आइये! सूर्य की उपासना करें

– राकेश अचल


राम के रंग में रंगे जा रहे भारत देश में कल और आज का दिन सूर्य की उपासना का दिन है। जैसे रघुवंश है वैसे ही सूर्यवंश भी है। आज जब हम सूर्य के रहस्य जानने के लिए आतुर हैं, वहां अपने खोजी यान भेज रहे हैं तब भी हमें सूर्य की आराधना करने से न कोई रोक सकता है और न कोई उसके लिए अभियान पूर्वक प्रेरित कर सकता है, क्योंकि सूर्य की आराधना की एक लम्बी प्राचीन परम्परा है। सूर्य की आराधना के इस पर्व को हम मकर संक्रांति कहते हैं, जो भारत के अलावा दुनिया के आधा दर्जन से अधिक देशों में मनाया जाता है, भले ही वे हिन्दू राष्ट्र नहीं है।
हमारे यहां हर त्यौहार और पर्व सबके पीछे कहानियां हैं, किवदंतियां हैं और बड़ी रोचक हैं। हम सूर्य को एक ग्रह के अलावा एक प्राणवान संज्ञा भी मानते हैं। हमारे लिए सूर्य देवता है। चूंकि सूर्य देवता है, इसलिए उसके रिश्ते-नाते हैं। कहा जाता है कि मकर संक्रांति को भगवान भास्कर अपने पुत्र शनि से मिलने स्वयं उसके घर जाते हैं। चूंकि शनिदेव मकर राशि के स्वामी हैं, अत: इस दिन को मकर संक्रांति के नाम से जाना जाता है। मकर संक्रांति के दिन ही गंगाजी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होती हुई सागर में जाकर मिली थीं।
सूर्य को लेकर हमारी मान्यताएं, संस्कृति और सभ्यता के विकास के साथ जुड़ी है। सूर्य अनादि और अनंत है। त्रेता में भी था और कलियुग में भी है और पता नहीं कब तक सूर्य का अस्तित्व रहने वाला है। सूर्य को लेकर जो धारणाएं हैं वे जैसी द्वापर में थीं वैसी आज भी हैं। महाभारत के समय जिस तरह भीष्म पितामह ने सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा की थी, वैसी ही आज भी हम में से अधिकांश लोग सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा करते हैं, शुभ कार्यों के शुभारंभ के लिए। वक्त बदलता है, वक्त के साथ मान्यताएं बदलती हैं, कमजोर भी होती हैं और कभी-कभी उनका अस्तित्व भी हासिये पर आ जाते है, किन्तु वे पुनर्जीवित हो जाती हैं। ठीक उसी तरह जैसे आज राम को पुन: जीवित कर प्राण-प्रतिष्ठित किया जा रहा है। गनीमत है कि अभी तक किसी सियासी दल ने सूर्य का पेटेंट अपने नाम नहीं कराया है, हालांकि अतीत में सूर्य अनेक राजा-महाराजाओं के ध्वजाओं पर अंकित रहते थे। हमारे ग्वालियर के सिंधियाओं की ध्वजा पर भी सूर्य और नाग अंकित हैं।
हमारी दादी-नानी आज के दिन हमें महाभारत काल में भीष्म प्रतिज्ञा की कहानी अवश्य सुनाती थी। भीष्म की प्रतिज्ञा केवल अविवाहित रहने की नहीं थी, बल्कि उन्होंने सूर्य के उत्तरायण होने तक प्राण न त्यागने की प्रतिज्ञा भी की थी। भीष्म को इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त था। आज के बच्चों को ये रोचक किस्सा कोई नहीं सुनाता। किस्सा है कि महाभारत के युद्ध में कौरवों की ओर से लड़ते हुए भीष्म पितामह अर्जुन के बाणों से घायल होकर वीरगति को प्राप्त हुए थे। महाभारत काल में भीष्म पितामह ने अपनी देह त्यागने के लिए मकर संक्रांति का ही चयन किया था, एक दिन युद्ध खत्म होने के बाद सभी पाण्डव और द्रौपदी भीष्म पितामह से मिलने पहुंचे, जब पाण्डव भीष्म के पास पहुंचे तो भीष्म उन्हें धर्म-अधर्म और राजनीति का भेद बताया। द्रौपदी ने भीष्म से पूछा कि आज आप ज्ञान, धर्म की इतनी बातें कर कर रहे हैं, लेकिन जब भरी सभा में मेरा चीरहरण हो रहा था, तब आप चुप क्यों थे? आप तो धर्म जानते हैं, फिर मेरी मदद क्यों नहीं की? भीष्म पितामह ने द्रौपदी से कहा कि मैं जानता था, एक दिन मुझे इस सवाल का जवाब जरूर देना होगा, जिस दिन तुम्हारा चीरहरण अधर्म हो रहा था, उस समय मैं दुर्योधन का दिया अन्न खा रहा था, मैं गलत लोगों की संगत में फंसा था, दुर्योधन का दिया अन्न पाप कर्मों से कमाया हुआ था, ऐसा दूषित अन्न और गलत संगत की वजह से मैं दुर्योधन के अधीन हो गया। इस वजह से ही मैं उस दिन तुम्हारी मदद नहीं कर सका।
