– राकेश अचल
आगामी पांच फरवरी को देश की राजधानी दिल्ली में चाहे जिस दल की सरकार बने, लेकिन उसे आपको ‘रेबडी सरकार’ ही कहना और मानना पडेगा, क्योंकि इस बार सरकार बनाने के लिए सभी प्रमुख राजनितिक दलों के बीच मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त की रेबडियां बांटने की होड लगी है। पहली बार है कि सत्तारूढ आम आदमी पार्टी को सत्ताच्युत करने के लिए भाजपा और कांग्रेस ने बराबरी से कमर कसी हुई हैं। सभी दल किश्तों में फ्रीबीज यानि मुफ्त की रेबडियां बांटने की घोषणाएं करने में लगे हैं।
दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है। दिल्ली सीमावर्ती राज्य भी नहीं है। दिल्ली केन्द्र शासित क्षेत्र है। लेकिन विसंगति ये है कि केन्द्र सरकार का दिल्ली में शासन नहीं है। यहां की स्थानीय सरकार आम आदमी पार्टी की है और आज से नहीं पिछले एक दशक से है। और से तब है, जब से देश में महाबली प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का राज है। मोदी जी और उनकी चतुरंगनी सेना पिछले दो विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी से पार नहीं पा सकी। भाजपा को दोनों ही चुनावों में पराजय का समाना करना पडा, लेकिन अब लगता है कि भाजपा हार मानने वाली नहीं है। जीत का फार्मूला भाजपा के हाथ लाग चुका है।
भाजपा इस बार दिल्ली जीतने के लिए साम, दाम, दण्ड और भेद के अलावा मतदाताओं का दिल जीतने के लिए मुफ्त की रेबडियां भी दोनों हाथ से बांटने के ऐलान कर है। भाजपा की रेबडियों का आकार इस बार आम आदमी पार्टी की रेबडियों से बडा है। रेबडी अक्सर गुड और तिल से बनती है। सियासी रेबडियों में मिठास बढाने के लिए सभी राजनीतिक दल ज्यादा से ज्यादा गुड डालने की कोशिश करते है। कुछ दलों ने तो गुड के साथ शक्कर और मावा भी मिलाने की कोशिश की है। रेबडी का इतिहास मुझे नहीं मालूम, लेकिन मैं इतना जानता हूं कि ये सनातन काल से बनती जाती है। आकार में छोटी होती हैं, बांटने में आसान होती हैं। किफायती होती हैं, इसलिए हर कोई इन्हें बांटना पसंद करता है। रेबडी प्रसाद के रूप में मन्दिरों में चढाई जाती है और तबर्रुक के रूप में मजारों पर भी चढाई जाती है। इसलिए रेबडी धर्मनिरपेक्ष मिष्ठान की श्रेणी में आती है।
सियासत में रेबडी का प्रचलन शायद इसकी इन्हीं खूबियों की वजह से शुरू हुआ। इसका आगाज शायद कांग्रेस ने ही किया था। अब हर राजनीतक दल रेबडी का इस्तेमाल करता है। रेबडियां मतदाताओं को बांटी जाती है। कभी बहनों को तो कभी बुजुर्गों को। कभी लाडली लक्ष्मियों को तो कभी नौजवानों को। मतदाताओं के हर वर्ग के लिए अलग-अलग आकर की रेबडियां बांटी और बनाई जाती हैं। आज-कल रेबडी निर्माण और वितरण में भाजपा दूसरे दलों से सबसे आगे है और इसकी वजह से भाजपा को राज्य विधानसभा चुनावों में लगातार विजयश्री हासिल हो रही है। मप्र, राजस्थान, छत्तीसगढ, महाराष्ट्र और हरियाणा के मतदाताओं ने भाजपा ब्रांड रेबडियों को पसंद किया, लेकिन हिमाचल, कर्नाटक, तेलंगाना में भाजपा की रेबडियां नहीं चलीं।
राजनीति में रेबडी कल्चर ने लोकतंत्र और चुनावों में शुचिता का बंटाधार कर दिया है। रेबडियों के वितरण पर न अदालत रोक लगा पाई है और न चुनाव आयोग। इसलिए रेबडियां बेरोक-टोक बनाई और बेची जा रही हैं, ये जानते हुए भी कि ये लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए घातक हैं। मुफ्त की रेबडियों से लोकतंत्र को असाध्य रोग हो रहे हैं, किन्तु किसी को लोकतंत्र की नहीं पडी। सभी सत्ता प्रतिष्ठान पर काबिज होना चाहते हैं। अब मतदाता भी राजनितिक दलों और नेताओं के चाल, चरित्र और चेहरे पर ध्यान देने के बजाय रेबडियों पर ध्यान दे रहे हैं। मतदाता संत कबीर की नहीं सुन रहा। कबीर बाबा ने बहुत पहले ही बता दिया था कि गुड से बनी कोई चीज यानि रेबडी हो या गुड खरतनाक है। उन्होंने लिखा-
‘माषी गुड में गडि रही हैं, पंख रही लपटाय।
ताली पीटै सिर धुने, मीठे बोई माइ।।’
लेकिन दुर्भाग्य देखिये कि मतदाता जो माखी यानि मख्खी है, जानबूझकर गुड में अपने आजादी कि पंख लिपटता जा रहा है। बाद में उसे पछताना ही पडता है। दुनिया में अभी तक ‘बनाना रिपब्लिक‘ यानि ‘केला लोकतंत्र’ का जिक्र होता आया है, लेकिन अब नई पीढी जब राजनीति का इतिहास पढेगी तो उसे ‘बनाना रिपब्लिक’ के साथ ही ‘रेबडी रिपब्लिक’ का नया अध्याय भी पढना पडेगा। [बनाना रिपब्लिक का अर्थ समझने के लिए गूगलाएं] बनाना रिपब्लिक तो घातक है ही, ‘रेबडी रिपब्लिक’ उससे भी ज्यादा घातक साबित हो रहा है। हमारे देश में तो चुनाव हों या न हों, लेकिन 80 करोड से जायदा लोग मुफ्त की रेबडियां यानि मुफ्त का पांच किलो अनाज खाकर ही जिंदा हैं, वो भी केवल मतदान करने के लिए, ताकि लोकतंत्र जिंदा रहे। लेकिन अब वक्त आ गया है कि जनता मुफ्त की रेबडियों से अपने आपको और आने वाले पीढियों को भी बचाए, अन्यथा देश का बहुत नुक्सान हो सकता है।