फिर तो देश को दिल्ली की क्या जरूरत है?

– राकेश अचल


और अंतत दिल्ली अध्यादेश विधेयक लोकसभा में पारित हो गया। जाहिर है कि इसे पारित होना ही था। मैं पहले ही कह चुका था कि संख्या बल के साथ ही ध्वनिमत सरकार के साथ है, इसलिए इस विधेयक को पारित होने से कोई नहीं रोक सकता, भगवान भी नहीं। अब दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल में कूबत है तो वे इस विधयेक के खिलाफ दिल्ली और देश की सडकों पर लडें, लेकिन वे भी जानते हैं कि ये लडाई आसान नहीं है। केजरीवाल ट्विटर की दीवार पर लड रहे हैं, जो कि सही मंच नहीं है। उन्होंने भाजपा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर निशाना साधा, ट्वीट करते हुए कहा कि हर बार भाजपा ने वादा किया कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देंगे। 2014 में प्रधानमंत्री मोदी ने खुद कहा कि प्रधानमंत्री बनने पर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देंगे, लेकिन आज इन लोगों ने दिल्ली वालों की पीठ में छुरा घोंप दिया, आगे से उनकी किसी बात पर विश्वास मत करना।
केजरीवाल बडे भोले हैं, उनका भोलापन देश ने देखा है। देश ने दिल्ली विधेयक पर देश के गृहमंत्री अमित शाह को भी बोलते देखा है। मैंने भी उन्हें बोलते हुए सुना और मुझे हंसी भी आई, जब उन्होंने कहा कि ‘सेवाएं हमेशा केन्द्र सरकार के पास रही हैं। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की एक व्याख्या दी…, उलाहना भी दिया कि 1993 से 2015 तक किसी भी मुख्यमंत्री ने लडाई नहीं लडी। कोई लडाई नहीं हुई, क्योंकि जो भी सरकार बनी उनका उद्देश्य लोगों की सेवा करना था। लडने की कोई जरूरत नहीं है। अगर जरूरत है तो सेवा करने की लेकिन अगर उन्हें सत्ता चाहिए तो वे लडेंगे।’
अक्सर मैं शाह साहब से सहमत नहीं होता, लेकिन आज हूं। मेरा कहना है कि जब सेवाएं हमेशा से केन्द्र के पास रही हैं, तो दिल्ली को विधानसभा देने की भी क्या जरूरत है? विधानसभा भी भंग कर दीजिए, जैसी कि जम्मू-कश्मीर की। खामखां दिल्ली के सिर पर सरकार नाम का खर्च लाद रखा है। न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी। देश में जैसे दूसरे केन्द्र शासित क्षेत्रों में केन्द्र सरकार सेवाएं दे रही है वैसे ही दिल्ली को भी दे देगी। मैं तो कहता हूं कि केन्द्र सरकार को संसद के इसी सत्र में एक और विधेयक लाकर मणीपुर विधानसभा को भी भंग कर वहां केन्द्र शासित क्षेत्र बना देना चाहिए, क्योंकि राज्य में डबल इंजन की सरकार भी एक बोझ है। उसके बूते कुछ है ही नहीं। तीन महीने से मणिपुर आखिर जल ही रहा है।
दरसल संसद अब बहस का नहीं, बल्कि निशानेबाजी का अड्डा हो गई है। सब एक-दूसरे पर निशाना साधते दिखाई देते हैं, सत्ता पक्ष विपक्ष पर, विपक्ष सत्ता पक्ष पर। केजरीवाल शाह पर और शाह केजरीवाल पर। मुद्दों पर निशाना कोई नहीं साधना चाहता। मुद्दों पर निशाना साधना आसान भी नहीं है। दिल्ली विधेयक पर चर्चा के दौरान विधेयक के पक्ष में ठोस तर्क देने के बजाय अमित शाह ने विपक्ष पर निशाना साधा। उन्होंने कहा कि विपक्ष की प्राथमिकता अपने गठबंधन को बचाना है। विपक्ष को मणिपुर की चिंता नहीं है। हर कोई एक राज्य के अधिकारों के बारे में बात कर रहा है। लेकिन कौन सा राज्य? दिल्ली एक राज्य नहीं बल्कि एक केन्द्र शासित प्रदेश है। संसद को दिल्ली के लिए कानून बनाने का अधिकार है।