बहरहाल भारत में आज का दिन अलग-अलग नामों से मनाया जाता है। छत्तीसगढ़, गोआ, ओड़ीसा, हरियाणा, बिहार, झारखण्ड, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, राजस्थान, सिक्किम, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पश्चिम बंगाल, गुजरात और जम्मू में ये मकर संक्रांति है, तो तमिलनाडु में ताइ पोंगल, उझवर तिरुनल, गुजरात, उत्तराखण्ड में उत्तरायण, जम्मू में उत्तरैन, माघी संगरांद, कश्मीर घाटी में शिशुर सेंक्रात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब में ये माघी कही जाती है। असम में इसका नाम भोगाली बिहु है, तो उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार में ये खिचड़ी कही जाती है। पश्चिम बंगाल वाले इसे पौष संक्रांति एवं कर्नाटक वाले इसे मकर संक्रमण कहते हैं। मकर संक्रांति भारत के अलावा मैंने नेपाल, म्यांमार, बांग्लादेश, थैलेन्डे, लाओस और श्रीलंका में भी मानते हुए देखा है।
मुझे याद है वो जमाना जब घरों में बिजली और गैस से चलने वाले गीजर नहीं थे, तब भी हम सब अपने गांव के पास बहने वाली एक पतली सी नदी में डुबकी लगाने जाते थे। उस समय नदी के पानी के ऊपर से भाप उठती थी। पानी में हाथ लगाना भी दुष्कर लगता था किन्तु एक बार नदी में उतरे तो सतह के नीचे का पानी एकदम गुनगुना होता था। डुबकी के बाद घर में सूर्य को अघ्र्य देने का प्रावधान था। हम सब सूर्य की ओर मुंह कर ताम्बे या पीतल के पात्र में जल भरकर सूर्य को अर्पित करते था। तब हमें पता नहीं था कि सूर्य तो पृथ्वी से कितनी दूर स्थित है? यदि हमें पता होता कि सूर्य पृथ्वी से नौ करोड 29 लाख 60 हजार मील दूर है तो हम अपनी दादी-नानी से अवश्य पूछते कि इतनी दूर हमारे द्वारा अर्पित पानी कैसे पहुंच सकता है?
मकर संक्रांति के दिन घरों में तिल के लड्डू, मूंग की दाल, बेसन के सेव, लाई, मक्के के फुटके, चने की दाल के लड्डू, ज्वार और गुड़ की तिल लगी छोटी पूरियां अवश्य बनते थे। खिचड़ी, मंगौड़े ब्याज में मिलते थे। अब कुछ नहीं बनता। अब सब कुछ बाजार से आता है। कौन मन्दिरों में दान-पुण्य करने जाए? लेकिन ग्रामीण भारत में ये परम्पराएं महंगाई की मार के बावजूद आज भी अक्षुण्ण हैं। आज भी मन्दिरों में खिचड़ी और तिल से बने मिष्ठान भेजे जाते हैं। नदियों में डुबकी लगाई जाती है। हालांकि अब नदियां वैसी नहीं बचीं जैसी आज से 50 साल पहले थीं। कुल मिलाकर हम आज भी सूर्य के आराधक हैं, क्योंकि सूर्य आज भी हमें ऊष्मा, ऊर्जा बिना किसी टैक्स, बिना किसी पक्षपात के देता है। सूर्य कभी अगड़ा-पिछड़ा, ओबीसी, दलित, महादलित नहीं देखता। सूर्य को सियासत नहीं आती। सूर्य सच्चा समाजवादी और सबसे बड़ा दानी है, सूर्य को कोई अभिमान नहीं है अपनी क्षमताओं को लेकर। सूर्य पृथ्वी का बड़ा भाई है। पृथ्वी से 109 गुना बड़ा होने के बाद भी सूर्य ने पृथ्वी का साथ नहीं छोड़ा। आज भी पृथ्वी समेत तमाम गृह सूर्य के आस-पास घूमते हैं। ऐसे महासूर्य के उत्तरायण होने के अवसर पर अपने तमाम पाठकों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई। ये बधाई सुरों को भी और असुरों को भी। ये बधाई रामभक्तों को भी और ये बधाई न्याय यात्रा करने वालों को भी।