विपक्षी दलों में खलबली के खतरनाक संकेत

– राकेश अचल


भारत में लोकतंत्र खतरे में हो या न हो, लेकिन तमाम विपक्षी दल जरूर खतरे में नजर आ रहे हैं। अनेक क्षेत्रीय दल अब सत्तारूढ भाजपा से मोर्चा लेने के बजाय उसकी शरण में जाने के लिए लालायित दिखाई दे रहे हैं। भारत के दो दलीय लोकतंत्र के लिए एक तरह से ये ठीक भी है और नहीं भी, लेकिन होनी को कौन टाल सकता है?
पिछले महीने महाराष्ट्र, हरियाणा विधानसभा में पराजय के बाद इंडिया गठबंधन के अनेक सहयोगी दल दिल्ली विधानसभा के चुनाव के समय अपनी-अपनी ढपली बजाकर अपना-अपना राग सुनाने लगे हैं। दिल्ली में शुरुआत आम आदमी पार्टी ने की। आम आदमी पार्टी ने इंडिया गठबंधन से कांग्रेस को अलग करने की मांग की। आम आदमी पार्टी दिल्ली में कांग्रेस के साथ चुनाव लडने को राजी नहीं थी। कांग्रेस ने जब पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के खिलाफ कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के पुत्र को उतारा तो आम आदमी पार्टी बिदक गई। उसने कांग्रेस को ही भाजपा की बी टीम कह दिया।
महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव हार चुके महाराष्ट्र विकास अघाडी के सदस्य एनसीपी के शरद पंवार गुट को भी अब भाजपा प्रिय लगने लगी है। महाराष्ट्र के दिग्गज शरद पंवार का ये आखरी चुनाव था। वे अब ये कहते नहीं थकते कि संघ जैसा कोई नहीं। संघ ने ही भाजपा को प्रचण्ड विजय दिलाई। भाजपा के हाथों खण्डित हो चुके शिव सेना उद्धव ठाकरे गुट के प्रमुख उद्धव ठाकरे को भी अब अपना वजूद संकट में नजर आ रहा है, वे भी अब हिन्दुत्व का राग अलापते दिखाई दे रहे हैं और वो दिन भी दूर नहीं है जब वे भाजपा के सहयोगी बन जाएं, क्योंकि न अब पंवार को लडना आता है और न उद्धव ठाकरे को। ये केवल परास्त ही नहीं बल्कि हिम्मत हार चुके योद्धा बनकर रह गए हैं।
बंगाल की शेरनी कही जाने वाली ममता बनर्जी तो पहले से इंडिया गठबंधन की अगुवाई करने का मन बनाए बैठी हैं, वे भाजपा से अब तक जूझती आई हैं, लेकिन अब उन्हें भी कांग्रेस से भय लगने लगा है। ममता को पता है कि भाजपा से पंगा लेने की ताकत इंडिया गठबंधन में यदि किसी में है तो वो सिर्फ कांग्रेस है। और कोई कांग्रेस की जगह नहीं ले सकता। चूंकि वे पुरानी कांग्रेसी हैं, अभी भी उनके साथ कांग्रेस का पुंछल्ला जुडा है, इसलिए उन्हें लगता है कि शायद गठबंधन के दूसरे सहयोगी उनका नेतृत्व स्वीकार कर लें।
इंडिया गठबंधन के सबसे बडे दलों में से एक समाजवादी पार्टी ने विधानसभा उपचुनावों में कांग्रेस से अलग रहकर चुनाव लडकर देख लिया है। महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में भी समाजवादी दल सुप्रीमो अखिलेश की अपनी ढपली और अपना राग सुनाई दिया था। समाजवादी दल की महत्वाकांक्षा ममता बनर्जी जैसी नहीं है। अखिलेश उत्तर प्रदेश से बाहर नहीं निकलना चाहते। उन्हें इंडिया गठबंधन के नेतृत्व की ललक भी नहीं है, क्योंकि वे जानते हैं कि उनका और उनके दल का कद कांग्रेस जैसा नहीं है। फिर भी उनके मन में भी भय है। वे भाजपा से मोर्चा तो लिए हुए हैं, लेकिन उनका आत्मविश्वास भी हिला हुआ है।
