ग्वालियर भाग्यविधाता जय हो


– राकेश अचल


ज मुझे देशद्रोही राहुल गांधी, ऑस्कर विजेता आरआरआर और दूसरे अनेक विषयों पर लिखना था, किन्तु मैं लिख रहा हूं अपने शहर ग्वालियर के ‘भाग्यविधाताÓ सिंधिया खानदान पर। इस खानदान का ग्वालियर और मालवा के एक बड़े हिस्से से ढाई-तीन सौ साल पुराना रिश्ता है, क्योंकि ये खानदान पूर्व ग्वालियर रियासत का शासक रहा है। पहले अंग्रेजों से लड़ाई की फिर दोस्ती, लेकिन इससे ग्वालियर का कोई खास वास्ता नहीं। असली बात ये है कि सिंधिया आजादी के पहले भी भारत के भाग्य विधाता थे और आजादी के बाद भी ग्वालियर के भाग्यविधाता होने का दावा करते हैं।
ग्वालियर के दूसरे लोगों की तरह मैं भी सिंधिया खानदान के भाग्यविधाता होने पर यकीन करता था लेकिन पिछले कुछ दशकों में जिस तरह से सिंधिया ग्वालियर अंचल में अपनी जमीनों को लेकर सरकार से जूझ रहे हैं, उसे देखकर मुझे सिंधिया खानदान के ग्वालियर भाग्यविधाता होने पर शक होने लगा है। प्रदेश की सरकार हो या केन्द्र की सरकार जिस किसी नए प्रोजेक्ट को सरकारी जमीन पर शुरू करती है सिंधिया खानदान और उनके तमाम ट्रस्टों की ओर से उस जमीन को अपना बताकर मुआवजे की मांग की जाती है। मांग ही नहीं की जाती बल्कि सिंधिया खानदान मुआवजा पाने के लिए निचली अदालत से लेकर देश की सर्वोच्च अदालत तक विधिक लड़ाइयां भी लड़ता है।
सिंधिया खानदान के इस विसंगतिपूर्ण व्यवहार को लेकर एक जमाने में भाजपा के राज्यसभा सदस्य रहे प्रभात झा कागजों का पूरा थान लिए प्रेस के सामने बैठा करते थे किन्तु जब से श्री ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस छोड़ भाजपा में आये हैं तब से उन्होंने सिंधिया के भूमि वापस पाने के अभियान के बारे में बोलना बंद कर दिया है या उनकी बोलती बंद कर दी गई है। लेकिन आज भी बहुत से लोग हैं जो ग्वालियर के भाग में कथित रूप से बाधक सिंधिया और उनके परिवार के ट्रस्टों के खिलाफ पूरी ईमानदारी के साथ कानूनी लड़ाई लड़ते हैं।
देवयोग है कि सिंधिया रियासत का भारत गणराज्य में विलय होने के बाद से लेकर अब तक इस परिवार के सदस्य राजनीति में सक्रिय है। देश और प्रदेश में सत्ता किसी भी दल की रही हो किन्तु सिंधिया खानदान की तूती बोलती आ रही है। इस खानदान की विदुषी राजमाता विजयाराजे सिंधिया पहले कांग्रेस में रहीं, फिर जनसंघ में और अंत में भाजपा में रहीं। उनके बेटे माधवराव सिंधिया पहले निर्दलीय रहे, फिर कांग्रेस में आये, फिर उन्होंने विकास कांग्रेस बनाई, लेकिन लौटकर वापस कांग्रेस की शरण ली। माधवराव को विकास का मसीहा कहा जाता था। माधवराव सिंधिया के बाद उनके पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस के साथ दो दशक तक रहे और आज-कल भाजपा में हैं। सभी ने अपने-अपने ढंग से राजपरिवार की अचल संपत्ति को बचने के सभी तरीके अपनाये। कहीं जमीनों पर पुन: अधिपत्य हांसिल किया, तो कहीं मुआवजा लेकर जमीन छोड़ी। इस काम में राज्य की हर सरकार इस खानदान की सहायक रही, क्योंकि आखिर सिंधिया इस अंचल के भाग्यविधाता जो हैं।
ताजा मामला ग्वालियर में रेलवे के एक ओव्हर ब्रिज की जमीन का है। जो साबित करता है कि सिंधिया ग्वालियर के कैसे भाग्यविधाता हैं? सिंधिया परिवार के माधवी राजे, प्रियदर्शनी राजे और ज्योतिरादित्य सिंधिया के कमला राजे चैरिटेबल ट्रस्ट का आवेदन अपर सत्र न्यायालय में खारिज कर दिया है। यह आवेदन स्थगन के लिए था। सिंधिया के ट्रस्ट ने दावा किया है कि सरकार ने उनकी जमीन पर एजी ऑफिस का पुल बनाकर अतिक्रमण कर लिया। सरकार की तरफ से भूमि का अधिग्रहण नहीं किया गया। 600 करोड़ रुपए के महल में रहने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया ने 7.55 करोड़ मुआवजा की मांग करते हुए अपनी ही पार्टी की सरकार के खिलाफ दावा ठोक दिया है।
