– राकेश अचल
देश की राजधानी दिल्ली में विधानसभा चुनाव के लिए चुनाव प्रचार थम चुका है। आप जब ये पंक्तियां पढ रहे होंगे तब दिल्ली की जनता अपने मताधिकार का प्रयोग कर रही होगी। दिल्ली में इस बार विधानसभा चुनाव दिलचस्प हैं, क्योंकि इस बार दिल्ली में ‘सत्ता के छींके’ पर तमाम बिल्लियों की नजर है। अब देखना ये है कि भाजपा बिना योगी आदित्यनाथ के दिल्ली में सत्ता का छींका अपने कब्जे में कर पाती है या नहीं। महाकुम्भ की वजह से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ दिल्ली विधानसभा चुनाव प्रचार में हिस्सा नहीं ले पाए हैं।
दिल्ली विधानसभा का चुनाव इस बार दिलचस्प इसलिए है क्योंकि इसमें जो दोस्त थे, वे दोस्त नहीं रहे और जो दुश्मन थे वे एक न होकर भी एक साथ सत्तारूढ आम आदमी पार्टी पर हमलावर हैं। दिल्ली विधानसभा का चुनाव इस बार आम आदमी पार्टी के साथ ही भाजपा और कांग्रेस के लिए भी नाक का सवाल बना हुआ है। भाजपा यदि चुनाव नहीं जीतती तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कथित लोकप्रियता पर बट्टा लग जाएगा। कांग्रेस चुनाव नहीं जीतती तो कांग्रेस के नेता राहुल गांधी एक अकुशल योद्धा साबित हो जाएंगे और आम आदमी पार्टी यदि सत्ताच्युत होती है तो अरविंद केजरीवाल का शीराजा बिखर जाएगा। इस चुनाव में परीक्षा मैनेजमेंट, मशीन और मशीनरी की भी होना है।
मेरा अपना आंकलन है कि इस बार कोई जीते या न जीते, लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री अरवविंद केजरीवाल नहीं जीतने वाले। भाजपा ने उन्हें हारने के लिए वो ही फार्मूला इस्तेमाल किया है जो 2019 के लोकसभा चुनाव में मध्य प्रदेश के तत्कालीन श्रीमंत ज्योतिरादित्य सिंधिया को हारने के लिए किया गया था। सिंधिया मप्र में अजेय माने जाते थे। अरविंद केजरीवाल को हराए बिना भाजपा दिल्ली जीत भी नहीं सकती। उन्हें भाजपा और कांग्रेस दोनों ने घेर लिया है। वे दोहरे चक्रव्यूह में फंसे अभिमन्यु हैं। उन्हें ये चक्रव्यूह भेदना आता है, लेकिन शायद ही वे कामयाब हो पाएं। इस चुनाव में टीम केजरीवाल के तीन प्रमुख योद्धाओं की शामत आने वाली है, ये हैं पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, मुख्यमंत्री आतिशी मेम, पूर्व उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया। ये तीनों हारे और आम आदमी पार्टी जीत भी गई तो कोई मतलब नहीं है।
दिल्ली में फैसला उन अल्पसंख्यकों के हाथों में है जो पिछले 44 साल से भाजपा के निशाने पर हैं। दिल्ली में विधानसभा चुनाव के मतदान से दो दिन पहले प्रमुख राजनीतिक दलों, खासकर सत्तारूढ आम आदमी पार्टी और कांग्रेस की नजरें मुस्लिम बहुल मानी जाने वाली करीब 22 सीटों पर टिकी हैं। इनमें से पांच सीट सीलमपुर, मुस्तफाबाद, मटिया महल, बल्लीमारान और ओखला सीट से अक्सर मुस्लिम उम्मीदवार ही विधानसभा पहुंचते रहे हैं, भले ही वे किसी भी दल से हों।
दिल्ली में बाबरपुर, गांधीनगर, सीमापुरी, चांदनी चौक, सदर बाजार, किराडी, जंगपुरा व करावल नगर समेत 18 सीट ऐसी हैं, जहां मुस्लिम आबादी 10 से 40 फीसदी मानी जाती है और इन क्षेत्रों में मुस्लिम समुदाय निर्णायक भूमिका अदा करता रहा है। साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, दिल्ली में मुस्लिम आबादी करीब 13 फीसदी थी। जानकार मानते हैं कि इस बार मुस्लिम मतदाता सत्तारूढ ‘आप’ और कांग्रेस को लेकर असमंजस में है। चुनाव से ठीक पहले संसद के बजट सत्र में मुस्लिम वक्फ बोर्ड को लेकर जो कुछ हो रहा है, उसका असर भी दिल्ली विधानसभा चुनाव पर पडने वाला है। प्रयागराज के महाकुम्भ में भगदड में हुई मौतें भी दिल्ली के मतदाता को प्रभावित कर सकती हैं। आम बजट और दिल्ली में भाजपा के पास योगी आदित्यनाथ की अनुपस्थिति भी एक बडा कारक होने वाली है। मतदान के दिन संगम में प्रधानमंत्र की प्रस्तावित डुबकी भी अंतिम अस्त्र साबित हो सकती है। हालांकि प्रधानमंत्री यदि गंगा की बजाय यमुना में डुबकी लगते तो शायद उन्हें ज्यादा पुण्य फल मिलता।
दिल्ली विधानसभा चुनाव में इस बार यमुना, जहर शराब के अलावा अजा, जजा और पिछडावर्ग भी एक चुनावी मुद्दा रहा है। केन्द्रीय संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देश का सबसे बडा ओबीसी नेता बता चुके हैं। अब देखना है कि किरेन कीबात सच साबित होती है या नहीं। दिल्ली विधानसभा की चुनाव हालांकि बहुत छोटा चुनाव है, किन्तु इस चुनाव ने सभी दलों और नेताओं को दिन में ही तारे दिखा दिए हैं। ये चुनाव महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों से भी ज्यादा दिलचस्प हो गए हैं। भाजपा को दिल्ली में दिया तले का अंधेरा दूर करना है और कांग्रेस को दिल्ली जीतना नहीं है, केवल अरविंद केजरीवाल को सबक सिखाना है, क्योंकि केजरीवाल ने विपक्षी एकता में सेंध लगाने का पाप किया है। अब दीखिये 8 फरवरी को कौन सा दल और किस दल के नेता बसंत मनाते हैं?