राजदण्ड से राजधर्म तक भारत

– राकेश अचल


भारत देश अपनी आजादी के अमृतकाल में पहुंचकर उन तमाम चीजों को पुनर्जीवित कर रहा है, जो अतीत का हिस्सा थीं और संग्रहालयों में शोभायमान हो रही हैं। 28 मई 2023 को नए संसद भवन के साथ ही नए राजदण्ड देश को समर्पित किया जाएगा। राजधर्म की बात न 2002 में सुनी गई थी और न 2023 में इसका कोई जिक्र कर रहा है। हमें इस स्थिति पर गर्व करना चाहिए या ग्लानि, ये आपका अपना निर्णय है।
सत्तारूढ़ भाजपा और कांग्रेस सहित तमाम विपक्ष पहले संसद भवन के लोकार्पण में मुख्य अतिथि के नाम को लेकर आमने-सामने थे और अब राजदण्ड को लेकर आमने-सामने हैं। आमना-सामना करने के लिए अब सत्तापक्ष और विपक्ष के पास कोई दूसरा मुद्दा बचा नहीं है। समझदार न्यायपालिका ने राजनीतिक दलों के इस बयान युद्ध से अपने आपको अलग रखते हुए नए संसद भवन का लोकार्पण रोकने के लिए दायर याचिका को खारिज कर दिया है। देश की सबसे बड़ी अदालत का देश के सबसे बड़े विवाद से आखिर क्या लेना-देना। ये कोई न्याय-अन्याय का विषय थोड़े ही है।
देश की जनता अपने तमाम दु:ख-दर्द भूलकर बीते एक हफ्ते से सत्तारूढ़ दल और विपक्ष के बीच चल रहे ताजा विवाद में उलझी हुई है। सरकार राजदण्ड के बहाने संस्कृति की पुनस्र्थापना करने में लगी है और विपक्ष इस पोंगापंथी का विरोध कर रहा है। सवाल ये है कि अचानक सरकार को राजदण्ड की क्या जरूरत पड़ गई? क्या देश में 2014 से पहले या 2014 के बाद से बिना राजदण्ड के देश की सरकारें चल नहीं रही थीं? राजदण्ड के समर्थन में देश के तमाम बुद्धिजीवी अपनी सारी मेधा का इस्तेमाल कर लेख लिख रहे हैं। उनके लिए आज राजधर्म से ज्यादा महत्वपूर्ण राजदण्ड हो गया है।