संसद में आप के सदस्य इस मुद्दे पर बोलने के लिए हैं नहीं, सो आप के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल को संसद के बाहर कहना पड रहा है कि ये बिल दिल्ली के लोगों को गुलाम बनाने वाला बिल है। उन्हें बेबस और लाचार बनाने वाला बिल है। ‘इंडिया’ ऐसा कभी नहीं होने देगा। केजरीवाल को पता है कि संख्या बल के हिसाब से इंडिया अभी एनडीए का कुछ बिगाड नहीं सकता। इसके लिए इंडिया को अभी बहुत मेहनत करना पडेगी। बेहतर हो कि केजरीवाल एनडीए से अकेले लडने के बजाय इंडिया के साथ कंधे से कंधा मिला कर ला दें। आगामी 15 अगस्त से शुरू हो रही कांग्रेस की भारत जोडो यात्रा के दूसरे चरण में शामिल होकर पूरे देश को बताएं कि आखिर भाजपा देश में कर क्या रही है? मणिपुर और अब हरियाणा क्यों जल रहा है? भाजपा से लडाई ट्विटर पर नहीं, मैदान में लडी जाना चाहिए।
इस समय नसीब और हालात भाजपा के साथ हैं। भाजपा का लक्ष्य विधानसभाएं जीतना नहीं, दिल्ली जीतना है। दिल्ली जीतने के लिए भाजपा एक क्या अनेक विधानसभाएं कुर्बान कर सकती है, और करती आ रही है। अभी तक बिहार, हिमाचल, बंगाल, पंजाब और कर्नाटक हार चुकी है। आगे भी यदि मप्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मिजोरम हार जाए तो भाजपा की सेहत पर कोई फर्क नहीं पडना। भाजपा की सेहत पर फर्क पडेगा तो देश की सत्ता हाथ से निकलने के बाद। जब तक देश की सत्ता भाजपा की मुट्ठी में है तब तक सब कुछ उसकी मुट्ठी में है। ईडी, सीबीआई, केंचुआ और परोक्ष रूप से कोर्ट भी। ज्ञानवापी मामले में आया निर्णय इसका उदाहरण है।
देशकाल और परिस्थिति के हिसाब से विपक्ष को संसद में हंगामा करने के बजाय सडक पर हंगामा करना चाहिए। संसद में विपक्ष की सुनने वाला कोई नहीं है, किन्तु सडक पर सुनने के लिए जनता है। देश की तकदीर और तस्वीर अब जनता के ही हाथ में है। संसद के हाथ में केवल ध्वनिमत बचा है, जो सदैव सत्ता के काम आता है। ध्वनिमत से विपक्ष को कभी कुछ हासिल नहीं हुआ। विपक्ष इस हकीकत को जितनी जल्दी समझ ले उतना बेहतर है। विपक्ष को अपना आत्मविश्वास भाजपा और प्रधानमंत्री जी के आत्मविश्वास से ऊंचा करना होगा। प्रधानमंत्री जी तो अपने आत्मविश्वास का मुजाहिरा ये कहकर कर चुके हैं कि आम चुनाव के बाद तीसरा टर्म भाजपा और प्रधानमंत्री के रूप में उनका ही रहने वाला है। विपक्ष ने अब तक इस तरह का कोई मुजाहिरा नहीं किया है।
तमाम विधानसभा चुनावों में सत्तारूढ़ दल और प्रधानमंत्री जी को चित्त कर चुका विपक्ष अभी तक इस स्थिति में नहीं आया है कि भाजपा को आम चुनावों में चित्त कर सके। विपक्ष के पास पैसा नहीं है, लेकिन जनता है। जनता को सत्ता पक्ष के मौद्रिक चुम्बक से बचाए रखना आसान काम नहीं है। देश के पूंजीपति भाजपा के साथ हैं। जनादेश इसी पूंजी से खरीदे-बेचे जाते हैं। लोकतंत्र के लिए लगातार महंगे होते चुनाव और पूंजी ही सबसे बडा खतरा है। इस खतरे से सभी को मिल-जुलकर निपटना चाहिए, अन्यथा सेवाएं देने का काम केन्द्र के पास ही बना रहेगा। राज्यों की सरकारें केवल एटीएम बनकर रह जाएंगी। दिल्ली के मुख्यमंत्री को अगली लडाई दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने की लडना चाहिए। यदि वे कामयाब हुए तो लोकसभा से पारित इस विधेयक का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। सत्ता की मेवा खाना है तो जनता की सेवा तो करना ही पडेगी।