बिहार का राष्ट्रीय जनता दल कांग्रेस का अखण्ड सहयोगी रहा है, लेकिन बिहार विधानसभा चुनावों से ठीक पहले वहां भी असंतोष के सुर सुनाई दे रहे हैं। राजद के सुप्रीमो लालूप्रसाद यादव अब बूढे हो चुके हैं। उनके उत्तराधिकारी तेजस्वी यादव ठसक में हैं, लेकिन वे कांग्रेस के खिलाफ बागी नहीं हुए है। उन्हें पता है कि वे बिहार को अकेले दम पर न जीत सकते हैं और न भाजपा को सत्ता में आने से रोक सकते हैं, इसलिए वे अभी कांग्रेस के खिलाफ मुखर नहीं हुए हैं, लेकिन दल के और अपने वजूद की फिक्र उन्हें भी खाए जा रही है।
जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनावों के बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता और मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के स्वर भी कांग्रेस को लेकर तल्ख हो गए हैं। वे भी कहने लगे हैं कि इंडिया गठबंधन का न कोई एजेंडा है और न कोई नेता। दरअसल अब्दुल्ला का काम निकल चुका है। वे भी भाजपा से पंगा लेने के बजाय हिकमत आमली से पांच साल मुख्यमंत्री बने रहना चाहते हैं। उन्हें पता है कि भाजपा से पंगा लेने में उनका कोई फायदा होने वाला नहीं है, इसलिए कांग्रेस से छोड-छुट्टी करने में उन्हें कोई संकोच होने वाला नहीं है।
अब बात आती है इंडिया गतहबंधन के सबसे बडे दल कांग्रेस की। कांग्रेस के साथ सबसे बडी ताकत उसकी अपनी विरासत है। विचारधारा है, संख्या बल भी है। कांग्रेस के समाने देश की राजनीति में पहचान का कोई संकट नहीं है। देश की राजनीति को कांग्रेस विहीन बनाने का भाजपा का अभियान दस साल में कामयाब नहीं हो सका है। बल्कि पिछले दस साल में कांग्रेस की ताकत और स्वीकार्यता बढी जरूर है, कांग्रेस ने पिछले आम चुनाव से पहले देश में दो बडी जनसंपर्क यात्राएं निकलकर अपनी स्वीकार्यता को प्रमाणित भी किया है।
कांग्रेस पर एक परिवार के नेतृत्व का गंभीर और वास्तविक आरोप जरूर लगता है, लेकिन भाजपा के खिलाफ केवल कांग्रेस ही है जो हर खतरे का सामना करते हुए मैदान में खडी है। कांग्रेस आम आदमी पार्टी की तरह भाजपा की बी टीम नहीं बनी। कांग्रेस ने ईडी और सीबीआई के सामने भी हथियार नहीं डाले। कांग्रेस ने बडे पैमाने पर कांग्रेसियों के भाजपा में शामिल होने के बाद भी हिम्मत नहीं हारी। कांग्रेस ही है जो अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर सत्तारूढ भाजपा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी को कटघरे में खडा करती रही है। कांग्रेस ही है जिसका भूत भाजपा की टीम और मोदी जी के सिर पर 24 घण्टे सवार रहता है।
कुल जमा बात ये है कि इंडिया गाठबंधन बिखरता है तो खूब बिखर जाए। इस गठबंधन के बिखरने से देश की तमाम क्षेत्रीय पार्टियों का वजूद खतरे में पड जाएगा, लेकिन कांग्रेस का कुछ बिगडने वाला नहीं है। कांग्रेस का जितना नुक्सान होना था वो पिछले 10 साल में हो चुका। अब कांग्रेस सुरक्षित है, कोई माने तो ठीक और न माने तो ठीक। दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणाम आने के बाद देश के सभी गैर भाजपा दलों को पता चल जाएगा कि इंडिया गठबंधन देश की जरूरत है या नहीं?