कलम के सिपाही

– अशोक सोनी ‘निडर’

कलम के जादूगरों से कह रही युग चेतना यह, लेखनी की धार से अंधेर का वे वक्ष फाड़ें।
रक्त मज्जा हड्डियों के मूल्य पर जो बन रहा हो, तोड़ दें उसके कंगूरे उस महल को वे उजाड़ें।।
बिक गई यदि कलम तो फिर देश कैसे बचेगा, सर कलम हो कलम का सिर शर्म से झुकने न पाए।
चल रही तलवार या बंदूक हो जब देशहित में, यह चले चलती रहे क्षण भर कलम रुकने न पाए।।
यह कलम ऐसे चले श्रम साधना की ज्यों कुदाली, वर्ग भेदों की शिलाएं तोड़ चकनाचूर कर दें।
यह चले ऐसे कि चलते खेत में हल जिस तरह से, उर्वरा अपनी धरा की मोतियों से मांग भर दें।।
यह चले ऐसे कि पतझड़ में बहारें मुस्कराए, यह चले तो गर्व से खलिहान अपना सर उठाएं।
हाथ श्रम के आज नूतन सर्जना करके दिखाएं, हम सिपाही देश के दुर्भाग्य को जड़ से मिटाएं।।