कोर्ट में सरकार की ओर से एडवोकेट धर्मेन्द्र शर्मा एवं जगदीश शाक्यवार ने तथ्य एवं तर्क प्रस्तुत किए। उन्होंने न्यायालय को बताया कि मिसिल बंदोबस्त 1950 के आधार पर जमीन का मालिकाना हक तय होता है। सरकारी रिकॉर्ड में यह जमीन कभी किसी ट्रस्ट के नाम नहीं रही। इस स्थान का नाम महलगांव है, लेकिन सर्वे क्र.1071, 1072, 1073 खसरों में शासकीय दर्ज हैं। इलाके का नाम महलगांव होने से पूरी जमीन ट्रस्ट की नहीं हो जाती। मिसिल बंदोबस्त संवत 1997 सर्वे 1071 में 10 बिस्वा जमीन, 1072 में एक बीघा चार विश्वा जमीन, 1073 में चार बीघा जमीन रेल की पटरी, सड़क, बंजर के नाम से दर्ज है।
सिंधिया परिवार ने इस मामले में न्यायालय की कार्यवाही के लिए ट्रस्ट के सचिव विजय सिंह फालके अधिकृत किया है। ट्रस्ट की ओर से कोर्ट में दावा किया गया कि सरकारी रिकार्ड में कुछ भी लिखा हो लेकिन 31 दिसंबर 1971 को विजयराजे सिंधिया द्वारा गठित किए गए कमलाबारी चैरिटेबल ट्रस्ट के दस्तावेजों में यह जमीन विजयाराजे सिंधिया द्वारा ट्रस्ट को दान की गई है। इसलिए यह जमीन हमारी है और हमारी जमीन पर सरकार ने अतिक्रमण कर लिया है। हमें ईजी आफिस पुल का मुआवजा चाहिए और बांकी बची हुई जमीन का आधिपत्य चाहिए। अब देखना ये है कि इस मामले में अंत में कौन जीतता है।
ग्वालियर में किले पर जाने के लिए नगर निगम बीते दो दशकों से एक रोप-वे बनाना चाहती है, लेकिन सिंधिया परिवार को इस परियोजना की सबसे बड़ी बाधा बताया जा रहा है। जब तक ग्वालियर भायविधाता नहीं चाहेंगे ये रोप-वे बन नहीं सकता, मजे की बात ये है कि प्रदेश में भोपाल, सतना, देवास यहां तक की और छोटे-छोटे शहरों में धार्मिक स्थलों पर जाने के लिए रोप-वे बन गए किन्तु ग्वालियर के ऐतिहासिक दुर्ग पर स्थित गुरुद्वारा पर जाने के लिए ये रोप-वे नहीं बना, जबकि इसके लिए दो बार भूमि पूजन और ठेके हो गए। हैरानी की बात ये है कि राज्य सरकार ने ग्वालियर के भाग्यविधाता को ग्वालियर दुर्ग पर स्थित सिंधिया स्कूल के लिए सरकारी जमीन आनन-फानन में मुहैया करा दी, लेकिन सिंधिया खानदान को अपनी कथित जमीनों पर विकास कार्यों के एवज में मुआवजा चाहिए। गनीमत ये है कि इस खानदान ने अभी तक ग्वालियर व्यापार मेला की जमीन को अपना बताकर मुआवजा नहीं मांगा।
ग्वालियर में ग्वालियर के भाग्यविधाता की ही चलती है, इसीलिए उनकी रजा से ग्वालियर का पुराना कलेक्टर कार्यालय जिस ‘गोरखी महलÓ में चलता था उसे सरकार ने खाली कर दिया, हालांकि ये महल लोनिवि की संपत्ति है। भाग्यविधाता की मर्जी के अनुरूप मोतीमहल को खाली कर दिया गया, यहां से सैकड़ों सरकारी दफ्तर हटा दिए गए, सरकार ने इनके लिए ग्वालियर में मिनी सचिवालय बना दिया। अब इस मोतीमहल में हैरिटेज होटल बनाया जाना है क्योंकि भाग्यविधाता ऐसा चाहते हैं। पुराना हाईकोर्ट भवन और शासकीय प्रेस भवन को भी खाली कराया गया है।
बहरहाल सिंधिया जैसे अनेक शहरों में उनके भाग्यविधाता हैं। कांग्रेस और भाजपा सरकारों की मजबूरी इन भाग्य विधाताओं को अपनी पीठ पर लादने की है, क्योंकि ये जब चाहे तब किसी भी दल के लिए फायदेमंद और किसी भी दल के लिए खतरा बन जाते हैं। लोकतंत्र में जनता की मजबूरी इन भाग्य विधाताओं की जय बोलने की है। हकीकत भी है कि यदि ये भाग्यविधाता न हों तो संसद और विधानसभाओं में जनता की सुने कौन?