इक सुन्दर सपना आखिर टूट ही गया

– राकेश अचल


सपनों का टूटना मनुष्य जीवन का सबसे दुखद पहलू है। ईश्वर ने मनुष्य को ये सुविधा दी है कि वो सोते-जागते स्वप्न देखे, उन्हें साकार करे, उन्हें टूटने न दे, लेकिन कहते हैं कि ईश्वर एक हाथ से वरदान देता है तो दूसरे हाथ से उसे छीन भी लेता है। सबसे बड़ा उदाहरण ‘भस्मासुर’ का है। 44 साल पहले रामजी का नाम लेकर गठित भाजपा के तत्कालीन नेतृत्व का ही नहीं बल्कि मौजूदा नेतृत्व का भी एक ही सुन्दर सपना था कि देश कांग्रेस-विहीन हो जाए, लेकिन 2024 के आम चुनाव में भाजपा का ये सुन्दर सपना बुरी तरह से टूट गया है। देश कांग्रेस विहीन तो नहीं हुआ उलटे कांग्रेस के हिस्से में लोकसभा के विपक्ष के नेता का पद और आ गया।
भाजपा के इस सुन्दर सपने में रंग भरने के लिए भाजपा के छोटे से लेकर हर बड़े कार्यकर्ता ने हाड़-तोड़ श्रम किया। लालकृष्ण आडवाणी से लेकर अटल बिहारी बाजपेयी तक इसमें लगे रहे, किन्तु आक्रामकता और स्पष्ट लक्ष्य के साथ मोशा की जोड़ी आगे बढ़ी। इस जोड़ी ने 2014 में कांग्रेस को जमीन पर ला पटका, लेकिन 2019 के आम चुनाव ने फिर से अंगड़ाई ली और उठ खड़ी हुई। 2024 के आम चुनाव में तो कांग्रेस ने कमाल ही कर दिया। आज कांग्रेस के पास सत्ता का नेतृत्व तो नहीं है, लेकिन एक मजबूत विपक्ष का नेतृत्व अवश्य है।
भाजपा का सपना टूटते देख मुझे वेदना होती है। किसी का भी सपना टूटते देख मैं द्रवित हो जाता हूं। भाजपा के मामले में तो मुझे रामचरित मानस की वो चौपाई अक्सर याद आ जाती है-
जस-जस सुरसा बदन बढ़ावा।
तासु दून कपि रूप दिखावा।।
भाजपा ने पिछले एक दशक में कांग्रेस को मिट्टी में मिलाने के सौ जतन किए, लेकिन कांग्रेस मरी नहीं, मिटी नहीं। कांग्रेस एक कोशीय अमीबा की तरह मर-मरकर जीवित होती रही। कांग्रेस के मौजूदा नेता राहुल गांधी ने भाजपा के एक दशक के शासनकाल में सबसे ज्यादा सहा। मुकद्दमें झेले, संसद की सदस्यता गंवाई, फिर अदालत के हस्तक्षेप से वापस पाई। सरकारी मकान छोड़ा। 18-18 घण्टे तक जांच एजेंसियों के सामने बैठकर पूछताछ का सामना किया। भाजपा की सरकार लेकिन राहुल गांधी को जेल नहीं भेज पाई। जबकि उसके लिए ऐसा करना बहुत कठिन नहीं था। आज स्थिति ये है कि राहुल तमाम अग्नि परीक्षाओं को उत्तीर्ण कर कुंदन की तरह बाहर निकले हैं। आज संसद में वे लोकसभा अध्यक्ष, सदन के नेता के बाद तीसरे नंबर पर जब खड़े होते हैं तो कांग्रेस को नेस्तनाबूद करने का सपना देखने वालों की नजरें शर्म से नीचे झुक जाती हैं।
कांग्रेस का इस देश से पुराना नाता है, भाजपा से भी रिश्तेदारी किए देश को आधी सदी होने वाली है। भाजपा भी, कांग्रेस की तरह एक विचारधारा की पोषक पार्टी है। देश में पहले भी विचार धाराओं पर आधारित कैडर वाले राजनीतिक दल हुए हैं, लेकिन कांग्रेस और भाजपा के विचरों जैसी पुख्तगी किसी और दल में नजर नहीं आती। एक जमाने में सबसे मजबूत विचार देने वाले वामपंथी भी आज हासिये पर हैं। वे कांग्रेस की तरह उठ खड़े होने में कामयाब नहीं हुए, हालांकि उन्होंने आज भी अपना रास्ता नहीं छोड़ा और वे आज भी साम्प्रदायिकता के खिलाफ हर लड़ाई में बराबर से खड़े नजर आते हैं।
सवाल ये है कि अब जब कांग्रेस पहले से दोगुनी ताकत के साथ अपने सहयोगियों के साथ लोकसभा में मौजूद है तो भाजपा के कांग्रेस विहीन सपने का क्या होगा? क्या आने वाले पांच साल में सत्तारूढ़ भाजपा अपने सहयोगी दलों कि साथ देश को कांग्रेस विहीन करने कि अभियान में फिर जुटेगी? भाजपा कि लिए कांग्रेस को नेस्तनाबूद करने की लड़ाई अब तक जितनी आसान रही उतनी भविष्य में शायद न हो, क्योंकि उसके प्रमुख सहयोगी दल तेलगू देशम पार्टी और जनता दल यूनाइटेड ने कभी देश को कांग्रेस विहीन करने का न नारा दिया और न ही ऐसे किसी अभियान का हिस्सा बनी। मौका आने पर ये दोनों दल कांग्रेस के साथ खड़े नजर आए। भविष्य में भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि ये दोनों दल आगे भी भाजपा का साथ निभाएंगे?
