अशोक सोनी ‘निडर’
मुझे याद नहीं है कि लगभग ५0 दशक पूर्व तक भारत के जन मानस में बसे होली दिवाली या रक्षा बंधन जैसे पावन त्यौहार दो दिन के मनाए गए हों। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से ये पर्व भी दो दो दिन के मनाए जाने लगे हैं। पिछली साल भाई बहन का पवित्र पर्व रक्षा बंधन भी महूर्त की भेंट चढ़ गया, जिसके चलते कई सैनिक या अन्य नौकरी पेशा भाई समय पर बहनों से राखी नहीं बंधा पाए।
अब बात करें होली की तो ज्योतिष के अनुसार कहीं छह तारीख को होली जलाई गई तो कहीं सात तारीख को जलाई जाएगी। हम सब एक तरफ तो सनातनी-सनातनी का खेल खेल रहे हैं, दूसरी ओर अपने अति महत्त्वपूर्ण पर्वों पर एक मत नहीं हो पाते हैं, जब कि मुस्लिम धर्म या अन्य धर्मों में सारे त्योहार एक निश्चित समय पर पूरे देश में मनाए जाते हैं, लेकिन हम ज्योतिष कहें या ज्योतिषियों पर अंधविश्वास करके अपने त्योहारों को दुरंगा करने पर उतारू हैं, क्या ऐसा करके हम अन्य धर्मालंबियों के सामने अपने आपको कमजोर नहीं कर रहे या उन्हें ये कहने का मौका नहीं दे रहे कि जब हिन्दुओं के त्योहार एक दिनी नहीं हैं तो हिन्दू एक कैसे होंगे। अरे भाई जब देश एक है तो कलेंडर या पंचांग भी एक होना चाहिए, चलो ये भी मान लें कि क्षेत्र की परिस्थिति अनुसार कुछ जगहों के गृह नक्षत्र बदल जाते हैं, पंचांग भी बदल जाते हैं, तो कम से कम पचास, सौ किमी के दायरे में तो ऐसा नहीं हो सकता कि मुहूर्त बदल जाएं। मैं ज्योतिष को गलत नहीं मानता, लेकिन उनके गणितज्ञ ही अनभिज्ञता के कारण अगर एकमत न हो पाएं तो क्या कहा जा सकता है। आज-कल विवाह में भी चलन हो गया है कि वर वधू की कुण्डली सही बनी हो या न बनी हो, पण्डित जी येन-केन-प्रकारेण मिला ही देते हैं फिर भविष्य कुछ भी हो। दूसरी ओर पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव भी दिखाई देता है, पण्डित जी बेचारे मुहूर्त निकल जाने की आवाज लगा रहे हैं और युवा मण्डली फोटोग्राफी, हुड़दंग, डांस में व्यस्त हैं। मैं सभी पण्डितों, ज्योतिषियों से विनम्र आग्रह करता हूं कि देश में नहीं तो कम से कम अपने क्षेत्र में तो एकमत से निर्णय लेकर जनता के विश्वास और त्योहारों की गरिमा बनाए रखें। उन्हें परिहास का माध्यम न बनाएं।