गोधन, गजधन, बाजधन पूजने का ढोंग

– राकेश अचल


दीपावली सरयू के घाटों पर 24 लाख दीपक जलाने का कीर्तिमान रचकर मना ली गई। अब देश में गोधन पूजा की बारी है। कृषि प्रधान भारत में गोधन यानी गाय-बैल एक जमाने में धन के समान मूलयवान होते थे। इन्हीं के आधार पर व्यक्ति की हैसियत का आकलन होता था। मध्यकाल में गोधन के बजाय गजधन और बाजधन महत्वपूर्ण माना जाता था, यानि उस समय जिस राजा के पास सेना में जितने ज्यादा हाथी और घोडे होते थे वो शक्तिशाली माना जाता था। बाद में कलियुग में अडानी-अम्बानी का युग आया इसमें रत्न-धन की महत्ता बढी, यानि जिसके पास जितना ज्यादा सोना-चांदी और हीरा-जवाहरात वो उतना बडा आदमी माना जाने लगा। लेकिन भक्तों ने कहा कि नहीं बाबा! सबसे बडा संतोष धन होता है। ये संतोष धन जिसके पास है उसके सामने बांकी के समस्त धन धूल के समान हो जाते हैं।
संतोष को सभी धनों में अधिक मूलयवान बताने वाले कबीर बाबा थे या तुलसी बाबा इससे कोई फर्क नहीं पडता। फर्क इस बात से पडता है कि ये बात आज के पूंजीवादी युग में किसके लिए ज्यादा काम की है? मुझे तो लगता है कि संतोष को सबसे बडा धन बताना आज के जमाने में अडानी-अम्बानी का संरक्षण करना है। संतोष को सबसे बडा धन बताकर संतों ने जनता से कह दिया कि बेटा! माया-मोह से दूर रहो। गोधन, गजधन, बाजधन और रत्न धन को छोडो। तुम्हारे लिए तो भारत की लोक कल्याणकारी सरकार पांच किलो राशन मुफ्त में मुहैया करने के लिए कटिबद्ध है ही। कलियुग में एक जून का भोजन ही मिल जाए यही क्या कम है, अन्यथा दुनिया में इतनी घृणा और हिंसा है कि आप दो जून का भोजन तो छोडिये दो दिन में एक जून का भोजन भी आसानी से नहीं जुटा सकते।
दीपावली के दूसरे ही दिन हमारे गांव में घर-घर गोधन की पूजा होती थी। घर के आंगन में गाय का गोबर एकत्र कर एक ऊंचा ढेर बनाया जाता थ। उसे फूल-पत्तियों और गुलाल से सजाया जाता। फिर उसकी धूप-दीप और नैवेद्य से पूजा होती। प्रसाद में चावल और दूध का इस्तेमाल होता था। गाय-बैलों का श्रृंगार किया जाता था। उन्हें नहलाने नदी, तालाब, पोखर में जाते थे। गाय-बैलों के ही नहीं भैंसों तक के खुर और सींग रंगे जाते थे। आलू काटकर उसके सांचे बनाकर पशुओं की पूरी देह पर एक तरह से पेंटिंग बना दी जाती थी। कौंडी, मोरपंख और रंगीन डोरियों से बने आभूषण गाय और बैलों को पहनाए जाते थे। गले में सुरीली घंटियां बांधी जाती थीं। सभी पालतू गोधन कहें या गौवंश को बढिया पौष्टिक खाना दिया जाता था, क्योंकि ये गोधन ही हमारी अर्थ व्यवस्था की धुरी था। तब खेती बैलों के जरिये हल-बखर से होती थी। मशीनें नहीं आई थीं।
आज गोधन की पूजा एक रिवाज भर बनकर रह गया है। देश का गौवंश सडकों पर आवारगी के लिए अभिशप्त है। उसको भरपेट खाना और आश्रय ही मिल जाए तो बहुत है। पूजा तो बहुत दूर की बात है। कोई गाय और बैलों को घर में बांधने के लिए तैयार नहीं है, लेकिन कथित भक्तगण गौवंश की रक्षा के नाम पर मनुष्यों का वध करने के लिए संगठित गिरोहों की तरह काम कर रहे हैं। सरकारी बजट से खुलने वाली गौशालाओं के नाम पर अनुदान हडपे जा रहे हैं। गाय (पूरा गौवंश नहीं) अब धर्म और आस्था से जोडकर राजनीति की जा रही है। गाय और गाय का वंश अब धन नहीं रहा, आफत हो गया है, बोझ हो गया है।