ये देश आजादी के बाद से बिना राजदण्ड के ही चल रहा है। देश चलाने के लिए देश ने अपना संविधान बनाया है और उसी के अनुरूप देश ने आजादी से लेकर आजादी के अमृतकाल की यात्रा तय की है। इसी काल में देश में राजदण्ड की कभी चर्चा नहीं हुई। न तब जब देश में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी और न तब जब देश में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में दूसरी बार भाजपा की सरकार बनी। यानि भाजपा की सरकार भी राजदण्ड पर आश्रित सरकार नहीं है। अटल बिहारी बाजपेयी और इसके पहले मोरारजी देसाई की सरकार को भी इस राजदण्ड की जरूरत नहीं पड़ी। ये तो अचानक भाजपा के अति बुद्धिजीवियों को राजदण्ड की याद आ गई और वे सब राजदण्ड की पुन: प्राण-प्रतिष्ठा करने में जुट गए। वर्षों पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. अटल बिहारी बाजपेयी की ताकीद के बावजूद राजधर्म का पालन न करने वाले लोग आज राजदण्ड के पीछे दीवाने हैं।
मध्य प्रदेश कैडर के एक सेवानिवृत्त आईएएस हैं मनोज श्रीवास्तव, उन्होंने तो राजदण्ड की मान-प्रतिष्ठा में एक शानदार तार्किक लेख ही लिख डाला। वे कहते हैं कि ‘वे पूछते हैं कि किसका राज्याभिषेक होने जा रहा है, कौन-सा सत्तांतरण हुआ है कि संगोल स्थापित किया जा रहा है। लेकिन सत्तांतरण तो 1947 में हो चुका था और सेंगोल तो तभी भारत के प्रथम प्रधानमंत्री ने ग्रहण किया था। यह बात अलग है कि बाद में वह संग्रहालय की चीज बना दिया गया। तो सत्तांतरण के प्रतीक को उसी के गौरवास्पद पर अधिष्ठित किया जा रहा है। सेंगोल बताता है कि दुनिया फ्लैट नहीं, गोल है और अंतत: वहीं लौटती है जहां उसे लौटना चाहिए था। सेंगोल यह भी बताता है कि सत्ता का चक्र परिवर्तन होता रहता है। वह एक हाथ से दूसरे हाथ में जाती रहती है। जैसे गीता के ज्ञानांतरण की एक परंपरा है, वैसे ही सत्तांतरण की भी। आज मैं हूं जहां कल कोई और था। ये भी इक दौर है वह भी एक दौर था। महाभारत के शांतिपर्व के राजधर्मानुशासन पर्व में सबसे पहले शिव इसे विष्णु को देते हैं। (आप मनोज श्रीवास्तव का लेख उनके फेसबुक वाल पर पढ़ सकते हैं)
सवाल ये है कि आज देश को राजधर्म की जरूरत है कि राजदण्ड की। आज आप राजदण्ड ला रहे हैं, कल को शाही पोशाक भी ले आएंगे, परसों कहेंगे कि प्रधानमंत्री को विष्णु का अवतार भी मानिये, क्योंकि ये हमारी पौराणिक परम्परा है। राजदण्ड का प्रतीक ‘संगोल’ देखने में वाकई बहुत खूबसूरत लगता है, लेकिन ये न लोकसभा अध्यक्ष के हाथ में अच्छा लगेगा और न प्रधानमंत्री जी के हाथ में। इसकी जगह अब संग्रहालय के अलावा दूसरी कोई हो नहीं सकती और देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू इस राजदण्ड को उसकी सही जगह पर पहुंचा चुके हैं। अब नेहरू से बदला लेने के लिए राजदण्ड को संग्रहालय से निकालकर संसद के नए भवन में लाने की कोई विवशता सरकार के सामने हो तो मुझे पता नहीं।
मुझे तो राजदण्ड के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं थी लेकिन मनोज श्रीवास्तव के आलेख को पढक़र मुझे लगा कि राजदण्ड आखिर होता क्या है। जिस भृगु संहिता को लेकर आजतक विवाद हैं, उसी का हवाला देते हुए मनोज जी लिखते हैं कि ‘भृगु ने वह धर्म समाहित दण्ड ऋषियों को दिया। ऋषियों ने लोकपालों को, लोकपालों ने क्षुपको, क्षुपने सूर्यपुत्र मनु (श्राद्धदेव) को और श्राद्धदेव ने सूक्ष्म धर्म तथा अर्थ की रक्षाके लिए उसे अपने पुत्रों को सौंप दिया।’ अत: धर्म के अनुसार न्याय-अन्याय का विचार करके ही दण्ड का विधान करना चाहिए, मनमानी नहीं करनी चाहिए। दुष्टों का दमन करना ही दण्ड का मुख्य उद्देश्य है, स्वर्ण मुद्राएं लेकर खजाना भरना नहीं। दण्ड के तौर पर सुवर्ण (धन) लेना तो बाह्यंग-गौण कर्म है।
किसी छोटे-से अपराध पर प्रजा का अंग-भंग करना, उसे मार डालना, उसे तरह-तरह की यातनाएं देना तथा उसको देह त्याग के लिए विवश करना अथवा देश से निकाल देना कदापि उचित नहीं है। सूर्य पुत्र मनु ने प्रजा की रक्षा के लिए ही अपने पुत्रों के हाथों में दण्ड सौंपा था, वही क्रमश: उत्तरोत्तर अधिकारियों के हाथ में आकर प्रजा का पालन करता हुआ जागता रहता है। भगवान इन्द्र दण्ड-विधान करने में सदा जागरुक रहते हैं। इन्द्र से प्रकाशमान अग्नि, अग्नि से वरुण और वरुण से प्रजापति उस दण्ड को प्राप्त करके उसके यथोचित प्रयोग के लिऐ सदा जाग्रत रहते हैं। अब देश में महंगाई और बेरोजगारी से जूझती जानता इस राजदण्ड की महत्ता को जानकर कितनी खुश हो सकती है, ये मंै नहीं जानता। मैं तो सिर्फ इतना जानता हूं कि राजदण्ड एक अनावश्यक एजेंडा है। आवश्यक एजेण्डा राजधर्म है, जिसकी लगातार अनदेखी की जा रही है। गुजरात से शुरू हुई ये अनदेखी अब पूरे देश में की जा रही है।
मुझे पूरा यकीन है कि देश का तमाम विपक्ष भी राजदण्ड बनाम राजधर्म के इस संग्राम में विजय हासिल नहीं कर सकता। सरकार सर्व शक्तिमान है। वो जो ठान चुकी है सो करके रहेगी। सरकार सबको साथ लेकर नहीं चलना चाहती। राजदण्ड लेकर अकेले चलना सुखदायी होता होगा शायद! राजदण्ड की पुन: प्राण प्रतिष्ठा से कोई खुश हो या न हो, किंतु चोल राजाओं और उनके ब्राह्मणों की आत्माएं अवश्य खुश होकर भाजपा को तीसरी बार सत्ता में लौटने का आशीर्वाद अवश्य दे सकती हैं। राजदण्ड की प्राण-प्रतिष्ठा में बाधक विपक्ष को चोल राजाओं की आत्माओं के श्राप की वजह से पुन: विपक्ष में बैठना पड़ सकता है। हमारे गृह मंत्री अमित शाह को इसका पूर्वाभास है, इसीलिए वे दावा कर रहे हैं कि 2024 के आम चुनाव में उनकी पार्टी 400 सीटों के पार जाएगी।