नफरत से दूर रहे अटल जी

– राकेश अचल


पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में लिखना एक रिवायत जैसा है। वे भाजपा के जवाहर लाल नेहरू थे। उदार, उदात्त, अध्ययनशील, स्वप्न दृष्ट्रा। नेताओं के मामले भाजपा दूसरे दलों के मुकाबले बहुत कंगाल है। भाजपा के पास ले-देकर एक अटल बिहारी वाजपेयी हैं, जिनका सहारा लेकर भाजपा समाज में खडी होकर कोई बात कर सकती है, अन्यथा भाजपा का हर चेहरा विद्रूप दिखाई देता है। पिछले एक दशक में भाजपा के अनेक नेताओं ने अटल बिहारी वाजपेयी छाप नेतागीरी करने की कोशिश की थी किन्तु मोदी युग में ये छाप धूमिल पड गई।
अटल जी के बारे में लिखते हुए न जाने क्यों ऐसा लगता है कि मैं परिवार के किसी बुजुर्ग के बारे में लिख रहा हूं। अटल जी को मैंने तब से देखा और जाना है जब से मैं ग्वालियर आया था। बात 1972 की है, जब मैंने पहली बार अटल जी को देखा और सुना था। बाद के दिनों में वे देश के विदेश मंत्री भी बने और प्रधानमंत्री भी, लेकिन वे हमेशा ही हमारे अपने अटल जी बने रहे। अटल जी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से दीक्षित कार्यकर्ता थे। उनके भीतर भी हिन्दुत्व और महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ नफरत के बीज बोये गए थे, किन्तु उन्होंने प्रयत्नपूर्वक अपने भीतर विषबेल को फैलने नहीं दिया।
अटल जी यदि जीवित होते तो आज हम सब उनका शताब्दी समारोह मना रहे होते। शताब्दी समारोह तो हम आज भी मना रहे हैं, लेकिन उसमें अटल जी के अनुशरण का कोई संकल्प दूर-दूर तक नहीं दिखाई दे रहा। अटल जी ने 1957 में पहली बार लोकसभा में कदम रखा था। उन्होंने देश के लगभग सभी प्रधानमंत्रियों के साथ काम किया, लेकिन वे हमेशा लोकसभा में नायक बने रहे, खलनायक नहीं। उनके खिलाफ कभी भी वैसा शोर शराबा नहीं हुआ जैसा कि पिछले दस सालों में मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी के भाषणों के बीच होता है। अटल जी को सुनना एक अनूठा अनुभव होता था। उनके भाषणों में पांडित्य साफ झलकता था। उनकी भाव मुद्राएं अनुपम थीं। उनके व्यंग्य में हास्य भी ऐसा होता था कि विरोधी भी खिलखिलाकर हंस देते थे।
ग्वालियरवासी होने के नाते मुझे पत्रकार के रूप में, एक साहित्यसेवी के रूप में उनके निकट रहने और उनसे संवाद करने के अनेकानेक अवसर मिले, इसलिए मैं अधिकारपूर्वक कह सकता हूं कि उनके जैसा अध्येता, प्रवाचक और दूरदृष्टा नेता भाजपा में कोई दूसरा है ही नहीं। अटल जी के साथ सियासत में आए लालकृष्ण आडवाणी भी नहीं। आडवाणी जी संघ के दीक्षित स्वयंसेवक हैं, जनसंघ और भाजपा के संस्थापक हैं। अयोध्या में बाबरी ध्वंश के खलनायक हैं, लेकिन अटल जी केवल और केवल नायक हैं। वे खलनायक बनाए ही नहीं जा सके। विपक्ष भी उन्हें खलनायक नहीं बना सका।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कभी अपनी गरीबी का रोना नहीं रोया। वे कभी भी एक विपक्ष के नेता के रूप में, एक प्रधानमंत्री के रूप में स्थापित लक्ष्मण रेखाओं के पार नहीं गए। वे जब तक जीवित रहे, सक्रिय रहे (अंतिम दिनों को छोडकर)। मुझे अटल जी जितने एक राजनेता के रूप में प्रिय थे उससे ज्यादा एक कवि के रूप में प्रिय थे। चूंकि मैं राजनीति में नहीं रहा, इसलिए उनके साथ काम करने का अवसर मुझे नहीं मिला, लेकिन एक कवि के रूप में मुझे अटल जी को सुनने और अपनी कविताएं सुनाने के अवसर अनेक मिले। अटल जी की पढन्त सबसे अलग थी। उनकी पढन्त की छाप उनके धुर विरोधी विचारधारा के ग्वालियर के मूर्धन्य कवि स्व. मुकुट बिहारी सरोज से लेकर जयंती अग्रवाल के ऊपर तक थी। लोग अटलजी को केवल राजनीति में ही नहीं, बल्कि एक साहित्यकार के रूप में भी फॉलो करते थे।