हकीकत ये है कि इस देश को आजादी से पहले भी कांग्रेस की जरूरत थी और आजादी कि बाद भी जरूरत रही। ये बात और है कि महात्मा गांधी ने आजादी मिलने के बाद कांग्रेस को भंग करने की बात कही थी। महात्मा गांधी का मन न रखकर कांग्रेस के नेताओं ने हालांकि ठीक नहीं किया, कांग्रेसी भी जनसंघ की तरह कांग्रेस का कोई दूसरा नाम रखकर काम चला सकते थे, लेकिन जो नहीं होना होता, सो नहीं होता। कांग्रेस एक शताब्दी से ज्यादा समय के बाद देश सेवा में उसी तरह सन्नद्ध है जैसे कि भाजपा आज है। भाजपा को कांग्रेस राष्ट्रद्रोही लगती है ये और बात है। जिस दिन भाजपा की मान्यता को इस देश की जनता की मान्यता भी मिल जाएगी, उस दिन कांग्रेस समाप्त हो जाएगी। किन्तु ये दिन शायद कभी आएगा नहीं।
लोकसभा में अध्यक्ष के चुनाव के समय कांग्रेस ने एक बार फिर गाम्भीर्य के साथ ही अपनी राजनीतिक परिपक्वता का मुजाहिरा किया। कांग्रेस यानि इण्डिया गंठबंधन ने आपने प्रत्याशी के. सुरेश के नाम की घोषणा के बाद मतदान की जिद नहीं की। लोकसभा अध्यक्ष का सर्वसम्मत चुनाव करने के लिए सत्तारूढ़ भाजपा और उसके गठबंधन ने कांग्रेस और आईएनडीआईए का आभार मानने के बजाय चुनाव के तुरंत बाद अपना असली रंग दिखा दिया। लोकसभा के नवनिर्वाचित अध्यक्ष ने जिस तरह से नवनिर्वाचित सदस्यों को हडक़ाने की कोशिश की उससे जाहिर है कि भाजपा के नेताओं, प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष की चाल, चरित्र और चेहरे में कोई बदलाव नहीं आया है। वे लोकतंत्र की गरिमा का ख्याल रखने के लिए तैयार नहीं हैं। नवनिर्वाचित लोकसभा अध्यक्ष भूल रहे हैं कि उनके सामने जो विपक्ष है वो कुम्हण बतियां नहीं है जो किसी की तर्जनी देखकर कुम्हला जाएगा। लोकसभा अध्यक्ष के साथ जनादेश से आए एक नहीं सैकड़ों लक्ष्मण खड़े हैं जो राउर (विपक्ष के नेता) का अनुशासन (आज्ञा) पाकर पूरी लोकसभा को गेंद के समान अपने हाथों पर उठा सकते हैं।
बैशखियों के सहारे खड़ी भाजपा सरकार के लिए अवसर है कि वो देश की जनता की आकांक्षाओं को समझे और समन्वय के साथ सरकार चलाए। विपक्ष को लोकसभा के उपाध्यक्ष का पद सहर्ष सौंपे। दुनिया में देश की पहचान को धब्बा लगाने के लिए कीचड़ में खड़े होकर सियासत करना ठीक नहीं है, देश को अदावत की राजनीति से मुक्ति चाहिए। यदि ऐसा न हुआ तो अगले चुनाव में देश की जनता अपना निर्णय फिर बदल सकती है। अभी उसने भाजपा से उसका कवच-कुण्डल छीना है, मुमकिन है कि भविष्य में वो उससे सब कुछ छीन ले। अभी भी मौका है कि भाजपा का मौजूदा नेतृत्व श्रीमदभागवत गीता के बजाय श्रीमद मोहन भागवत की हिदायतों को ध्यान में रखकर अहंकार त्याग दे, अन्यथा भाजपा का भविष्य कंटकीर्ण ही बना रहने वाला है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ बार-बार हथेली नहीं लगा पाएगा भाजपा को गिरने से बचने के लिए। आखिर संघ को भी भाजपा ने तनखैया बना दिया है।