अंधा कानून है, ये अंधा कानून

अशोक सोनी ‘निडर’


दालतों में कई कई वर्षों तक चलने वाले केसों, झूठे गवाह सबूतों, दलीलों के चलते निर्दोषों को होने वाली सजाओं ने ये साबित कर दिया है कि कानून सिर्फ अंधा ही नहीं, गूंगा बहरा भी है। कहते हैं, भारतीय कानून व्यवस्था का मूल भाव है कि सौ गुनाहगार भले छूट जाएं, पर किसी निर्दोष को दण्ड नहीं मिलना चाहिए। पर रुकिए! ये विष्णु तिवारी हैं, जिन्होंने बीस वर्ष की सजा उस अपराध के लिए काटी है जो उन्होंने किया ही नही। बीस वर्ष पूर्व किसी पड़ोसी को इन पर गुस्सा आया, सो उसने कानून की मार मारी, अपने परिवार की किसी महिला से इन पर बलात्कार का मुकद्दमा दर्ज करवा दिया। लगे हाथ एससी/एसटी एक्ट वाला केस भी दर्ज हो गया। विष्णु जी सवर्ण थे, भारतीय व्यवस्था के अनुसार शोषक, सो नप गए। अंधे कानून ने बीस साल तक मामले को देखा और तब पाया कि ये निर्दोष हैं। सो बीस साल के बाद ये रिहा हुए हैं।
जानते हैं, जिस आरोप के ट्रायल में इन्हें बीस वर्ष तक बंदी बना कर रखा गया, उसकी अधिकतम सजा ही सात वर्ष है। मतलब यदि सचमुच इसने वह अपराध किया होता तब भी इसे तेरह वर्ष पहले रिहा हो जाना चाहिए। जब इन्हें इस निर्लज्ज व्यवस्था ने बन्दी बनाया तो ये 25 वर्ष के थे, अब 45 वर्ष की आयु में रिहा हुए हैं। स्पष्ट है कि युवक का जीवन बर्बाद हो गया। बीस वर्षों में पिता चले गए, मां चली गई, बड़े भाई चले गए। यह व्यक्ति अपनों का मरा मुंह भी नहीं देख सका। जरा सोचिये तो, कौन हैं जिनका अपराधी? क्या केवल वह व्यक्ति जिसने इन पर मुकद्दमा किया था?, नहीं। अपराधी वह निर्लज्ज कानून व्यवस्था है, जिसने इनके नाम में लगा ‘तिवारी’ शब्द देखते ही मान लिया कि यह शोषक हैं। अपराधी हैं। वह न्यायधीश जिसकी अदालत से एक निर्दोष को मुक्त होने में बीस वर्ष लग गए, क्योंकि उसके पास पैरवी के पैसे नहीं थे। अपराधी हैं वे सारी सरकारें, जो 75 वर्षों में भी इस कथित लोकतांत्रिक देश को एक ऐसा न्यायालय नहीं दे सकीं जो किसी दरिद्र को न्याय दे सके। पर क्या कोई शर्मिंदा है? सरकार, कानून, प्रशासन, कोई भी नहीं! किसी को लज्जा नहीं आती। न आएगी। इस देश की व्यवस्था आजादी के बाद निर्लज्ज से निर्लज्जतम होती चली गई है। भारत में कानून एक ऐसा कोड़ा है जिससे कोई सामथ्र्यवान किसी भी गरीब को जब चाहे पीट देता है।
जो लोग कोर्ट कचहरी के चक्कर में पड़े हैं, वे जानते हैं कि उतना भ्रष्टाचार और कहीं नहीं है। यदि आपके पैसा न हो तो आप किसी को थप्पड़ मारने के केस में भी दस वर्ष तक जेल के भीतर रह जाएंगे। फिर भी काले कोट वाले साहब की छवि ऐसी है कि कोई उनपर उंगली नहीं उठा सकता। भारत की आम जनता आज भी स्वतंत्र नहीं है। वह 1947 के पहले विदेशियों की गुलाम थी, अब देशियों की गुलाम है। अगर सचमुच यह देश लोकतंत्र है, तो इस देश के राष्ट्रपति और मुख्य न्यायधीश को इस आदमी से क्षमा मांगना चाहिए, क्योंकि देश ने ही इस व्यक्ति का जीवन बर्बाद कर दिया है।
वैसे भी कानून की बात करें तो बकीलों की झूठी दलीलों, झूठे गवाहों के चलते एक छोटा सा केस भी कई सालों तक चलता रहता है, गीता जैसे पवित्र ग्रंथ की शपथ खाकर न्याय के मन्दिर में झूठ बोला जाता है। कानून विदों को विचार करके संविधान में परिवर्तन किया जाना चाहिए कि किसी भी न्यायालय में हर केस का एक निश्चित समय सीमा में निराकरण किया जाना आवश्यक हो, फिर चाहे आरोपी या फरियादी गवाह सबूत जुटाकर न्यायालय का सहयोग करे ना करे। इससे अदालतों में न तो केस फाइलों का अंबार लगेगा और समय सीमा में निर्णय होने से दौनों पक्ष भी संतुष्ट होंगे।

लेखक – राष्ट्रीय स्वतंत्रता सेनानी परिवार उप्र के राष्ट्रीय प्रवक्ता एवं स्वतंत्रता सेनानी/ उत्तराधिकारी संगठन मप्र के प्रदेश सचिव हैं।