मप्र मोहन संहिता का अनुकरणीय पाठ

– राकेश अचल


सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ लिखने का दायित्व मिला है, इसलिए सत्ता प्रतिष्ठान के फैसलों की तारीफ करने के अवसर कम ही मिलते हैं। खासतौर पर जब कि किसी प्रदेश की सत्ता में डबल इंजिन लगे हों। मप्र में आज-कल डबल इंजिन की ही सरकार है और इस सरकार को चला रहे हैं डॉ. मोहन यादव, जो पहली बार मुख्यमंत्री बने हैं। उनके सामने 18 साल से ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चौहान द्वारा खींची गई लोकप्रियता की लम्बी लकीर से आगे जाने की चुनौती भी है।
लोकसभा चुनाव से फारिग होते ही मप्र की मोहन सरकार ने एक फैसला किया है कि अब प्रदेश सरकार मंत्रियों के आयकर की राशि नहीं भरेगी, बल्कि मंत्रियों को खुद भरना पड़ेगी। आर्थिक बोझ के कारण दोहरे हो रहे मध्य प्रदेश में ये एक साहसिक कदम है, हालांकि इससे प्रदेश की अर्थ व्यवस्था की सेहत पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा। लेकिन पहल तो पहल होती है और ये पहल अनुकरणीय कही जा सकती है। क्योंकि अभी तक देश की विधानसभाएं हों या संसद सभी के सदस्य सरकार पर बोझ बढ़ाते ही हैं, कम नहीं करते।
जब से मप्र का गठन हुआ है तब से यानी कोई 52 साल से अपने मंत्रियों के आयकर की राशि प्रदेश की सरकार ही भरती आ रही थी। आज से पहले चाहे कांग्रेस की सरकार रही हो या भाजपा की या किसी गठबंधन की सरकार, किसी ने इस व्यवस्था से छेड़छाड़ करने की जरूरत नहीं समझी। लेकिन किसी ने मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव को ये जरूरत समझा दी। मोहन यादव ने इस फैसले से मिलने वाली वाह-वाही का अंदाजा लगते ही 52 साल बाद ये फैसला कर दिखाया। अब आप इसे ऐतिहासिक फैसला कह सकते हैं। अभी मप्र में मुख्यमंत्री और मंत्रियों का इनकम टैक्स सरकार भरती थी। इस पर करोड़ों रुपए का खर्च आता था।
मप्र के मुख्यमंत्री हालांकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के गोत्र के नहीं हैं। प्रधानमंत्री का गोत्र गरीबों का गोत्र है। उनके पास बहुत ज्यादा संपत्ति भी नहीं है। वे चाय बेचते हुए सियासत में शीर्ष तक पहुंचे हैं, किन्तु मुख्य्मंत्री डॉ. मोहन यादव आमीर आदमी हैं। उनके पास कोई 42 करोड़ रुपए की संपत्ति है। ये संपत्ति उनकी खानदानी संपत्ति हैं या इसे उन्होंने खुद अर्जित किया है इसके बारे में मुझे कुछ नहीं पता, लेकिन उनके ऊपर नौ करोड़ का कर्ज भी है। इसलिए वे प्रदेश सरकार और जनता के ऊपर पडऩे वाले कर्ज के बोझ की तकलीफ को शायद समझते हैं।
मप्र सरकार के इस फैसले से सरकार कितना पैसा बचा लेगी इसकी जानकारी फिलहाल नहीं दी गई है। इस फैसले को आप कह सकते हैं कि ये फैसला किसी मुर्दे की मूंछ उखाडऩे से मुर्दे का वजन कम करने कि कोशिश जैसा है। लेकिन एक कोशिश तो है वजन कम करने की। कम से कम मोहन यादव ने इस बारे में सोचा और फैसला भी किया, अन्यथा मंत्री हों या विधायक सरकार को ज्यादा से ज्यादा तूप लेने में विश्वास रखते हैं। मंत्रियों को जनसेवा के बदले सब कुछ तो फोकट में मिलता है। घर, कार, ड्रायवर, बिजली, फोन, पेट्रोल, दवा-दारू, विधायक के नाते अपने क्षेत्र में दौरा करने का भत्ता, सर्किट हाउस में नि:शुल्क रहने की सुविधा और न जाने क्या-क्या? ये केवल मप्र की ही बात नहीं है बल्कि समूचे देश की बात है। इस बारे में सोचे जाने की जरूरत है। अच्छी बात ये है कि आधी सदी बाद ही सही लेकिन सरकार ने इस दिशा में न सिर्फ सोचा बल्कि फैसला करने का साहस भी दिखाया।