अटल जी ने हमेशा जोडने की बात की। वे सबका साथ, सबका विकास या अच्छे दिन आएंगे का नारा दिए बिना सबको साथ लेकर चलते रहे। उन्होंने कभी खुलकर हिन्दू-मुसलमान नहीं किया। उन्होंने कभी मोहन भागवत की तरह ज्यादा बच्चे पैदा करो जैसे आव्हान भी देश की जनता से नहीं किया। अटल जी ने पडौसियों से रिश्ते सुधारने की हर संभव कोशिश की। उन्हें इस कोशिश में भारत के पुश्तैनी शत्रु पकिस्तान से धोखा भी मिला, जिसकी परिणति कारगिल युद्ध के रूप में हुई। अटल जी अपने राजनीतिक जीवन में अनेक बार टूटे, लेकिन बिखरे कभी नहीं। वे तब टूटे जब उनकी पहली सरकार 13 दिन में गिरी। वे तब भी टूटे जब उन्हें 13 महीने में गद्दी छोडना पडी। वे सबसे ज्यादा तब टूटे जब उन्हें अपने ही शहर ग्वालियर में लोकसभा चुनाव 1984 में पराजय का सामना करना पडा।
ग्वालियर वासी होने के नाते मुझे हमेशा ये शिकायत रही कि उन्होंने जितना अपनी कर्मभूमि लखनऊ के लिए किया, उतना अपनी जन्मभूमि ग्वालियर के लिए नहीं किया। ग्वालियर से मिली हार को वे आजीवन पचा नहीं पाए। एक प्रधानमंत्री के रूप में पं. जवाहर लाल नेहरू के बाद सबसे जयादा लोकप्रिय प्रधानमंत्री अटल जी ही थे। श्रीमती इन्दिरा गांधी की लोकप्रियता भी बेमिसाल थी, लेकिन अटल जी जैसी नहीं थी। वे साहित्यकार नहीं थीं। विनोदी भी कम ही थीं। अटल जी ने एक प्रधानमंत्री के रूप में देश को परमाणु शक्ति संपन्न देश बनाने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने श्रीमती इन्दिरा गांधी के अधूरे काम को आगे बढाया। अटल जी ने कभी भी पं. जवाहर लाल नेहरू, इन्दिरा गांधी या राजीव गांधी की सरकार को पानी पी-पीकर नहीं कोसा। उन्होंने कभी गैर भाजपाई प्रधानमंत्रियों को खलनायक नहीं कहा।
अटल जी को हमेशा आरएसएस का मुखौटा कहा जाता था, क्योंकि वे संघ के स्वयं सेवक होते हुए भी उदारता की झीनी चादर ओढकर सियासत में सक्रिय रहे। अटल जी के भीतर झांकें तो वहां आपको एक मोदी छिपा मिल जाएगा, लेकिन वे मोदी की तरह उग्र हिन्दू नहीं थे। वे समावेशी थे। गंगा-जमुनी संस्कृति का अर्थ और महत्व जानते थे। वे अक्सर कहते थे कि भारत को लेकर मेरी एक दृष्टि है- ऐसा भारत जो भूख, भय, निरक्षरता और अभाव से मुक्त हो। उन्होंने कभी चुनावों में सावरकर का नाम नहीं लिया, हालांकि वे कहते थे कि क्रांतिकारियों के साथ हमने न्याय नहीं किया, देशवासी महान क्रांतिकारियों को भूल रहे हैं, आजादी के बाद अहिंसा के अतिरेक के कारण यह सब हुआ। अपनी रचना धर्मिता को लेकर उनका हमेशा कहना रहा कि मेरी कविता जंग का ऐलान है, पराजय की प्रस्तावना नहीं। वह हारे हुए सिपाही का नैराश्य-निनाद नहीं, जूझते योद्धा का जय-संकल्प है। वह निराशा का स्वर नहीं, आत्मविश्वास का जयघोष है।
मैं अटल जी को एक हीरो के रूप में देखता हूं, जबकि उनकी और उनकी पार्टी की विचारधारा से मेरा विरोध सनातन रहा। उन्हें ग्वालियर के मेले में बिना सघन सुरक्षा के घुमते हुए, मूंगफलियां चवाते हुए, विनोद करते हुए याद करते हुए मेरा मन आज भी पुलकित होता है। मुझे उनकी हथेलियों की कोमलता और स्निग्ध मुस्कान आज भी याद है। वे अपनी शादी के बारे में पूछे जाने पर कैसे शर्माते थे, मैं भूला नहीं हूं। आप अटल सरकार की उपलब्धियों के बारे में गूगल सर्च का सकते हैं, लेकिन उनके मानवीय गुणों के बारे में जो मैं लिख रहा हूं वो आपको शायद ही कहीं और पढने को मिले। अटल जी की जन्मसदी के मौके पर मैं उन्हें विनम्रता पूर्वक याद करते हुए कामना करता हूं कि वो आरएसएस को मोदी जी जैसे नहीं अटल जी जैसे नेता दें।