– राकेश अचल
ग्वालियर का हर निवासी यूनेस्को का कृतज्ञ है कि उसने ‘संगीत के तीर्थ’ ग्वालियर को ‘सिटी आफ म्यूजिक’ का दर्जा देकर सम्मानित किया, लेकिन मेरे मन में इस ऐलान से कोई हलचल नहीं है। मुझे पता है कि ग्वालियर सदियों से संगीत का ही शहर था, तीर्थ था, है और कल का पता नहीं रहेगा या नहीं? बचपन से सुनते आए हैं कि यहां गधा भी सुर में रेंकता है। नवजात शिशु के रुदन में भी संगीत होता है। दुर्भाग्य ये कि ग्वालियर को ये बताने में और यूनेस्को को ये जानने और मानने में पूरे 78 साल लग गए कि भारत का एक शहर ग्वालियर संगीत का नगर है।
ग्वालियर के लोग विधानसभा चुनावों के शोर-शराबे की वजह से शहर को मिले इस सम्मान का जश्न नहीं मना पाए। दिल्ली में बैठे हमारे कुछ कांग्रेसी मित्र इस सम्मान को प्रायोजित मानते हैं। कहते हैं कि ये हमारे महाराजाधिराज ज्योतिरादित्य सिंधिया और युगावतार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की वजह से मुमकिन हुआ। मोदी जी के हाल ही में ग्वालियर आने के बाद यूनेस्को ने ये ऐलान जो किया था। मुमकिन है कि उनकी धारणा और सूचनाएं सही हों, लेकिन मेरा मानना है कि मात्र यूनेस्को के दर्जा देने से ग्वालियर संगीत का नगर नहीं बन जाता। ग्वालियर को संगीत का नगर बनाने में राजाओं, महाराजाओं के साथ ही कलाकारों और प्रजा का भी उतना ही योगदान है, जितना कि होना चाहिए। यदि ऐसा न होता तो 15वीं सदी से शुरू हुई ग्वालियर की संगीत यात्रा आज समाप्त न हो जाती। ग्वालियर की महान संगीत यात्रा तब भी जारी थी और आज भी जारी है।
ग्वालियर की संगीत परम्परा के बारे में मैं आपको कोई इतिहास पढाने वाला नहीं हूं, क्योंकि ये एक गंभीर और गरिष्ठ विषय है। मैं तो आपको अपने ग्वालियरी होने के तजुर्बे की बातें बताना चाहता हूं। मैं उन लोगों में से हूं जो ग्वालियर संगीत घराने की उस अंतिम पीढी से मिले हैं, जिससे ग्वालियर का मान कल तक था और आज भी है, भले ही ऐसे लोगों ने ग्वालियर से अपना नेह-नाता तोड दिया है। ग्वालियर घराने के मूर्धन्य गायक पं. कृष्णराव पंडित मेरे पडौसी थे। मैंने उन्हें गाते हुए सुना है। उनसे बातें की हैं और महसूस किया है कि 20वीं सदी में ग्वालियर का जो संगीत था उसकी सूरत 15वी-16वीं सदी में कैसी रही होगी। संगीत सम्राट का सम्मान राजा मानसिंह के बजाय तानसेन को कैसे मिला होगा?
