भिण्ड, 27 सितम्बर। स्वार्थ भाव एवं संकीर्णता से ऊपर उठकर परमात्म भाव एवं उदारता से निष्काम कर्म करना भी यज्ञ करना है। कर्म करने से कार्य दक्षता आती है तथा आत्मविश्वास बढ़ता है। सनातन धर्म में निष्कामता का प्रमुख उदाहरण श्रीराम के जीवन चरित्र से मिलता है। 14 वर्ष वनवास होने पर भी भगवान राम के मन में दु:ख नहीं होता है। ऐसे में आदर्श जीवन चरित्र के परिणामस्वरूप श्रीराम की पूजा आज भी होती है। यह बात अनंत विभूषित काशीधर्म पीठाधीश्वर जगदगुरू शंकराचार्य स्वामी नारायणानंद तीर्थ महाराज ने अटेर क्षेत्र के परा गांव स्थित अमन आश्रम परिसर में चल रहे श्रीराम कथा ज्ञानयज्ञ के छठवें दिन की कथा में कही।
शंकराचार्य जी ने यज्ञ को परिभाषित करते हुए कहा कि यज्ञ क्या है बहुत से लोग इसे नहीं समझते हैं। यज्ञ शब्द का अर्थ सत्संग, देवपूजा और दान भी होता है। यज्ञ का एक अर्थ जीवन में नियम संयम भी होता है। जो यज्ञ नहीं करते हैं उनके जीवन में नियम नहीं होता है। ऋषी मुनी यज्ञशील रहते हैं, इसीलिए उनका जीवन नियंत्रित बना रहता है और जो पुस्तक पढ़कर ज्ञानी बन जाते हैं उनके जीवन में नियम-संयम नहीं होता है और कोई मर्यादा नहीं होती है। क्योंकि यज्ञ से जीवन में एक नियम बनता है। यज्ञ धर्म के अनुशासन और आचार्य के अनुशासन में होती है। यज्ञ में दो चीज होती है उत्सर्ग मतलब त्याग। यज्ञ करने से सबको लाभ होता है जिसकी जैसी योग्यता होता है उसी प्रकार से उसको यज्ञ का लाभ मिलता है। हम देवताओं का पूजन पाठ इसीलिए करते हैं, उससे मन तृप्त रहता है। यज्ञ करने का अधिकार सभी को है चाहे वह किसी भी जाति का हो।
उन्होंने कहा कि भगवान ने हमको रहने के लिए धरती दी है, पीने के लिए पानी दिया है, भोजन पकाने के लिए आग दी है और भ्रमण करने के लिए आकाश दिया है। जैसे आप प्रकृति से विधिपूर्वक लेते है उसी तरह से विधिपूर्वक देना भी चाहिए उसी का नाम यज्ञ है। मनुष्य को लेना ही नहीं देना भी सीखना चाहिए। कमाने के बाद दसवां अंश दान भी करना चाहिए, सभी को यज्ञ कराना चाहिए।
शंकराचार्य जी ने बताया कि अंहकार से प्रेरित होकर तथा अंहकार की संतुष्टि के लिए दान आदि शुभ कर्म करना भी दोष उत्पन्न करता है। दूसरों को प्रसन्न करने के लिए अथवा लोकप्रियता के प्रलोभन से उत्तम कर्म करना भी मनुष्य का पतन कर देता है। अहंकार युक्त मनुष्य दूसरों के प्रति कभी सच्ची सदभावना नहीं रख सकता, उसे शांति प्राप्त नहीं हो सकती। अंहकार से कर्म में प्रवृत्त होने पर कर्म दूषित हो जाता है। लोकप्रियता एवं सम्मान की कामना द्वारा विकृत अहंकार से घृणा उत्पन्न होती है तथा कामना तृप्ति में विघ्न होने पर घृणा का क्रोध के रूप में विस्फोट हो जाता है। घृणा तथा ईर्ष्या-द्वेष मन को विषाक्त बनाकर मनुष्य का पतन कर देते हैं। घृणा का ही परिणाम था कि भाई-भाई होने पर भी बाली और सुग्रीव आपस में द्वंद कर रहे हैं। घृणा तथा ईर्ष्या-द्वेष मनुष्य को असहनशील बना देते हैं, जिससे संघर्ष उत्पन्न होता है। घृणाशील मनुष्य संकीर्ण होता है तथा लोग उससे बैर करने लगते हैं। घृणा मनुष्य को जनमानस से दूर कर देती है और उसका पतन करा देती है।