– राकेश अचल
मप्र विधानसभा के लिए सात बार चुने जा चुके आठवीं बार चुनाव क्या हारे उनकी शामत आ गई। प्रदेश सरकार के इशारे पर जिला प्रशासन 73 साल के गोविन्द सिंह को बेघर करने पर आमादा है। डॉ. गोविन्द सिंह के गृह नगर लहार में नगर पालिका डॉ. गोविन्द सिंह की कोठी को तोडने पर आमादा है। नगर पालिका का कहना है कि डॉ. गोविन्द सिंह ने सरकारी जमीन पार अतिक्रमण कर कोठी बनाई है। डॉ. गोविन्द सिंह के साथ कोई सहानुभूति न बरतते हुए अब सवाल ये है कि प्रदेश में और कितने डॉ. गोविन्द सिंह हैं जिन्होंने कथित तौर पर सरकारी जमीन पर अतिक्रमण कर लिया है।
विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता डॉ. गोविन्द सिंह के खिलाफ आज जो कार्रवाई हो रही है उसके बीचे अदावत साफ झलकती है और ये अदावत है मौजूदा स्थानीय विधायक की। विधायक जी ने चूंकि डॉ. गोविन्द सिंह जैसे कांग्रेस के दिग्गज को हराया है इसलिए राज्य सरकार को उनकी हर बात मानना पड रही है। डॉ. गोविन्द सिंह जिस नगर पालिका के 40 साल पहले अध्यक्ष रह चुके हैं वो ही नगर पालिका डॉ. गोविन्द सिंह को सरकारी जमीन का अतिक्रमणकर्ता बताकर उनके घर के सामने बुलडोजर लिए खडी है।
मुमकिन है कि डॉ. गोविन्द सिंह ने आम नेताओं की तरह सरकारी जमीन पर अतिक्रमण किया हो, लेकिन सवाल ये है कि प्रदेश में 19 महीने को छोड 2003 से भाजपा की सरकार है, ऐसे में सरकार को डॉ. गोविन्द सिंह द्वारा किया गया अतिक्रमण क्यों नहीं दिखा? या तो डॉ. गोविन्द सिंह से सरकार का गठजोड रहा होगा या सरकार उनसे डरती होगी? इसमें कोई संदेह नहीं कि डॉ. गोविन्द सिंह ने अपने 34 साल के राजनीतिक कैरियर में सिर्फ घास नहीं छीली होगी। कुछ कमाया-धमाया होगा। हर विधायक ऐसा करता है। दल कोई भी हो। लेकिन सवाल ये है कि सरकार के निशाने पर अकेले डॉ. गोविन्द सिंह ही क्यों हों?
सरकारी जमीनों पर अतिक्रमण करना एक आम प्रवृत्ति है। ये प्रवृत्ति खास लोगों में ज्यादा होती है। पार्षद से लेकर केन्द्रीय मंत्री तक इस बीमारी से मुक्त नहीं है। वे भी जो अत्यंत साधारण परिवारों से राजनीती में आए हैं और वे भी जो चांदी की चम्मचें मुंह में रखकर पैदा हुए, यानि राजा-महाराजा। राज्य सरकार में यदि साहस है तो उसे अकेले एक डॉ. गोविन्द सिंह पार हाथ डालने के बजाय 2003 के बाद विधायक, सांसद और मंत्री बने तमाम लोगों की संपत्तियों की जांच करने के लिए विधानसभा की एक समिति गठित करना चाहिए। मेरा विश्वास है कि यदि सही तरीके से जांच की जाए तो निवर्तमान और वर्तमान मुख्यमंत्री से लेकर पहली बार मंत्री बने विधायक तक इस जद में आ जाएंगे।
एक पत्रकार के नाते मैं अपने चार दशक से ज्यादा के कैरियर में ऐसे तमाम गोविन्द सिंहों को जानता हूं जो आरंभ में लूना पर या टूटे स्कूटर पर चलते थे और आज उनके पास हजारों करोड की चल और अचल संपत्ति है। इसमें सरकारी जमीने भी शामिल हैं। कुछ को तो सरकारी जमीने हडपने की कोशिश में हत्या के अपराध जैसे आरोपों का समान करना पडा, मंत्री पद छोडने पडे। लेकिन न किसी का मकान टूटा और न कॉम्प्लेक्स। हमारे अपने शहर में एक पूर्व मंत्री के संरक्षण में बने एक पंचतारा होटल के लिए सरकारी फुटपाथ पर कब्जा कर लिया गया, लेकिन मजाल है कि कोई नगर निगम उनके होटल की तरफ देखे भी। आखिर वे सरकारी पार्टी के टीनोपाल से धुले नेता जो हैं।
डॉ. गोविन्द सिंह को भी मैं दूध से धुला नहीं मानता। लेकिन इतना जनता हूं कि वे दूसरे जन प्रतिनिधियों के मुकाबले कम लालची और दागदार हैं। उन्होंने बीहड की जमीन हडपी या कस्बे की इसकी जांच यदि हो रही है तो खूब हो, लेकिन फिर एक डॉ. गोविन्द सिंह की नहीं सभी दलों के गोविन्द सिंहों की हो। जांच और कार्रवाई का आधार अदावत नहीं होना चाहिए। मेरा दावा है कि प्रदेश के हरजिले में, हर दल में एक नहीं अनेक डॉ. गोविन्द सिंह मिल जाएंगे। जो एक बार विधायक या मंत्री बना उसने सरकारी संपत्ति को हडपा है। उसके खिलाफ पिछले दो दशक में खासतौर पर मोदी युग में कोई ईडी या सीबीआई छापा मारने नहीं निकली। लोगों ने व्हाइट हॉउस जैसे महल तक बना लिए। शहरों में फुटपाथ तक हडप लिए, लेकिन उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं, क्योंकि वे या तो सरकारी दल के जन्मजात कार्यकर्ता हैं या फिर दल-बदल कर भाजपाई हो गए हैं।
गोविन्द सिंह का बुढापा खुले में कटेगा या जेल में ये कोई नहीं जानता, लेकिन इतना तय है कि अदावत की ये राजनीति देश की तरह, उत्तर प्रदेश की तरह प्रदेश के राजनीतिक सौहार्द को भी चौपट कर देगी। राजनीतिक सौहार्द का अर्थ मिलकर प्रदेश को लूटने से बिल्कुल नहीं। ये तो 2003 से लगातार मप्र में हो ही रहा है। मजेदार बात ये है कि माननीय अदालत ने भी अदावत की इस राजनीति के पचडे में पडने से इन्कार करते हुए डॉ. गोविन्द सिंह के परिजनों की याचिका को खारिज कर दिया है। यानि गेंद अब सरकार के पाले में है।