मणिपुर में राष्ट्रपति शासन क्यों नहीं?

– राकेश अचल


मणिपुर में हिंसा का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। राज्य में अभी भी मैतेई और कुकी जनजाति के बीच जातीय हिंसा जारी है। अब तक 100 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं, लेकिन राज्य की डबल इंजन सरकार हिंसा रोकने में पूरी तरह नाकाम हुई है। ऐसे में क्या जरूरी नहीं है कि मणिपुर में तत्काल प्रभाव से राष्ट्रपति शासन लागू किया जाए?
मणिपुर में हिंसा को भडक़े डेढ़ माह से ज्यादा का समय हो चुका है। देश के गृह मंत्री अमित शाह से लेकर राज्य सरकार के साथ पूरी केन्द्र सरकार हिंसा को रोकने में लगी है, लेकिन कामयाबी नहीं मिली है। लेकिन ये पहली बार हो रहा है कि नाकाम साबित हो चुकी राज्य सरकार को हटाने में केन्द्र सरकार संकोच कर रही है, क्योंकि मणिपुर की सत्ता में वो खुद भागीदार है।
केन्द्र और राज्य संबंधों की धज्जियां उड़ाने के लिए बीते नौ साल में एक से बढक़र एक दुस्साहसिक कदम उठाने वाली केन्द्र सरकार को मणिपुर में प्रभावी कार्रवाई करने के लिए वहां राष्ट्रपति शासन लागू करने में आखिर हिचक क्यों है। राज्य की हिंसा पर हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी न तो अब तक एक शब्द बोले हैं और न ही उन्होंने राज्य का दौरा करने की जहमत उठाई है। और तो और वे जलते, धधकते मणिपुर को छोड़ चार दिन बाद स्टेट डिनर लेने अमेरिका रवाना होने वाले हैं।
आपको याद होगा कि जम्मू-कश्मीर से राज्य का दर्जा छीनने, उसके तीन टुकड़े करने, बंगाल और दिल्ली में राज्य सरकारों को कामकाज करने से रोकने के लिए राज्यपाल का दुरुपयोग करने वाली केन्द्र की सरकार मणिपुर को लेकर ऐसे दिखाई दे रही है जैसे उसे सांप सूंघ गया हो। हिंसा सांप जैसी ही है। आज मणिपुर में फैल रही हिंसा को यदि न रोका गया तो कल दूसरे सीमावर्ती राज्यों में फैल सकती है, क्योंकि असंतोष तो पूरे सीमावर्ती राज्यों में है।
मणिपुर की हिंसा को लेकर सत्तारूढ़ दल तो अलग विपक्ष ने भी अब तक सरकार पर कोई दबाब नहीं बनाया है। न राज्य की स्थिति का अध्ययन करने के लिए कोई संसदीय दल बनाया गया है और न किसी ने इसकी मांग की है। समूचा विपक्ष भाजपा के खिलाफ चुनावी गठबंधन करने में लगा है। मणिपुर की फिक्र विपक्ष को भी नहीं है। यदि होती तो विपक्ष तमाम मुद्दों को भूलकर मणिपुर की हिंसा पर बात न करता? क्या मणिपुर भारत का हिस्सा नहीं है? क्या मणिपुर के मुद्दे से जिस तरह से निबटा जा रहा है वो पर्याप्त है? क्या केन्द्र सरकार को इस मुद्दे पर सर्वदलीय बैठक बुलाकर चर्चा नहीं करना चाहिए?
मणिपुर की हिंसा लगातार भडक़ रही है। थोंगजू में उपद्रवियों ने बीजेपी दफ्तर पर हमला कर दिया। इतना ही नहीं ऑफिस पर जमकर पथराव और तोडफ़ोड़ की गई है, जिसके बाद पंखे तक टूट गए हैं। यहां तक कि उपद्रवियों ने बीजेपी के झण्डे भी उखाडक़र फेंक दिए। इससे पहले 15 जून को इंफाल में केन्द्रीय विदेश राज्य मंत्री आरके रंजन सिंह के आवास पर भीड़ ने तोडफ़ोड़ की। उपद्रवियों ने इसी रात न्यू चेकऑन में भी दो घर फूंक दिए। जिसके बाद सुरक्षा बलों को आंसू गैस के गोले छोडऩे पड़े। इसके साथ ही भीड़ ने 14 जून को इंफाल के लाम्फेल इलाके में महिला मंत्री नेमचा किपजेन के आधिकारिक आवास पर भी आग लगा दी थी।
राज्य में हालात तनावपूर्ण होने के चलते पूर्व आर्मी चीफ वेदप्रकाश मलिक ने प्रधानमंत्री मोदी, केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह से तत्काल ध्यान देने का आह्वान किया है। पूर्व आर्मी चीफ मणिपुर के सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल के ट्वीट को रिट्वीट करते हुए कहा कि मणिपुर में कानून और व्यवस्था की स्थिति पर उच्चतम स्तर पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। लेकिन मलिक की कौन सुनता है? मलिक आखिर हैं क्या?
आपको बता दें कि मणिपुर में तीन मई को कुकी जनजातीय समुदाय की रैली के बाद राज्य में हिंसा भडक़ उठी थी। ये रैली राज्य के बहुसंख्यक मैतेई समुदाय को जनजातीय दर्जा देने के विरोध में बुलाई गई थी। राज्य में हिंसा के चलते अब तक 100 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं, जबकि 300 से ज्यादा लोग घायल हुए है। शांति बहाली की तमाम कोशिशें नाकाम होने के बाद अब सरकार के पास शेष बचा क्या है? क्यों नहीं इस मसले पर केन्द्रीय मंत्रिमण्डल की बैठक बुलाकर प्रधानमंत्री जी मणिपुर में राष्ट्रपति शासन लागू करने का निर्णय लेते? बेहतर हो की प्रधानमंत्री जी मणिपुर को जलता छोड़ अमेरिका जाएं ही न। अमेरिका में स्टेट डिनर तो फिर भी मिल सकता है किन्तु यदि मणिपुर जलकर पूरी तरह राख हो गया तो उसे वापस मणिपुर बनाना आसान नहीं है। पता नहीं क्यों केन्द्र इस हकीकत को नहीं समझ रहा कि राज्य की जनता, राज्य की सरकार के साथ ही भाजपा से घृणा कर रही है। इस घृणा को प्रेम में बदलने के लिए कुछ तो करना होगा। मणिपुर का मामला बेहद संवेदनशील है, इसे हठधर्मिता से नहीं बल्कि हिकमत अमली से सुलझाया जा सकता है।
मणिपुर की हिंसा इस बात का प्रमाण भी है कि केन्द्र सरकार राज्यों कि साथ सौहार्द स्थापित करने में पूरी तरह नाकाम हुई है। भाजपा जिन-जिन राज्यों में विधानसभा कि चुनाव हारी है उन तमाम राज्यों कि साथ केन्द्र सौतेला व्यवहार करने में लगा है। हाल ही में कर्नाटक को भारतीय खाद्य निगम से चावल देने से इंकार करना इस बात का ताजा प्रमाण है। राजनीतिक अदावतें होती हैं, कांग्रेस के जमाने में भी यही सब होता था, किन्तु संवेदनशील मामलों में संवाद की खिडक़ी हमेशा खुली रखी जाती थी। अब ये खिडक़ी वर्षों से बंद है। किसी भी राष्ट्रीय मसले पर सबसे बात करना जैसे सरकार भूल ही चुकी है।