न्यायिक आतंकवाद पर टिप्पणी के निहितार्थ

– राकेश अचल


भारत के मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई के तेवर देखकर लगता है कि वे अपने छह माह के कार्यकाल में कुछ न कुछ ऐसा कर जाएंगे जिस पर लंबे अरसे तक बहस होती रहेगी। जस्टिस गवई ने हाल ही में न्यायिक आतंकवाद के मुद्दे पर बडी साफगोई से अपनी बात कही है। उन्होंने संविधान को ‘स्याही में लिखी एक शांत क्रांति’ बताया है। उन्होंने कहा कि यह एक ऐसी ताकत है जो न केवल अधिकार देती है, बल्कि ऐतिहासिक रूप से दबे हुए लोगों को ऊपर उठाती है। पिछले दिनों ऑक्सफोर्ड यूनियन में ‘फ्रॉम रिप्रेजेंटेशन टू रियलाइजेशन एम्बॉडिंग द कॉस्टिट्यूशंस प्रॉमिस’ विषय पर बोलते हुए मुख्य न्यायाधीश गवई ने ‘न्यायिक सक्रियता’ से ‘न्यायिक आतंकवाद’ की ओर बढने को लेकर चेतावनी दी और कहा कि हमें ऐसी चीजों से बचना चाहिए।
भारत में न्यायिक सक्रियता हमेशा से सवालों के घेरे में रही है। जस्टिस गवई से भी इसे लेकर सवाल किया गया। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि न्यायिक सक्रियता भारत में जरूरी है। लेकिन हमें ऐसी जगह पर नहीं जाना चाहिए, जहां न्यायपालिका को नहीं जाना चाहिए। सीजेआई गवई ने जोर देकर कहा कि भारत में न्यायिक सक्रियता बनी रहेगी। लेकिन न्यायिक सक्रियता को न्यायिक आतंकवाद में नहीं बदलना चाहिए। कभी-कभी आप सीमाएं पार करने की कोशिश करते हैं और ऐसी जगह पर प्रवेश करते हैं, जहां न्यायपालिका को नहीं जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि अगर विधायिका या कार्यपालिका लोगों के अधिकारों की रक्षा करने में विफल रहती है, तो न्यायपालिका हस्तक्षेप करेगी। लेकिन न्यायिक समीक्षा की शक्ति का उपयोग बहुत ही कम मामलों में किया जाना चाहिए।
सीजेआई गवई न्यायिक समीक्षा का प्रयोग बहुत ही सीमित क्षेत्र में करने के पक्षधर हैं, वे कहते हैं कि बहुत ही असाधारण मामलों में इसका इस्तेमाल किया जाना चाहिए। जैसे कि कोई कानून संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करता है या यह संविधान के किसी भी मौलिक अधिकार के साथ सीधे संघर्ष में है या यदि कानून इतना स्पष्ट रूप से मनमाना, भेदभावपूर्ण है… तो अदालतें इसका प्रयोग कर सकती हैं और अदालतों ने ऐसा किया है। जाहिर है कि उनका संकेत वक्फ बोर्ड कानून की ओर रहा होगा।
आपको याद होगा कि इसी साल अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार यह तय किया कि राष्ट्रपति को राज्यपाल की ओर से उनके विचार के लिए आरक्षित विधेयकों पर ऐसी सिफारिश मिलने की तारीख से तीन महीने के भीतर निर्णय लेना चाहिए। एक महीने बाद राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट को लिखा और पूछा कि क्या इस तरह की समय सीमा लगाई जा सकती है। राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट की राय मांगी। यह अनुच्छेद राष्ट्रपति को कानूनी मुद्दों या सार्वजनिक महत्त्व के मामलों पर अदालत से सलाह लेने की शक्ति देता है। राष्ट्रपति श्रीमती द्रोपदी मुर्मू तक ने सुप्रीम कोर्ट से पूछा था कि क्या राज्यपाल भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत उनके समक्ष प्रस्तुत विधेयक पर सभी उपलब्ध विकल्पों का प्रयोग करते समय मंत्रिपरिषद द्वारा दी गई सहायता और सलाह से बंधे हैं?
मुख्य न्यायाधीश के तेवरों से सरकार सकते में है। सुप्रीम कोर्ट ने वक्फ बोर्ड कानून पर अभी फैसला सुनाया नहीं है। फैसला सुरक्षित है। लगता है कि सुप्रीम कोर्ट फैसले को सुनाने के लिए सही समय का इंतजार कर रहा है। यदि फैसला अभी आता तो मुमकिन है कि उसके ऊपर भी सिंदूर के छींटे पड जाते। मुमकिन है कि ये फैसला संसद के मानसून सत्र से ठीक पहले आए ताकि संसद में एक बार फिर इस कानून पर बहस हो सके। सरकार अभी न्याय से रार लेने की स्थिति में नहीं है। मुमकिन है कि फैसला पक्ष में न आने पर किसान कानूनों की ही तरह वक्फ बोर्ड कानून को भी ठण्डे बस्ते में डाल दे।