बिहार में जनादेश से पहले रार

– राकेश अचल


और वही हुआ जिसकी आशंका थी, बिहार विधानसभा चुनाव से पूर्व मतदाता सूचियों के पुनरीक्षण में मनमानी का मामला देश की सबसे बडी अदालत में पहुंच गया, उसी बडी अदालत में जहां पहले से बेहद जरूरी मामलों में सुनवाई के बाद फैसले सुनाने के बजाय सुरक्षित रख लिए गए हैं। ये मामला 9 जुलाई को जनता की अदालत में भी विपक्षी इंडिया गठबंधन की ओर से पेश किया जा रहा है।
ताजा खबर ये है कि एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफार्म (एडीआर) ने बिहार में विधानसभा चुनाव से पहले विशेष गहन पुनरीक्षण अभियान कराने के फैसले को देश की सबसै बडी अदालत में चुनौती दी है। संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत दायर जनहित याचिका में चुनाव आयोग के एसआईआर के फैसले पर तत्काल रोक लगाने की मांग की गई है। याचिका में कहा गया है कि चुनाव आयोग ने नागरिकता साबित करने के लिए ऐसे दस्तावेजों की मांग की है, जिसके कारण कई लोग मतदान करने के वंचित हो सकते हैं।
आपको याद हो कि चुनाव आयोग ने मतदाता पुनरीक्षण के लिए जो शर्तें लगाईं हैं, उन्हें देखकर लग रहा है कि केंचुआ मतदाता सूचियों के पुनरीक्षण की आड में बिहारी मतदाओं की नागरिकता की जांच करना चाहता है। बिहार में विधानसभा चुनाव से पहले चुनाव आयोग के मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) कराने के फैसले को लेकर विपक्षी दल लगातार सवाल उठा रहे हैं। चुनाव आयोग के इस फैसले के खिलाफ विपक्षी दलों का प्रतिनिधि मण्डल मुख्य चुनाव आयुक्त के समक्ष अपनी चिंता जाहिर कर चुका है। लेकिन चुनाव आयोग साफ कर चुका है कि यह मामला पूरी तरह पारदर्शी है।
एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफार्म (एडीआर) ने संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत दायर जनहित याचिका में चुनाव आयोग के एसआईआर के फैसले पर तत्काल रोक लगाने की मांग की है। याचिका में कहा गया है कि चुनाव आयोग ने नागरिकता साबित करने के लिए ऐसे दस्तावेजों की मांग की है, जिसके कारण कई लोग मतदान करने के वंचित हो सकते हैं। साथ ही आयोग के फैसला संविधान के अनुच्छेद 14, 19, 21, 325 और 326 को उल्लंघन करता है। यही नहीं, आयोग के फैसला जनप्रतिनिधित्व कानून 1950 की धारा 21(ए) और मतदाता पंजीकरण कानून 1960 के खिलाफ है।
फिलहाल बिहार में पहले से मौजूद मतदाताओं को अब नागरिकता का सबूत देना होगा। सबसे अधिक चिंता की बात है कि आयोग ने आधार कार्ड, राशन कार्ड और अन्य दस्तावेजों को सबूत के तौर पर मानने से इंकार कर दिया है। इस फैसले के कारण राज्य के करोड़ों गरीब लोग मतदान से वंचित हो जाएंगे।
एडीआर की ओर से दायर याचिका में कहा गया है कि मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण कराने के फैसले का ठोस कारण नहीं बताया। जनप्रतिनिधित्व कानून 1950 की धारा 21(3) के तहत चुनाव आयोग को ठोस कारण के आधार पर विशेष पुनरीक्षण करने का अधिकार है। लेकिन बिहार के लिए आयोग ने कोई ठोस कारण नहीं बताया है। याचिका में कहा गया है कि चुनाव आयोग ने अक्टूबर 2024 से जनवरी 2025 तक मतदाता सूची का आंशिक समीक्षा की और इसमें व्यापक पैमाने पर गड़बड़ी की बात सामने नहीं आई।
बिहार में गरीबी और पलायन एक बड़ा मुद्दा है। बड़ी आबादी के पास जन्म प्रमाण पत्र या अपने माता-पिता के रिकार्ड जैसे आवश्यक दस्तावेज नहीं हैं। ऐसे में शीर्ष अदालत को तत्काल इस मामले में दखल देने की आवश्यकता है। लेकिन मुझे नहीं लगता कि बडी अदालत इस मामले में फौरन कोई दखल देगी। अब बिहार के विपक्षी गठबंधन और जन अदालत ही केंचुआ को मजबूर कर सकती है। 9 जुलाई को विपक्ष सडकों पर आ रहा है। बचाव में सत्तापक्ष भी मोर्चा लेगा, केंचुआ को अकेला नहीं छोडने वाला, क्योंकि केंचुआ ने इतना बडा जोखिम सत्ता प्रतिष्ठान के आदेश पर ही लिया है। स्व. टीऐन शेषन ने केंचुआ को जो प्रतिष्ठा दिलाई थी उसे संघप्रिय मौजूदा केन्द्रीय मुख्य चुनाव आयुक्त ने मिट्टी में मिला दिया है। अब तेल देखिए और तेल की धार देखिए। केंचुआ झुकता है, हठधर्मिता दिखाता है या कोबरा की खाल ओढे बैठा रह सकता है।