनावी शोले फिल्म का ‘गब्बर सिंह’ कह दिया। मप्र के विधानसभा चुनावों में पहली बार अपने प्रतिद्वंदियों के लिए फिल्मी नायकों के नाम का इस्तेमाल किया जा रहा है।
आज से 48 साल पहले जब हम युवा थे तब शोले फिल्म बनी थी। आज की पीढी ने तो शोले देखी नहीं होगी, लेकिन शोले के संवाद सभी ने सुने हैं, क्योंकि वे सब सोशल मीडिया पर उपलब्ध हैं। शोले फिल्म आज भी जब परदे पर आती है तो अपने लिए दर्शक खोज ही लेती है। अपने नए पाठकों को बता दूं कि शोले एक भारतीय हिन्दी एक्शन फिल्म है, जो 1975 में रिलीज हुई थी। सलीम-जावेद द्वारा लिखी इस फिल्म का निर्माण जीपी सिप्पी ने और निर्देशन रमेश सिप्पी ने किया था। शोले की कहानी जय (अमिताभ बच्चन) और वीरू (धर्मेन्द्र) नामक दो अपराधियों पर केन्द्रित है। इस जोडी को डाकू गब्बर सिंह (अमजद खान) से बदला लेने के लिए पूर्व पुलिस अधिकारी ठाकुर बलदेव सिंह (संजीव कुमार) अपने गांव लाता है। जया भादुडी और हेमा मालिनी ने भी फिल्म में मुख्य भूमिकाएं निभाई हैं।
रजत पट की फिल्म शोले को भारतीय सिनेमा की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से एक माना जाता है। ब्रिटिश फिल्म इंस्टिट्यूट के 2002 के ‘सर्वश्रेष्ठ 10 भारतीय फिल्मों’ के एक सर्वेक्षण में शोले को प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था। 2005 में 50वें फिल्म फेयर पुरस्कार समारोह में इसे 50 सालों की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार भी मिला और आज भी मप्र विधानसभा के चुनावों में इस फिल्मी जोडी की तुलना वास्तविक जीवन में सक्रिय राजनीतिक पात्रों से किया जा रहा है। ये फिल्म की कहानी, पत्रों की सफलता है, किन्तु सियासत की भाषा, संवाद और पात्रों कि नाकामी है।
भाजपा ने दिग्विजय और कमलनाथ की जोडी को जय और वीरू की जोडी कहा तो खुद भाजपा के नेता नरेन्द्र सिंह तोमर ने कह दिया कि असली जय और वीरू तो वे और शिवराज सिंह चौहान हैं। उनकी और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की जोडी को जय और वीरू माना जाता है। एक जमाने में ये सच भी था। लेकिन सियासत के जय-वीरू कभी किसी गब्बर का खात्मा नहीं कर पाते। वे गब्बरों का या तो समर्पण करते हैं या उसे संरक्षण देते हैं या खुद गब्बर बन जाते हैं। दिग्विजय और कमलनाथ को जय-वीरू की जोडी कहना उनके साथ मजाक करने जैसा है, क्योंकि इस जोडी ने मप्र की राजनीति में 2018 के विधानसभा चुनाव से पहले कभी एक जोडी के रूप में काम नहीं किया। कमलनाथ हमेशा केन्द्र की राजनीति में सक्रिय रहे और दिग्विजय सिंह राज्य की राजनीति में, भले ही वे पार्टी के महासचिव बने हों या राज्यसभा के सदस्य।
कांग्रेस में दिग्गी और कमलनाथ कि जोडी के वजूद में आने का ही परिणाम था कि 2018 के विधानसभा चुनाव में 15 साल तक अखण्ड चली भाजपा की सरकार के पैर उखड गए थे और उसे सत्ता से बाहर होना पडा था। लेकिन बीहड हो या सियासत, सभी जगह बिभीषण होते हैं। 2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भाजपा के लिए बिभीषण बनकर कांग्रेस की जय-वीरू की चर्चित जोडी के हाथ से सत्ता छीन ली और भाजपा के गब्बर यानि शिवराज सिंह चौहान को सौंप दी। भाजपा के सत्ता में आने के बाद भी ज्योतिरादित्य सिंधिया और शिवराज सिंह चौहान को जय-वीरू की जोडी कि न पहचान मिल पाई और न सम्मान।