ग्वालियर का संगीत भारतीय शास्त्रीय संगीत के अनेक घरानों में विशिष्ट अपनी तानों, स्वर की शुद्धता और आलाप की वजह से विशिष्ट रहा है। जिन लोगों ने पं. भीमसेन जोशी को गाते हुए सुना होगा वे इस बात को आसानी से समझ सकते हैं। पंडित जी केवल कुछ समय के लिए ग्वालियर संगीत की इस विशेषता को हांसिल करने पुणे से भागकर ग्वालियर आए थे। पं. भीमसेन जोशी ग्वालियर के इस उपकार को ताउम्र नहीं भूले। लेकिन ग्वालियर संगीत घराने की बागडोर जिन हाथों में थी वे एक के बाद एक ग्वालियर को भूल गए। वे अब ग्वालियर के अतिथि हैं। उन्हें ग्वालियर की इसी संगीत परम्परा के कारण देश और दुनिया में सम्मान, यश-कीर्ति और लक्ष्मी मिली है।
ग्वालियर की सुदीर्घ संगीत परम्परा आज भी जनता की थाती नहीं बन पाई है। ग्वालियर का संगीत कल भी राज्याश्रित था और आज भी है। कल भी संगीत सम्राट तानसेन को राजा मानसिंह से लेकर मुगल बादशाह अकबर का आश्रय मिला हुआ था और आज भी तानसेन समारोह को सरकार ही आयोजित करती है। ग्वालियर के स्थापित किराना घराने के जीवित कलाकार इस समरोह में आने के लिए भी सरकार से पारश्रमिक लेते हैं। सरकार यदि मदद न करे तो ग्वालियर का संगीत दम तोड दे। ग्वालियर के संगीत को जीवित रखने की छोटी-छोटी कोशिशें संगीत के विश्व-विद्यालय और महाविद्यालयों में ही नहीं महरानी लक्ष्मीबाई का अंतिम संस्कार करने वाली गंगादास महाराज की बडी शाला में भी नियमित संगीत सभाओं के आयोजन के जरिये होती है। लेकिन ये कब तक जारी रह पाएगी?
ग्वालियर का संगीत घराना तानसेन से चलकर उमेश कम्पू वाले तक आ पहुंचा है। आज ग्वालियर घराना सात हिस्सों में बांट चुका है। आधी सदी पहले जब मैं ग्वालियर आया था तब ग्वालियर घराने की विशेषताओं के बारे में रत्तीभर नहीं जानता था। मुझे पं. कृष्णराव पंडित ने बताया कि ग्वालियर घराने में कोई सात-आठ बातों पर ध्यान दिया गया। जैसे ध्रुपद अंग के ख्याल, जोरदार तथा खुली आवाज, बहलावा से विस्तार, गमक का प्रयोग, सीधी तथा सपाट तानों का विशेष प्रयोग, लयकारी और कभी-कभी लडन्त, ठुमरी के स्थान पर तराना गायन और इन सभी की तैयारी पर विशेष बल दिया जाता है। पंडित जी अब नहीं है। उनकी पौत्री मीता पंडित अब इस घराने की ध्वज वाहक हैं। वादन में उस्ताद अमजद अली साहब की दूसरी पीढी अमान और अयान खान सरोद बजा रहे हैं। लेकिन उनका रिश्ता ग्वालियर से अब नाम का है।
ग्वालियर को संगीत नगरी की पहचान देने के लिए ग्वालियर नगर निगम और स्मार्ट सिटी परियोजना ने करोडों रुपए खर्च करके संगीत सम्राट तानसेन की भौंडी प्रतिमाएं लगा दी हैं। चौराहों को वाद्य यंत्रों की अनुकृतियों से सजा दिया है। सरकार ने संगीत का विश्व विद्यालय खोल दिया है, लेकिन इस सबसे ग्वालियर का संगीत नगरी होना प्रमाणित नहीं होता। ग्वालियर में ध्रुपद कला केन्द्र भी है, कला गुरू भी है। लेकिन गुरू-शिष्य परम्परा दम तोड रही है। क्योंकि संगीत साधकों को संगीत रोजी और रोटी देने की गारंटी आज तक नहीं बन पाया है। ग्वालियर के निर्जीव दुर्ग, ऐतिहासिक इमारतें संगीत की परम्परा के यशस्वी होने की गवाही तो दे सकती हैं, किन्तु वास्तव में ग्वालियर का संगीत तभी चर स्थाई हो सकता है, जब सरकार के साथ-साथ संगीत के उस्ताद वापस ग्वालियर लौटें। संगीत की सेवा करें। वे संगीत से बहुत मेवा कमा चुके। अब उन्हें ग्वालियर के संगीत के प्रति अपनी कृतज्ञता भी ज्ञापित करना चाहिए। यूनेस्को द्वारा दिया गया सम्मान तभी ग्वालियर को संगीत नगरी होने के गौरव का अहसास करा सकता है, अन्यथा नहीं। फिर भी यूनेस्को का आभार।