भिण्ड, 16 अक्टूबर। जो गृहस्थ होकर भी दान, पूजा, दया, धर्म नहीं करता है, तो उसका गृह स्थपना व्यर्थ है। अर्थात् गृहस्थ अवस्था की कोई शोभा नहीं है, क्योंकि गृहस्थ की शोभा दान, दया और धर्म से होती है। श्रावक के मुख्य दो कत्र्तव्य हैं- दान देना और पूजा करना। यदि श्रावक होकर भी दान तथा पूजा नहीं करता है तो वह श्रावक ही नहीं है वह तो पशु के समान है। जैसे जो साधु होकर भी ध्यान तथा अध्ययन नहीं करता है तो वह साधु भार स्वरूप है, उस साधु की कोई कीमत नहीं। इसलिए श्रावक को दान और पूजा करते रहना चाहिए तथा साधु को ध्यान और अध्ययन करते ही रहना चाहिए। उक्त उद्गार मुनि श्री विश्रांत सागर महाराज ने उपदेश देते हुए व्यक्त किए।
मुनि श्री विश्रांत सागर महाराज ने कहा कि दान और पूजा भाव सहित करना कयोंकि भाव से रहित होकर दान पूजा तो अनादि काल से किया है, अभिषेक करते करते भगवान की प्रतिमा घिस गई, पूजा करते-करते अनेकों धोती, दुपट्टे फट गए, पूजा के बर्तन टूट गए, पर्वतों के बराबर द्रव्य चढ़ा रहे हैं, परंतु हमारा कल्याण नहीं हो पाया। साधु भेष भी अनंत बार ग्रहण कर लिया परंतु आत्म ज्ञान नहीं कर पाए, इस कारण संसार के दुखों को प्राप्त करते जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि सच्चा सुख चाहते हो तो सच्चे मन से भगवान की पूजा करो, गरीबों का उपकार करो, साधुओं को दान करो तथा ध्यान अध्ययन करो, इसी से कल्याण होगा।