पिछले तीन साल में कांग्रेस के जय-वीरू तो लगातार मजबूत हुए हैं, लेकिन भाजपा के गब्बर सिंह के गिरोह में लगातार उथल-पुथल हो रही है। कहने को ये गिरोह सियासी है, लेकिन इसकी तुलना चंबल के उन गिरोहों से की जा रही है जो कभी इतिहास का अभिन्न हिस्सा थे। शिवराज सिंह चौहान के मुख्यमंत्रित्व काल में नरेन्द्र सिंह तोमर और शिवराज सिंह चौहान की जोडी जय और वीरू की जोडी की तरह चर्चित थी। तोमर चाहे शिवराज सिंह चौहान के कैबिनेट में मंत्री रहे हों या भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष दोनों में जबरदस्त केमिस्ट्री थी। ऐसी कैमिस्ट्री कि भाजपा के तमाम नेता तक उनसे ईष्र्या करने लगे थे। 2014 के बाद तोमर केन्द्र कि राजनीति में गए तो ये जोडी अपने आप टूट गई। शिवराज सिंह आपने लिए कोई नया वीरू नहीं खोज पाए।
राजनीती की चम्बल में तब से लेकर अब तक न जाने कितना पानी बह चुका है। शिवराज सिंह चौहान अब जय नहीं गब्बर सिंह बन गए हैं और अकेले दहाड रहे हैं। उनकी भूमिका अब गब्बर मामा की हो गई है। वे अब राखियां बंधवा कर सत्ता में टिके रहना चाहते हैं, जबकि दिग्गी और कमलनाथ की जोडी जैसी 2018 में थी वैसी ही आज 2023 में भी है और पहले से कहीं ज्यादा मजबूत है। जय-वीरू की इस कांग्रेसी जोडी ने भाजपा के पूरे गिरोह की नींद उडा रखी है। आखिर में हारकर गब्बर को ही किनारे करने की कोशिश करने वाले भाजपा के असली जय-वीरू यानि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह को मप्र में ताबडतोड मेहनत करना पड रही है। मोदी-शाह की जोडी के सामने असली चुनौती 2023 में सियासी शोले फिल्म को पिटने से बचाने की है।
कांग्रेस की जय-वीरू की जोडी ने जनता को लूटने के बजाय लुटाने का ऐसा जोरदार वचनपत्र लिखा है कि उसके सामने भाजपा के गब्बर सिंह की तमाम घोषणाएं मौथरी पडती दिखाई दे रहीं है। जनता गब्बर सिंह पर भरोसा करने से कतरा रही है। आखिर गब्बर तो गब्बर होता है, उसे साधू मानना आसान काम नहीं है। गब्बर का आतंक कहें या लोकप्रियता अब अर्स से फर्श पर आती दिखाई दे रही है। लेकिन चुनाव में आ मजा रहा है। विधानसभा के चुनाव में यदि जय-वीरू का जिक्र न हुआ होता तो चुनाव बडा बेरौनक हो जाते। क्योंकि इस चुनाव के तम्मा रंग पहले से उडे हुए है। सत्तारूढ भाजपा ने अपने तीन केन्द्रीय मंत्री और आधा दर्जन सांसद और एक राष्ट्रीय महामंत्री को मैदान में उतार कर पहले ही पराजय स्वीकार कर ली है।
मुझे याद है कि पहले किस विधानसभा चुनाव में कोई फिल्मी किरदार नजीर नहीं बनता था। सियासत में हमारे नायक महाभारत या रामचरित मानस से लिए जाते थे। कोई राम-लक्ष्मण की जोडी होती थी तो कोई कृष्ण-अर्जुन की जोडी। कहीं चाणक्य होते थे, तो कहीं द्रोणाचार्य। लेकिन अब सब बदल गया है। अब पौराणिक आख्यानों का नहीं, फिल्मी आख्यानों का सहारा लिया जाने लगा है। अब सियासी संवाद भी बदल गए हैं। मप्र में अब विकास का मतलब बकौल डॉ. नरोत्तम मिश्रा- हेमा मालिनी का नचवाना होता है। जिस नेता ने अपने चुनाव क्षेत्र में हेमा मालिनी को नचवा लिया उसे ही असली गब्बर सिंह कहा और माना जाना चाहिए। कम से कम दतिया को तो ये सौभाग्य मिला हुआ है। दतिया से विधायक और प्रदेश के गृहमंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा तो सार्वजनिक रूप से अपनी उपलब्धियों में हेमा मालिनी के नाच को गिनवा ही चुके हैं।
मेरे ख्याल से देश की सियासत में जय-वीरू की पहली जोडी अटल-आडवाणी की थी। बाद में देश के अनेक राज्यों की सियासत में जय-वीरू और गब्बर सिंह पैदा हुए हैं। उन्हें पहचानने की जरूरत है। भविष्य में भी लगता है कि राजनीति में ये जय-वीरू और गब्बर सिंह ही महत्वपूर्ण किरदार अदा करेंगे। ये या तो हेमा मालिनी को नचवाएंगे या फिर बंदूक की गोलियां चलकर जनता को आतंकित करेंगे। इसलिए सावधान!