तमाम अनदेखी और उपेक्षा के बावजूद सरकारी आंकडे कहते हैं कि भारत में आज भी 20 करोड के आस-पास गाये हैं। इनमें हर साल आठ फीसदी का इजाफा हो रहा है, लेकिन ये हैं किसी काम के नहीं। खेतों में इनके लिए जगह नहीं। घरों में इनके लिए जगह नहीं। इनके लिए बनीं गौशालाएं नर्क के समान हैं या इन पर कथित स्वयंसेवी संगठनों और बाबाओं का कब्जा है। ये सरकारी अनुदान पर मोटे हो रहे हैं और गौवंश पतला और दुर्बल। देश के यातायात के लिए अनाथ गौवंश सबसे बडा खतरा है। अधिकांश दुर्घटनाओं के लिए ये अनाथ गौवंश ही सबसे बडी वजह है। हम इसकी परवाह किए बिना केवल गोधन पूजने का नाटक कर रहे हैं। भारत में आप गौवंश का वध नहीं कर सकते हालांकि यदि गौमांस मिल जाए तो खाने वालों कि कमी नहीं है। भले ऐसे लोगों को आप म्लेच्छ कहें।
आपको यकीन नहीं होगा, लेकिन ये सत्य है कि जिस देश में गोधन की पूजा होती है, उसी देश में सबसे बडे बूचडखानों के मालिक हिन्दू हैं और वे सालों कम से कम 650 करोड का कारोबार गोधन का मांस बेचकर करते हैं। उन्हें पाप नहीं लगता, वे नर्क में नहीं जाते। वे सत्ता के प्रिय चंदादाता माने जाते हैं। ये विसंगति है। इस विसंगति की वजह है कि देश की 80 करोड जनता पांच किलो मुफ्त के अन्न पर पल रही है। उसके पास संतोष का धन है। उसकी नजरों में अडानी-अम्बानी और नेताओं के पास जमा अकूत धन धूल के समान है। देश में गोधन की पूजा को कहीं-कहीं मथुरा के गोवर्धन पर्वत की पूजा भी माना जाता है, क्योंकि इस गोवर्धन पर्वत को कृष्ण ने अपनी उंगली पर उठाकर बृज की जनता और गौवंश को इन्द्र के कोप से बचाया था।
देश बदल रहा है, तेजी से बदल रहा है। इसलिए गोधन की पूजा के प्रति लोगों का आकर्षण भी कम हो रहा है। आज की पीढी के बच्चे गाय के गोबर को हाथ नहीं लगते। उनके लिए गोबर ‘काऊ डंग’ है। वे नहीं जानते कि उनके पुरखे गाय के इसी गोबर का ईंधन का रूप में इस्तेमाल करते आए हैं। अब भले ही सभी राजनितिक दल 500 रुपए में रसोई गैस देने की घोषणा कर रहे हैं, किन्तु एक जमाना था जब देश के बहुसंख्यक घरों की रसोई में गैस के सिलेण्डर नहीं गाय के गोबर के कण्डे भरे रहते थे। हमारे छत्तीसगढ की सरकार तो आज भी गोबर का महत्व समझती है और उसे दो-ढाई रुपए किलो के भाव से खरीदकर गरीबों की मदद भी कर रही है। भले ही भाजपा वाले इसे भी बिहार के चारा घोटाले की तरह छग का गोबर घोटाला कह रहे हैं।
मेरे कहने का आशय ये है कि अब समय आ गया है जब हम रीति-रिवाजों की समीक्ष करें, यदि वे कालातीत हो चुके हैं और उन्होंने आडम्बर का रूप ले लिए है तो या तो उन्हें त्याग दें या फिर सचमुच उन्हें उनके मूल स्वरूप में अंगीकार करें। खासकर धन के मामले में। संतोष का धन केवल मुफ्त के अन्न पर पल रहे 80 करोड लोगों के लिए जरूरी नहीं है, बल्कि इस संतोष धन की जरूरत उन धन पशुओं को भी है जो बेरहमी से देश को, देश कि जनता को, देश की सरकार को लूट रहे हैं। मिल-जुलकर लूट रहे हैं। साजिशें करके लूट रहे हैं और कोई कुछ नहीं कर पा रहा। ईडी और सीबीआई भी केवल उन धन पशुओं पर धावा मारती है जो सरकार के निशाने पर होते हैं। जो सत्ता में है उसे ईडी सीबीआई मुडकर भी नहीं देखती। उसे केन्द्रीय मंत्री के बच्चे करोडों की डील करते हुए नहीं दिखाई देते।
बहरहाल आप सभी को एक बार फिर गोधन पूजा की शुभकामनाएं, साथ ही अनुरोध है कि आने वाले दिनों में आप यदि मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ और तेलंगाना में रहते हैं तो इस गौवंश की रक्षा के हित में एक अच्छी साकार बनाने के लिए मतदान करें। हर पार्टी के शासन, सुशासन और कुशासन को आप देख चुके हैं। सही फैसला आपको ही करना है। आप कौन सा धन पूजना चाहते हैं, ये आप खुद तय कीजिये।