मप्र के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव नसीब से मुख्यमंत्री बने हैं। विधानसभा चुनाव के बाद इस पद के लिए उनका नाम दूर-दूर तक नहीं था, लेकिन उन्हें मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा के मोशा जोड़े ने उन्हें अवसर दिया कि वे प्रदेश की सेवा करने के साथ अपनी संपत्ति को 42 करोड़ से 84 करोड़ तक कर लें (यदि कर सकते हों तो), सत्ता में आने के बाद डॉ. मोहन यादव की सरकार ने पहला प्रगतिशील लगने वाला फैसला किया है। उन्हें ऐसे अनेक फैसले लेना होंगे, तब कहीं जाकर वे प्रदेश से शिवराज सिंह चौहान की छाया से मुक्ति पा सकेंगे। संयोग देखिए कि उनके पहले के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह अब केन्द्र में कृषि मंत्री हैं और उनका तामझाम पहले से कुछ ज्यादा हो गया है। ऐसे में प्रदेश सरकार से उनकी छाप को समाप्त करना आसान काम नहीं है।
मोहन यादव के सामने एक नहीं अनेक चुनौतियां हैं। हाल ही में प्रदेश की आर्थिक राजधानी इंदौर में भाजपा के एक कार्यकर्ता की हत्या कि घटना से प्रदेश में कानून और व्यवस्था की जर्जर स्थिति का पता चला है। इंदौर में पुलिस कमिश्नर प्रणाली है, लेकिन इसके बावजूद इस शहर की कानून और व्यवस्था में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ है। इंदौर ने गंदगी से मुक्ति पा ली है किन्तु गुण्डागर्दी से मुक्ति नहीं पा सका है। कमोवेश यही हालत प्रदेश के दूसरे बड़े शहरों की है। यदि प्रदेश की कानून और व्यवस्था की दशा में सुधर न हुआ तो न इस प्रदेश में पूंजी निवेश बढ़ेगा और न पर्यटन। सरकारी जमीनों पर कब्जे और अवैध उत्खनन के धंधे ने तो अब नए सिरे से सर उठाना शुरू कर दिया है। भाजपा के 18 साल के शासन में अवैध उत्खनन का धंधा समानांतर सत्ता की तरह मजबूत हो चुका है। प्रदेश में हर तरह का माफियाराज है। केवल अवैध उत्खनन ही नहीं, प्रतियोगी परीक्षाओं के पेपर लीक करने, नकल करने और मेडिकल तथा नर्सिंग कालेज खोलने में जालसाजी करने वाला माफिया।
मप्र के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव की कमजोरी ये है कि वे मौलिकता पर कम, नकल पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। वे सीमावर्ती उत्तर प्रदेश की नकल कर मप्र में भारतीय दण्ड संहिता (जो एक जुलाई से भारतीय न्याय संहिता हो जाएगी) के बजाय बुलडोजर संहिता चलाना चाहते हैं। बुलडोजर संहिता से यदि किसी सूबे की कानून और व्यवस्था सुधरती तो कब की सुधर गई होती। उलटे उप्र में बुलडोजर संहिता का नुक्सान लोकसभा चुनाव में भाजपा को उठाना पड़ा है। डॉ. मोहन यादव को इससे सबक लेना चाहिए, न कि इसका अनुशरण करना चाहिए। आपको बता दूं कि हमारे सूबे के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने उप्र की नकल करते हुए सबसे पहले पूजा घरों से लाउड स्पीकर उतरवाने का आदेश दिया था।
मप्र देश का हृदय प्रदेश है और हृदय की देखभाल के लिए विशेषज्ञता की जरूरत है। मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी है कि वे अकेले उज्जैन के बारे में न सोचें। इंदौर के बारे में न सोचें। वे भोपाल, जबलपुर और ग्वालियर के बारे में भी सोचें। ग्वालियर तो एक तरह से अनाथ शहर है। यहां एक नहीं बल्कि दर्जनों विकास कार्य अधूरे लटके हैं। कुछ तो स्थानीय महाराज की जिद की वजह से रुके पड़े हैं। शहर में बस अड्डे हैं, लेकिन लोकल बस सेवा नहीं है। शहर के पास देश का सबसे महत्वपूर्ण किला है लेकिन उस पर चढऩे के लिए रोप-वे नहीं है। जबकि भोपाल, मैहर यहां तक कि देवास तक में छोटी-छोटी पहाडिय़ों पर चढऩे के लिए रोप-वे हैं। ग्वालियर के तमाम सांसद और विधायक पिछले दो दशक से रोप-वे के निर्माण में बाधा बनकर खड़े राजघराने को समझा नहीं पा रहे हैं। ग्वालियर में विशेष क्षेत्र प्राधिकरण है किन्तु वो तीस साल में भी नया शहर नहीं बसा पाया है।
बहरहाल मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने मंत्रियों के आयकर न भरने के फैसले से उम्मीद तो बंधाई है कि वे भविष्य में प्रदेश की सामंतशाही से भी मुकाबला करने में समर्थ होंगे। यदि वे प्रदेश की सियासत को सामंतशाही से मुक्त कारा पाए तो मुमकिन है कि उनका नाम भी शिवराज सिंह चौहान की तरह लम्बे समय तक याद किया जाए, अन्यथा मुख्यमंत्री तो वीरेन्द्र कुमार सखलेचा भी थे, सुंदरलाल पटवा भी थे, कैलाश जोशी भी थे, उमा भारती भी थीं और मोतीलाल वोरा भी थे। किसे, कितना याद किया जाता है?